लॉक डाउन में तनाव और घरेलू हिंसा झेलती भारतीय महिला
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस की चिंता वाजिब है कि दुनिया में कोरोना वायरस के लगातार बढ़ते हुए संक्रमण का महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और उनके प्रति मौजूद सामाजिक असमानता काफी बढ़ गई है। कोरोना महामारी के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य से लेकर उनकी स्थिति और सामाजिक सुरक्षा तक पर बुरा असर पड़ा है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा का ग्राफ काफी बढ़ा है।लॉकडाउन की वजह से महिलाओं के जीवन पर हर तरफ बुरा असर देखने को मिल रहा है। दुनिया भर में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। भारत के राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक, लॉकडाउन के पहले हफ्ते यानी 23 से 31 मार्च के बीच घरेलू हिंसा की कुल 527 शिकायतें दर्ज हो चुकी थीं। ई-मेल के जरिए घरेलू हिंसा की ढेरों शिकायतें देश भर से आनी जारी हैं। आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा के मुताबिक घरों में बैठे-बैठे पुरुष परेशान हो गए हैं जिनका सारा गुस्सा महिलाओं पर निकल रहा है।
महिलाओं पर पारिवारिक हिंसा की घटनाएं अमेरिका, यूरोप, दक्षिणी अमेरिका, चीन, स्पेन, इटली और भारत सब जगह बड़े स्तर पर दर्ज हुई हैं। जाहिर है महिलाएं लॉकडाउन के दौरान भारी मानसिक दबावों में जीने को मजबूर हैं। ऊपर से महामारी का भय बराबर बढ़ता जा रहा है। महिलाएं अपने परिवार के प्रति सरोकारी भाव ज्यादा रखती हैं। इसी कारण अपनी और अपने परिजनों की चिंता उन्हें गहरे अवसाद में धकेल रही है। हालांकि मनोवैज्ञानिक कोरोना संकट की महामारी के दौरान मर्दों की हिंसक प्रवृत्ति में इजाफा होने और घरेलू हिंसा के बढ़ जाने को एक सामान्य प्रवृत्ति बता रहे हैं। ‘यह होगा ही – लोगों के काम-धंधे चौपट होंगे तो उनके मानसिक तनाव बढ़ेंगे, आर्थिक दबाव बढ़ेंगे क्योंकि लोगों के दिल, दिमाग और ऊर्जा का कहीं भी प्रबंधन नहीं हो रहा है। इस कारण वे जरा-जरा सी बातों पर खीझ उतारेंगे ही।’मनोवैज्ञानिकों की यह बात मान ली जाए तो भी बड़ा और गंभीर सवाल तो है ही कि क्या पुरुष अकेले इस संकट का सामना कर रहे हैं? क्या यह खतरा घर में दुबके-बैठे सिर्फ पुरुषों के लिए है? क्या ऐसी महामारी में भी पुरुष वर्ग महिलाओं के प्रति संवेदनशील सोच नहीं रखता है? क्या महिलाएं इंसान नहीं हैं? ये तमाम सवाल हैं जो आज के तथाकथित आधुनिक व सभ्य समाज के गले में अटक रहे हैं।चीन में तो लॉकडाउन के दौरान महिला हिंसा की घटनाएं तीन गुनी बढ़ गईं। वहीं स्पेन की सरकार महिलाओं को हिंसा से बचने के अजीब-अजीब तरीके सुझा रही है – ‘ऐसे क्षणों में महिलाएं स्वयं को बाथरूम में बंद कर लें’। इतना ही नहीं, बढ़ती घटनाओं को देखकर स्पेन सरकार ने सख्ती से यह लागू किया कि लॉकडाउन में ढील दिए जाने के दौरान सिर्फ महिलाएं ही घर से बाहर जा सकेंगी ताकि उन्हें मानसिक तनाव से थोड़ी राहत महसूस हो। इटली सरकार ने स्वयंसेवी संस्थाओं को निर्देशित किया कि चौबीसों घंटे महिलाओं की काउंसलिंग और सहायता के लिए हेल्पलाइन उपलब्ध कराएं, सरकार इसके लिए तत्पर है।
