एक मनुष्य के जीवन में शुभ संकल्पों का होना अति आवश्यक है ।क्योंकि शुभ संकल्प ही मनुष्य के कल्याण का हेतु है। शुभ का तात्पर्य अच्छे और संकल्प का तात्पर्य विचार से होता है , अर्थात अच्छे विचार होना मनुष्य के जीवन में आवश्यक हैं । यजुर्वेद के 34 वें अध्याय में निम्न प्रकार मंत्र शिवसंकल्पों के संबंध में दिए हैं ।शुभ संकल्पों से मनुष्य का मन वश में होता है । 34 वें अध्याय का पहले मंत्र निम्न प्रकार है :-
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
अर्थात जागृति की अवस्था में कहीं बहुत दूर तक चला जाने वाला, वैसे ही सुप्तावस्था में वापस उतनी दूर से लौट चला आने वाला, सभी ज्योतियों में ज्योति, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी बने।
जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा का सेवन और विद्वानों का संग करके अनेक विध सामर्थ्य युक्त मन को शुद्ध करते हैं जो जागृत अवस्था में विस्तृत व्यवहार वाला वही मन सुषुप्ति अवस्था में शांत होता है , जो वेग वाले पदार्थों में अति वेगवान ज्ञान के साधन होने से इंद्रियों के प्रवर्तक मन को वश में करते हैं , वह अशुभ व्यवहार को छोड़ शुभ व्यवहार में मन को परिवर्तित कर सकते हैं।
दूसरा मन्त्र निम्न प्रकार है :–
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः सदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।
कर्म में निरत होते व्रती मनीषी का संकल्प जिससे पूर्ण होता है, तथा जो यज्ञ में शक्ति बनकर अद्भुद् रूप से प्रतिष्ठित हो उठता है वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी बने। मनुष्य को चाहिए कि परमेश्वर की उपासना सुंदर विचार , विद्या और सत्संग से अपने अंतःकरण को अधर्म आचरण से निवृत कर धर्म के आचरण में प्रवृत्त करें।
तीसरा मंत्र निम्न प्रकार है :–
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु
यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
जो ज्ञानमय, विज्ञानमय और धृतिशील तेज बनकर सभी जीवों में रहता है, जिसके बिना कर्म सम्भव नहीं, वो मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी बने।
हे मनुष्यो ! जो अंतःकरण , बुद्धि , चित्त और अहंकार रूप वृत्ति वाला होने से चार प्रकार से भीतर प्रकाश करने वाला प्राणियों के सब कर्मों का साधक अविनाशी मन है , उसको न्याय और सत्य आचरण में प्रवृत्त कर पक्षपात अन्याय और अधर्म आचरण से तुम लोग निवृत्त करो।
चौथा मंत्र निम्न प्रकार है :–
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम् येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
जो भूत, भावी और सतत है, वह जो अमृत बनकर सब कुछ संजोता हविष् देने वाला है, सप्त रूपी जगत विस्तार कर लेने वाला, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी बने। हे मनुष्य ! जो चित्त योगाभ्यास के साधन और उप साधनों से सिद्ध हुआ , भूत भविष्य, वर्तमान तीनों काल का ज्ञाता , सब सृष्टि का जानने वाला ,कर्म – उपासना और ज्ञान का साधक है- उसको सदा ही कल्याण में प्रिय करो।
अगला मंत्र निम्न प्रकार है :–
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः यस्मिश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु ।।
अर्थात साम, ऋक्,यजु में प्रतिष्ठित प्राणियों के चित्त जिससे ऐसे ओत प्रोत हैं, जैसे रथ से उससे चक्के, वैसा मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी बने।
हे मनुष्यों ! तुम लोगों को चाहिए जिस मन के स्वस्थ रहने में वेद आदि विद्याओं का आधार और जिसमें सब व्यवहारों का ज्ञान एकत्र होता है , उस अंतःकरण को विद्या और धर्म के आचरण से पवित्र करो।
छठवें मंत्र का अर्थ निम्न प्रकार है :–
सुसारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
अर्थात जो कुशल सारथी बनकर रथ की कुशल वल्गा लिए अश्वदल को नियंत्रित कर, अथक , और द्रुत रूप से गतिशील करता हो, प्राणियों के ह्र्दय में स्थित रहने वाला ऐसा वो मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी बने।
जो मनुष्य जिस पदार्थ में आसक्त है वही बल से सारथी घोड़ों को जैसे वैसे प्राणियों को ले जाता और लगाम से स्वार्थी घोड़ों को जैसे वैसे वश में रखता सब मूर्ख जन जिसके अनुकूल वर्तते और विद्वान अपने वश में करते हैं , जो शुद्ध हुआ सुखकारी और अशुद्ध हुआ दुखदाई , जो जीता हुआ सिद्धि को और जो न जीता हुआ सिद्धि को देता है वह मन मनुष्य को अपने वश में रखना चाहिए।
इन छह मंत्रों को महर्षि दयानंद ने शांतिकरणम के प्रकरण में 20 वें क्रम से लेकर 25 वे क्रम तक रखा है।
संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को यदि शुभ संकल्प चाहिए तो उसको अपने मन को वश में इस प्रकार रखना होगा जैसे एक सारथी अपने घोड़ों को अपने वश में रखता है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत