मनुष्य आत्मा एवं शरीर से संयुक्त होकर बना हुआ एक प्राणी हैं। आत्मा अति सूक्ष्म तत्व व सत्ता है। इसे शरीर से संयुक्त करना सर्वातिसूक्ष्म, सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य व अविनाशी ईश्वर का काम है। आत्मा स्वयं माता के गर्भ में जाकर जन्म नहीं ले सकती। आत्मा को माता के शरीर में भेजना, वहां उसका पोषण करना, उसके शरीर व भिन्न अवयवों की रचना करना परमात्मा का काम है। परमात्मा न हो तो जीवात्मा का अस्तित्व होने पर उसका मनुष्य आदि किसी भी प्राणी योनि में जन्म नहीं हो सकता। अनादि काल से सृष्टि की रचना व प्रलय सहित जीवात्माओं के जन्म-मृत्यु-मोक्ष का क्रम चल रहा है। अनन्त काल तक यह चलता रहेगा। यह सिद्धान्त वेद तथा तर्क एवं युक्त्यिों से सिद्ध है। जो मनुष्य इस रहस्य को जान लेता है उसे कुछ समय के लिये तो वैराग्य ही हो जाता है। मनुष्य संसार में अपने सुख सुविधाओं के लिये जो उचित व अनुचित तरीकों से पाप-पुण्य करता है, उसे पापों से घृणा हो जाती है। उसे जब पता चलता है कि हमारा जन्म व सुख-दुःखों का कारण हमारे पूर्वजन्मों के पाप-पुण्य कर्म हैं, तो वह पापों के प्रति निरासक्त हो जाता है। उसकी प्रवृत्तियां ईश्वर की ओर मुड़ जाती हैं। उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर का सत्य ज्ञान, उसकी ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना एवं सद्कर्म ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य हैं। तपस्वी जीवन सुख-सुविधाओं से युक्त जीवन से कहीं अधिक श्रेष्ठ, आदर्श एवं आचरणीय है। इस स्थिति में पहुंच कर मनुष्य को सत्पुरुषों की संगति, उनसे उपदेश ग्रहण करना, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना, दुर्बलों, अनाथों, पीड़ितों व असहायों की रक्षा व सेवा करना उसे अपने कर्तव्य प्रतीत होते हैं। इस प्रकार की अनुभूतियों से युक्त मनुष्य ही सच्चा मनुष्य व देव कोटि का साधु होता है। ऐसे मनुष्य को सज्जनों से आदर व सम्मान प्राप्त होता है तथा ऐसे मनुष्य को भी दुष्ट व विधर्मी पसन्द नहीं करते। उन्हें तो अपने मतों को येन केन प्रकारेण बढ़ाना ही अभीष्ट होता है। ऐसे मतान्ध लोग मनुष्य जीवन में सत्यासत्य, गुण-अवगुणों व सद्व्यवहार आदि के महत्व को जान ही नहीं सकते।
स्वाध्याय वेद के अध्ययन व उसकी शिक्षाओं को आत्मसात करने को कहते हैं। ऋषि दयानन्द व उनके प्रमुख अनुयायियों का जीवन वेद व सद्ग्रंथों के स्वाध्यय के अनुरूप जीवन रहा है। इसके लिये ऋषि दयानन्द योग की शरण को प्राप्त हुए थे और योग के अष्टांगों का उन्होंने सफलतापूर्वक अभ्यास किया था। योग में ध्यान व समाधि सातवें व आठवें अंग हैं। इनको सिद्ध कर लेने पर मनुष्य असाधारण मनुष्य बन जाता है। वह ईश्वर के यथार्थस्वरूप को न केवल जान लेता है अपितु उसे ईश्वर का साक्षात्कार भी हो जाता है। ईश्वर साक्षात्कार में मनुष्य का आत्मा ईश्वर के आनन्द का अनुभव व भोग करता है। ऐसा आनन्द संसार के किसी पदार्थ के भोग में नहीं है। जिस मनुष्य ने भी जीवन में समाधि अवस्था को प्राप्त किया है उसका जीवन लक्ष्य सिद्धि होने से सफल कहाता है। समाधि अवस्था को प्राप्त मनुष्य को विवेक प्राप्त होता है। इससे वह सभी दुष्कर्मों व अहितकारी कर्मों का त्याग कर जीवनमुक्त अवस्था में स्थित होकर परोपकार व ईश्वरोपासना रूप समाधि में ही अपना समय व्यतीत करता है। मनुष्यों को सदाचार व वेदमार्गाचरण का उपदेश करना भी उसके भावी जीवन में सम्मिलित रहता है। ऐसे मनुष्य की मृत्यु होने पर उसे पुनर्जन्म से अवकाश मिल जाता है। वह मोक्ष की अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर के सान्निध्य में रहता है और मुक्त जीवों से मिलकर निद्र्वन्द रहकर आनन्दपूर्वक 31 नील 10 खरब वर्षों से भी अधिक अवधि तक मोक्ष का आनन्द भोगता है।