फ्रांस ने तो, जो महिलाएं पुलिस में शिकायत करने अथवा फोन करने की हिम्मत न जुटा पाएं, उनके लिए एक गुप्त कोड की व्यवस्था की है। महिला पास के किसी मेडिकल स्टोर पर जाकर ‘मास्क-19’ मांग ले, बस! ‘मास्क-19’ सुनते ही अब केमिस्ट की यह जिम्मेदारी है कि उस पीड़ित महिला की घरेलू हिंसा से रक्षा-सुरक्षा का पूरा इंतजाम करे। महिला हिंसा के निरंतर बढ़ते मामलों को देख स्पेन सरकार ने भी इस मॉडल को अपने यहां अपनाने का फैसला लिया।भारतीय परिवेश में तो महिलाओं के लिए काम करना वैसे ही बहुत दूभर है। उन्हें हमेशा ही घर से बाहर तक ढेरों मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। नौकरी के साथ-साथ अपने घरेलू काम का समायोजन या संतुलन साधना सिर्फ भारतीय महिलाओं को ही आता है। वे दिन-रात खटती हैं पर हार नहीं मानतीं। उनकी जीवटता ही वास्तव में इस समाज को चलायमान बनाए हुए है। लॉकडाउन के दौरान तो हर संवेदनशील व्यक्ति ने महसूस किया होगा कि पूरी दुनिया के काम भले थम गए हों या कम हो गए हों पर महिलाओं के काम पहले से कई गुना बढ़ गए हैं। घर के अलावा जिन क्षेत्रों में महिलाएं बड़ी संख्या में अपनी सेवाएं देती हैं वह है – स्वास्थ्य विभाग ओर बैंकिंग सेक्टर। लॉकडाउन में दोनों पर ही काम का बोझ पहले से ज्यादा है। दोनों क्षेत्रों के जरिए महिलाएं सफल लॉकडाउन की आधारशिला बनकर खड़ी हैं।घर में पुरुषों के बेतुके बयानों/सलाहों, छोटे बच्चों की उल-जुलूल मांगों और बुजुर्गों की अतिरिक्त अपेक्षाओं के बीच सामान्य बने रहकर काम के बोझ को सहज दिनचर्या में ढाल लेना बताता है कि लॉकडाउन की लाइफ-लाइन महिलाएं ही हैं।
दुनिया में स्वास्थ्य विभाग में महिलाओं की बड़ी संख्या कार्यरत है। जरूरी सेवाओं में तैनाती उनकी परेशानियों को कई गुना बढ़ाए हुए है। घरेलू कामकाज तक सीमित महिलाओं के संकट भी कोरोना संकट के साथ गुणात्मक रूप में बढ़े हैं। लॉकडाउन के कारण घर में काम बढ़ गया है। उनके कामकाज के घंटे लगभग दोगुने हो गए हैं। बावजूद इसके कोरोना संकट के दौरान दुनिया भर में महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा बढ़ी है जो सभ्य समाज को कटघरे में खड़ा करती है। अपने देश में इस दिशा में समाज और सरकार की गंभीरता का कहीं नजर न आना और भी दुखद है।दिन भर टीवी चैनलों पर इधर-उधर के तमाम वाहियात कार्यक्रम जोरों पर रहते हैं, पर एक भी कार्यक्रम या विज्ञापन समाज को यह समझाता नहीं दिखता कि ऐसे संकट काल में कैसे संभलकर रहना है? कैसे सहयोग और समायोजन के साथ लॉकडाउन को सफल बनाना है? महिलाओं पर हिंसा नहीं, उनकी मदद करनी है। पारिवारिक हिंसा पर मर्दों को जागरूक करने का कोई ऐसा प्रयास समाज या सरकार के स्तर पर नहीं दिखा है। इसका उल्टा सोशल मीडिया पर दिनभर महिलाओं का मजाक बनाने वाले चुटकुलों की बाढ़ जरूर आ गई है। महिलाओं के कामकाज के बोझ को चुटकुलों में उड़ा देने वाली प्रवृत्ति सोशल मीड़िया के जरिए बढ़ती दिखी है। भारत ही नहीं, महिलाओं के प्रति पूरी दुनिया का एकसमान रवैया है। सभ्य और विकसित कहे जाने वाले समाजों में भी घरेलू हिंसा का ग्राफ इसी तरह तेजी से बढ़ा है।