क्रांति के पुजारी थे स्वातंत्रय वीर सावरकर
सावरकर जी का पूरा नाम था विनायक दामोदर सावरकर
उनका जन्म 28 मई 1882 को नासिक जिले के भगूर नामक ग्राम में हुआ था । आज सावरकर कहने मात्र से इन्हीं महापुरुष का बोध होता है । इनके परिचय के बारे में कुछ लिखना अटपटा लगता है । सावरकर जी में अदम्य साहस था जब इन्हें गिरफ्तार करके लंदन से भारत लाया जा रहा था तो यह पानी जहाज से समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस की धरती पर पहुंच गए । अंग्रेज सैनिकों की गोलियां भी इनका पीछा करती रही लेकिन वे पकड़े नहीं जा सके । उन्हें पकड़ा जा सका तो फ्रांस की धरती पर वह भी अंग्रेज सैनिकों द्वारा फ्रांस के सैनिकों को धन देकर , क्योंकि सावरकर बचते- बचते फ्रांस के सैनिकों के संरक्षण में पहुंच चुके थे ।
अंग्रेज सरकार ने इन पर मुकदमा चलाकर दो-दो आजीवन कारावास की सजा दी । अर्थात 50 वर्षो की कैद । इन्हें कालापानी अर्थात अंडमान की सेलुलर जेल भेजा गया जहां बारी नामक खूंखार जेल सुपरिटेंडेंट की देखरेख में रहना पड़ा ।
उन्हें प्रतिदिन कोल्हू चलाकर 30 पौंड तेल निकाल कर देना पड़ता था । इतनी भयंकर यातनाएं सहने पर भी सावरकर जी ने कभी हार नहीं मानी । वे समय निकालकर नुकीले पत्थर से जेल की दीवार पर बंदी बनाए गए दिन से किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत किया इस कहानी को लिखने लगे । माझी जन्म ठेप के नाम से यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ । उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ हिंदुत्व ‘ भी यही लिखी गई थी । सन 1929 में उन्हें भारत लाया गया । उन्हें रत्नागिरी में स्थानबद्ध कर दिया गया था ।
सन 1934 में प्रांतीय विधानसभा के चुनाव हए , बम्बई प्रांत में कांग्रेस ने बहुमत पाकर भी मंत्रिमंडल नही बनाया । तब आपातकालीन मंत्रिमंडल बनाया गया । बैरिस्टर जमुनादास मेहता इसके सदस्य थे । मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए उन्होंने शर्त रखी कि सावरकर जी को रिहा किया जाए । उनकी शर्त मानकर सरकार ने 10 मई 1937 को सावरकर जी को रिहा कर दिया । हिंदुस्तान की राजनीति में एक और शक्ति का प्रवेश हुआ । सुभाष चंद्र बोस और मानवेंद्र राय रिहा होने पर कांग्रेस में शामिल हुए , यद्यपि दोनों को ही बाद में कांग्रेस को छोड़ देना पड़ा । लगा कि अब सावरकर जी भी कांग्रेस में जाएंगे । कांग्रेस के अंतर्गत समाजवादी गुट में सावरकर जी भी शामिल हो यह प्रार्थना करने श्री एम एम जोशी एवं अच्युत राव पटवर्धन रत्नागिरी आए । सावरकर जी ने कांग्रेस में शामिल होने से इनकार कर दिया । जिस व्यक्ति ने ‘ हिंदुत्व ‘ जैसा ग्रंथ लिखा तथा श्रद्धा , केसरी और अन्य समाचार पत्रों में हिंदू राष्ट्र का शब्द प्रयोग किया उस व्यक्ति का कांग्रेसमें जाना असंभव था ।
दिसंबर 1937 में आयोजित अहमदाबाद के हिंदू महासभा के वार्षिक अधिवेशन में सावरकर जी को राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया । अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा कि स्वतंत्र हिंदुस्तान में शासन पूर्ण रूप से हिंदी में होगा । मताधिकार , शासकीय सेवा का निर्धारण आदि में किसी प्रकार का सांप्रदायिक भेदभाव नहीं बरता जाएगा । कौन हिंदू है , कौन मुसलमान है , इसाई है या यहूदी है इस पर विचार न किया जाए । हिंदुस्तान के प्रशासन की रूपरेखा बनाने के पश्चात उन्होंने प्रश्न किया कि किसी प्रकार के विशेष अधिकार की मांग न करते हुए क्या मुसलमान प्रशासन में सहभागी होने के लिए तैयार है ?