वैदिक धर्म व संस्कृति की इन्हीं विशेषताओं के कारण प्राचीन वैदिक काल में हमारे देश में अधिकांश लोग वैराग्य वृत्ति को प्राप्त होकर ईश्वर की खोज व उपासना को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया करते थे जिससे संसार में सर्वत्र सुख विद्यमान था। प्राचीन काल में संसार में एक वैदिक मत ही प्रचलित था, आजकल की तरह मत-मतान्तरों की भरमार नहीं थी। उन दिनों न हिंसा थी, न मांसाहार और न आतंकवाद जैसी दुष्प्रवृत्तियां। सर्वत्र सब मनुष्य स्वाधीन व सुखी थे। सबका धर्म व संस्कृति एक थी। देश गाय व लाभकारी पशुओं से भरा हुआ था। सभी को प्रचुर दुग्ध व दुग्ध पदार्थ प्राप्त होते थे। अन्न भी सबको सुलभ होता था। उन्हें वर्तमान समय की तरह सुख के विविध भौतिक साधनों की आवश्यकता नहीं थी। इसी कारण उस समय किसी प्रकार का वायु व जल प्रदुषण भी नहीं था। सभी लोग सुख व आनन्द का अनुभव करते हुए निर्भयता से जीवन व्यतीत करते थे। यहां यह भी बता दें कि आज के सभी मतों हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, सिख आदि के पूर्वज वैदिक धर्मी आर्य ही थे। सब ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्” को मानते थे और इसके अनुरूप ही व्यवहार करते थे। अविद्या का कहीं नामोनिशां नहीं था। सबकी पूजा पद्धति एक थी। सभी सन्ध्या एवं अग्निहोत्र करते थे। एक दूसरे के सुख व दुःख में सहायक एवं एक दूसरे की उन्नति के पूरक व सहयोगी होते थे।
संसार में ईश्वर एवं सामाजिक कर्तव्यों विषयक साहित्य के अन्तर्गत मूल ग्रन्थ वेदों से इतर आर्याभिविनय, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, उपनिषद, दर्शन एवं मनुस्मृति सहित बाल्मीकि रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थ हैं। इन्हें इसी क्रम से पढ़ने से मनुष्य की धर्म, ईश्वर, आत्मा, स्वकर्तव्य, जीवनशैली, उपासना, अग्निहोत्र आदि विषयक सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं। मनुष्य ईश्वर व आत्मा संबंधी सत्य ज्ञान को प्राप्त होता है। आत्मा व मन में कोई भ्रान्ति नहीं रहती। ईश्वर का सत्यस्वरूप स्पष्ट हो जाता है। स्वाध्याय की ऐसे प्रवृत्ति बनती है कि बिना स्वाध्याय जीवन अधूरा प्रतीत होता है। स्वाध्याय विषयक आर्यसमाज में अनेक विद्वानों ने प्रभूत साहित्य लिखा है। डा. रामनाथ वेदालंकार, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द ग्रन्थावली, महात्मा हंसराज ग्रन्थावली आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय कर जीवन को अत्यन्त सुखी व सन्तोष से युक्त बनाया जा सकता है। जिस मनुष्य ने इस साहित्य एवं अन्य उपयोगी साहित्य को पढ़ लिया वह मनुष्य समाज के लिये एक अत्यन्त हितकर व कल्याणकारी मनुष्य बन जाता है। वह श्रद्धावान आस्तिक तो होता ही है। उसके सम्पर्क में आने वाले सभी मनुष्य भी उससे प्रभावित व लाभान्वित होते हैं। हमारा सौभाग्य है कि हमें उपयुक्त सभी ग्रन्थों सहित अनेक वैदिक विद्वानों के अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने का सौभाग्य मिला है। ऋषि दयानन्द के अनेक वृहद व लघु जीवन चरित प्रकाशित हुए हैं जो सभी प्राप्तव्य हैं। हमने इन सभी को पढ़ा है। स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, पं. युधिष्ठर मीमांसक, आचार्य भद्रसेन, स्वामी ब्रह्ममुनि, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, लाला लाजपत राय, पं. रामप्रसाद बिस्मिल आदि देशभक्त विद्वान व वैदिक धर्मियों की आत्मकथायंर वा जीवन चरित्र भी स्वाध्याय के अंग बनाने चाहियें। इससे मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि व आत्मिक सन्तोष की प्राप्ति होती है। अतः उपर्युक्त सभी ग्रन्थों का स्वाध्याय कर इस संसार को यथार्थरूप में जानना चाहिये तथा देवत्व के गुणों को ग्रहण कर सन्मार्ग का पथिक बनना चाहिये।