आधुनिक सभ्यता का इतिहास जब लिखा जाएगा और कोरोना महामारी को मानवीय सभ्यता के अस्तित्व पर खतरे के रूप में दर्ज किया जाएगा तब इस घृणित मर्दवादी सोच को भी चिन्हित किया जाएगा। पुरुष वर्चस्व वाली दुनिया में महिलाओं के प्रति हिंसात्मक रवैये और महिला विरोधी घटिया सोच व व्यवहार में लेशमात्र भी कमी नहीं आई है। संसार की इस सच्चाई को सतह पर लाने का काम भी कोविड-19 लॉकडाउन ने बखूबी किया है। पितृसत्तात्मक सोच पुरुषों की धमनियों में अब भी बह रही है। सामान्यतः पुरुषों की हरकतों को महिलाएं दबाती-छिपाती रहती हैं। लॉक-डाउन ने घरेलू हिंसा के नग्न सत्य को उघाड़ कर रख दिया है।भारतीय महिलाओं को लॉकडाउन की लाइफ-लाइन कहा जाए तो बेहतर है। लॉकडाउन में समाज, सरकार और बाजार सबके काम कम हुए हैं या लगभग रुके रहे हैं, वहीं दुनिया की आधी-आबादी इस संकट से जूझने में दोगुनी मशक्कत के साथ जुटी हुई है क्योंकि महिलाओं के काम में तो गुणात्मक वृद्धि हुई है। घरेलू कामों और खानपान से लेकर दैनिक रुटिन में उपभोग का ग्राफ बढ़ गया है। इसका सारा दबाव महिलाओं को झेलना पड़ रहा है। आर्थिक-राजनीतिक दबावों से घर का वातावरण जिस तनाव की जद में आया है उसका पहला शिकार महिलाएं ही बनी हैं। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में इस संकट के दौरान यह देखने में आया है।
बच्चों में बढ़े चिडचिड़ेपन की सारी खपत मां के आंचल में ही होती है। दुनिया का मर्दवाद जिस गुस्से की जकड़न में है वास्तव में वही उसके हजार दुखों की मुख्य वजह है। इसके कारण परिवार के परिवार परेशान हैं। दुनिया में महिला हिंसा का आंकड़ा इसी मर्दवादी हीन-ग्रंथि की विष-बेल से बढ़ता है।माँ और बाप में धरती-आसमान का फर्क होता है। बाप पर गुस्से का एक छोटा बादल नहीं थम पाता। जरा-जरा सी बातों पर बरस पड़ता है। वहीं माँ धरती-सा धैर्य रखकर उलझनों को सुलझाने में जुट पड़ती है और अंततः जीत जाती है। अपनों के लिए; अपने पूर्ण ईमान, समर्पण, धैर्य व संयम की साधना के सहारे। यही वह चीज है जो महिलाओं को महान से महानतम बनाती है और इसका अभाव मर्द को नामर्द नामित करता है। लॉकडाउन में महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा का बढ़ना दुनिया के लिए व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के स्तर पर आत्म-अवलोकन का अंतिम अवसर है। आखिर हमने कैसी मानवीय सभ्यता खड़ी की है? दुनिया भर में लॉकडाउन की लाइफ-लाइन महिलाएं बनी हैं, इस सत्य की समझ यदि हमारे अंदर सच्ची मानवीय साझेदारी स्थापित करने का मनोविज्ञान विकसित कर पाई तो इस अवसर का शायद इससे बेहतर परिणाम कुछ और नहीं हो सकता।
लेखक युवा समाजशास्त्री है!
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