पाकिस्तान की मांग को सामने रखकर और उसे प्राप्त करके मुसलमानों ने इस सवाल का जवाब दे दिया ।
अंत में उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता के संबंध में अपना प्रसिद्ध सूत्र दोहराया –‘ साथ आए तो तुम्हारे साथ , न आए तो तुम्हारे बिना , किंतु यदि तुम ने विरोध किया तो हिंदू तुम्हारे विरोध का सामना करके अपनी ताकत के बल पर आजादी की लड़ाई आगे बढ़ाएगा ।
3 दिसंबर 1939 को दूसरा विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ रे ।
1940 के मुदरै में हिंदू महासभा का अधिवेशन हुआ । इस समय सावरकर जी को सैनिकीकरण और औद्योगिकरण पर अपने विचार देने का अच्छा अवसर मिला । युद्ध के दौरान क्या करना चाहिए , यह सवाल उठा तो उन्होंने कहा — ‘ अपने और विरोधी के साधनों का विचार करने के पश्चात महायुद्ध से पैदा हुए हालात का लाभ लेने के लिए हमें युद्ध प्रयासों में शामिल होना चाहिए । सरकार की परिस्थिति ने मजबूर किया है । इसलिए उसने युद्ध प्रयासों में मदद प्राप्त करने के लिए सभी दरवाजे खुले रखे हैं । अपने समाज का जितना सैनिकी और औद्योगीकरण होगा हमें उतना ही इन प्रयासों में शामिल होना है । सौभाग्य से इस एक वर्ष की अवधि में हमें अनेक अवसर प्राप्त हुए हैं । ऐसा अवसर पिछले 50 सालों में हमें कभी नहीं मिला और संभवत: आने वाले 50 सालों में भी मिलेगा नहीं । ‘ सैनिकीकरण में शामिल होने का दूसरा अर्थ है ब्रिटिश सरकार को सहायता करना , ऐसी हास्यास्पद टिप्पणी करने वालों को सावरकर जी ने जवाब देते हुए कहा कि ब्रिटिश लोग जो कर रहे हैं वे अपने लाभ के लिए ही कर रहे हैं । हम युद्ध प्रयासों में सहायता कर रहे हैं या उनका विरोध नहीं कर रहे हैं । इसका कारण ब्रिटिशो को सहायता करना नहीं है , बल्कि उसमें हमारा लाभ है । अब मैं आपसे पूछता हूं कि यदि कोई यह कहता है कि यह हिंसाचार है , या कि साम्राज्यवादी शक्ति को सहायता करना है तो फिर क्या हमें अपने हाथ में आई सैनिक शक्ति बढ़ाने का यह सुनहरा अवसर छोड़ देना चाहिए ? इस समय सावरकर जी ने पूरे देश का दौरा किया ।
कलकत्ता में हुए भाषण में कहा — ‘ 1857 का स्वतंत्रता संग्राम समाप्त होने के बाद हिंदी सैनिकों को भारतीय राजनीति से दूर रखने की नीति ब्रिटिश सरकार ने अपनाई है । हिंदी सैनिकों में राजनीति का प्रचार करना हमारा पहला कर्तव्य है । हम स्वतंत्रता का युद्ध जीत सकेंगे ।
हिंदू महासभा का अधिवेशन भागलपुर में दिसंबर 1941 में होने वाला था । किंतु सरकार ने इस अधिवेशन पर प्रतिबंध लगा दिया । हिंदू महासभा के हजारों स्वयंसेवकों ने इस पाबंदी के विरुद्ध अधिवेशन आयोजित करने का प्रयास किया । उन्हें गिरफ्तार किया गया । एक सप्ताह के बाद उन्हें मुक्त किया गया । इस घटना ने यह साबित कर दिया कि ऐसे आंदोलनों के लिए कांग्रेस या गांधी जी की कोई आवश्यकता नहीं है ।
1857 प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का शताब्दी समारोह दिल्ली में आयोजित किया गया । इसमें प्रमुख वक्ता सावरकर थे ।
10 मई को कांग्रेस की ओर से पंडित नेहरू का भाषण हुआ ।
दो दिन पश्चात उसी स्थान पर सावरकर जी ने उस से बढ़कर विशाल जनसमुदाय के सामने भाषण दिया । इसके अतिरिक्त वे पत्रकार सम्मेलन में भी बोले और कहा कि 1857 का विद्रोह नहीं यह क्रांन्ति थी । उन्होंने फ्रेंच और रशियन क्रांति का भी उल्लेख किया कि इस देश की प्रारंभिक क्रांति भी शांति और रोटी जैसी सामान्य बात के लिए ही थी । बन्धुत्व , स्वतंत्रता , समता इन महान तत्वों का बाद में समावेश हुआ । गांधीजी का नमक सत्याग्रह शुरुआत में छोटे पैमाने पर ही था , किंतु बाद में उसमें से स्वराज्य प्राप्ति का बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ । 60 – 70 संवाददाता इस सम्मेलन के लिए आए थे और सावरकर के 1857 के इस मुद्दे के विवेचन पर मन्त्र मुग्ध हो गए थे ।
सितंबर 1965 को एक उत्साहवर्धक घटना घटी । उस दिन हिंदुस्तान-पाकिस्तान युद्ध प्रारंभ हुआ । भारतीय सेना लाहौर की ओर चल पड़ी । यह सुनकर सावरकर बोले — ‘ अपनी सेना को आगे कूच करने में कुछ भी अड़ंगा नहीं आना चाहिए , दुनिया क्या कहेगी इस भय से पीछे हटना नही चाहिए ।
जब सावरकर जी का शरीर अत्यंत ही निर्बल हो गया तो उन्होंने शारीरिक यातनाओं का अंत करने के लिए उपवास का मार्ग अपनाने का विचार किया ।
26 फरवरी 1966 को प्रातःकाल 11बजकर 10 पर उनकी प्राण ज्योति अनंत में विलीन हो गई । लगभग हर महान व्यक्ति की तरह इस महान विभूति ने भी अपेक्षित वातावरण में ही स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया ।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों के पुज्य महान क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर सदा ही प्रत्येक देशभक्त को स्मरणीय रहेंगे ।
धर्म चंद्र पोद्दार
राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष
वीर सावरकर फाउंडेशन
मो न 9934 167977