ईश्वर की उपासना हमारा प्रथम व मुख्य कर्तव्य है। इसका कारण है कि हम पर ईश्वर के अनन्त उपकार हैं और वह निरन्तर हम पर उपकार करता ही चला जा रहा है। वह कभी हमसे अपने उपकारों के बदले में कोई अपेक्षा नहीं रखता। वह परमज्ञानी व सर्वशक्तिमान है। उपासना करने से मनुष्य के दुर्गुणों व दुःखों का नाश होता है। सुखों व कल्याण की प्राप्ति होती है। दुःखों को सहन करने की शक्ति व ईश्वर से सद्प्रेरणायें प्राप्त होती हैं। आत्मशक्ति व आत्मबल की प्राप्ति होती है। परोपकार करने व स्वार्थ से ऊपर उठने का संकल्प उत्पन्न होता है। मनुष्य के भीतर लोकैषणा, वित्तैषणा तथा पुत्रैषणा भी दूर हो जाती है। ईश्वर की उपासना ही मनुष्य का सबसे श्रेष्ठ कर्म व अनिवार्य कर्तव्य है। हमारे सभी महान पुरुष व ऋषि मुनि ईश्वर के उपासक व भक्त थे। उन्होंने ईश्वर की उपासना के बल पर ही संसार में महान कार्यों को किया। ऋषि दयानन्द को यह श्रेय प्राप्त है कि जब भारत सभी ओर से अज्ञान, अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों तथा परतन्त्रता तथा विधर्मियों के आघातों से त्रस्त था, तब उन्होंने ने आकर हमें इन सब दुःखों से मुक्त कराने के उपाय बताये और हमें ईश्वर की उपासना तथा स्वाध्याय का महत्व समझाया। उन्होंने बताया कि अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। इसी कार्य को विस्तृत करने के लिये उन्होंने सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों सहित वेदभाष्य का प्रणयन किया। इसके साथ ही उन्होंने संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन कराने के लिये अनेक पाठशालायें खोली थीं। उनके प्रमुख शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल कागंड़ी सहित आठ गुरुकुल स्थापित व संचालित किये जिसमें कन्या गुरुकुल तथा स्कूल भी सम्मिलित हैं। डी.ए.वी. स्कूल व कालेज भी ऋषि दयानन्द के शिष्यों ने ही आरम्भ किये जो अब भी संचालित हो रहे हैं। भारत को आधुनिक बनाने सहित देश को आजादी दिलाने में आर्यसमाज का सबसे प्रमुख भूमिका है। यह सब सत्य ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा ईश्वर की यथार्थ भक्ति व उपासना का ही परिणाम था। स्वाध्याय से मनुष्य अपनी आत्मा सहित ईश्वर एवं सृष्टि को यथार्थरूप में जानता है। उसे अपने कर्तव्यों एवं ईश्वरोपासना की विधि का ज्ञान होता है। उसे परोपकार करने की प्रेरणा व स्वदेश भक्ति का विचार मिलता है। वह स्वदेश व मातृभूमि को अपनी माता मानता है। उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिये तत्पर रहता है। वह राम के आदर्श वाक्य कि माता व मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है, इसको आत्मसात करता व कराता है। आजकल की मैकाले व विदेशी शासकों द्वारा जारी की गई शिक्षा हमें अपने धर्म व देशभक्ति के विचारों से दूर ले जा रही है तथा नई पीढ़ी को देश व धर्म का विरोधी बना रही है। आजकल की शिक्षा व कुछ शिक्षाविदों के षडयन्त्रों के कारण हमारे विद्यार्थी दूसरे देशों का गुणगान व अपने देश की निन्दा करते हुए भी देखे जाते हैं। यह सब दोष वैदिक साहित्य के स्वाध्याय तथा ईश्वरोपासना से दूर हो जाते हैं। अतः हम सबको वेद व ईश्वर की शरण में आकर स्वाध्याय व ईश्वरोपासना से स्वजीवन का कल्याण करना चाहिये। ओ३म् शम्।