स्वामी श्रद्धानंद और महात्मा गांधी

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जिन्होंने इतिहास के उन पन्नो को पलटा है, जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे, तब उन्होंने आर्थिक सहायता के लिये अभ्यर्थना भारत से की | उन दिनों गुरुकुल कांगड़ी में २-३ अंग्रेजी अख़बार आते थे | स्वामी श्रद्धानंद ने उन अखबारों के आधार पर गांधीजी की सहायता करने की सोची | गुरुकुल के छात्रों ने दिसम्बर की ठण्ड में गंगा किनारे कुछ श्रम कर कुछ रुपये इकठ्ठे करके ‘गुरुकुल सहायता’ के नाम से उनको भेजे |
स्वामी श्रद्धानंद आयु, ज्ञान, अनुभव तथा सेवा में गांधी से श्रेष्ठ और ज्येष्ठ तो थे ही | इस कारण गांधी उन्हें बड़े आदर से ‘बड़े भाई जी’ शब्द से सम्बोधित किया करते थे | स्वामी श्रद्धानंद कांग्रेस में देश सेवा हेतु शामिल हुए थे, परन्तु हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर मुसलमानों की चापलूसी, हिन्दू हितो की अपेक्षा, खिलाफत आन्दोलन को समर्थन, दंगो की निन्दा तक न करना, अछूतों (दलित) कहे जाने वाले ८ करोड़ हिन्दुओ के हित में कोई कदम न उठाना जैसे अनेक विषय थे जिनके कारण स्वामीजी को कांग्रेस से अलग होना पड़ा। आर्य समाज महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा गठित की गई वैदिक व समाजिक संस्था है, जो वेद के रहस्य को प्रचारित करती है। यह संस्था मुस्लिम समुदाय द्वारा देश में फैलाए जा रहे कुव्यवस्थाओं को उजागर करता रहा है। इसलिए मुसलमानों को आर्य समाज के गतिविधियाँ ख़ासकर भारत को मुस्लिम राष्ट्र घोषित करने के उनके लक्ष्य में बाधा लगता था। लिहाजा गाँधी ने मुसलमानों को खुश रखने के लिए आर्य समाज पर हमले कराने जैसे पतित कार्य को भी किया था।

यह खुलासा गोपाल गोडसे ने अपनी पुस्तक में की है। उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम समुदाय नाराज न हो इसके लिए गाँधी किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। आर्यसमाज ने बहुत ही सभ्य ढंग से जब गाँधी के इस घृणित कार्य का उत्तर दिया तब गाँधी ने राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके आर्य समाज को कमजोर करने के लिए षडयंत्र रचा। वास्तविकता तो यह है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती का कोई भी अनुयायी गाँधी पथ पर नहीं चल सकता, क्योंकि दोनों की स्थितियाँ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, परन्तु कुछ लोग नेता बनने की इच्छा से दोहरी चाल चलते रहे। एक ओर, वे आर्यसमाजी रहे और दूसरी ओर, गाँधीवादी काँग्रेसी। इसका परिणाम यह हुआ कि जब सिन्ध में गाँधी के ईशारे पर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर प्रतिबंध लगा तो आर्य समाज इस विषय में अधिक कुछ न कर सका।
इसलिए आर्य समाज का प्रभाव और भी कम होता गया। आर्य समाज के सदस्य पक्के देशभक्त होते हैं। लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानन्द, दो पक्के आर्य समाजी थे, परन्तु अंत तक कांग्रेस के नेता रहे। वे गाँधी के अनुयायी नहीं थे, प्रत्युत उनकी मुसलमानों का पक्ष लेने की नीति के विरोधी थे, परन्तु वे महापुरुष शांत हो चुके थे। बहुत से आर्य समाजी वैसे ही रहे जैसे कि वे थे, किन्तु प्रायः स्वार्थी लोग उनका मार्ग दर्शन करते रहे और गाँधी के कारण आर्य समाज की वह शक्ति न रही जो किसी समय थी।
अलबत्ता, गाँधी ने जिस मकसद से आर्य समाज की निन्दा की थी, उससे गाँधी मुसलमानों में उतने लोकप्रिय नहीं हुए। प्रत्युत उनके इस आचरण ने मुसलमानों को उकसा दिया और एक मुसलमान युवक ने आरोप लगाया कि यह संस्था बुरी भावना फैलाने वाली है। यह आरोप नितांत असत्य था। प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि आर्य समाज ने हिन्दू समाज में अनेक सुधार किये हैं।
आर्य समाज ने विधवा विवाह प्रारंभ किए। आर्य समाज ने जातपात को समाप्त करने के क्रांतिकारी प्रयत्न किए और हिन्दुओं की ही नहीं, प्रत्युत उनकी एकता का प्रचार किया जो आर्य समाज के सिद्धांतों को मानते हों। तत्कालीन समाचार माध्यमों, अख़बारों और गाँधी के संस्थाएँ इस बात पर पर्दा डालने में सफल रहे कि गाँधी ने आर्य समाज को कितनी हानि पहुँचाई है। देश के आम लोग भी गाँधी के महिमा मंडन में उनके राष्ट्रविरोधी कार्यों को भूल गए हैं।
१९१९ में हुए जलियांवाला कांड के कारण भयभीत जनता ने एक जुलूस निकला जिसका नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद कर रहे थे | जब जुलूस चांदनी चौक पहुंचा तो वहां मौजूद सेना की टुकड़ी में एक सिपाही ने बन्दूक स्वामीजी के सीने पर तान दी | स्वामीजी ने सिंहगर्जना करते हुए अपने छाती पर पड़ी चादर हटा दी और कहा “साहस है तो चलाओ गोली” लाखों की भीड़ का नेतृत्व करने वाले संन्यासी दुनिया को गरजते देख रही थी | कहते हैं इस घटना के पश्चात ३ दिनों तक पूरे दिल्ली प्रदेश में स्वामीजी का अघोषित राज कायम रहा | हिन्दू ही नही सैकड़ो मुस्लिम इस वीतराग संन्यासी के पास आते और अपनी समस्यायों का समाधान पाकर संतुष्ट होकर जाते | स्वामी श्रद्धानंद की अद्वितीय प्रभाव की खबर गांधी के कान तक पहुंचायी गयी| गांधी अपने प्रभाव की बागडोर फिसलते देखने लगे | उनमें ईर्ष्या की आग भड़क उठी | जिन्होंने गांधी के राजनैतिक क्रियाकलापों को नज़दीक से देखा है, उनका स्पष्ट कथन है कि गांधी अपने बराबर किसी अन्य नेता को उठते नही देख सकते थे | उन्होंने अपने मार्ग में आने वाले हर नेता को चाहे वो नरम दल का रहा हो या गरम दल का, उसे किसी भी प्रकार हटाकर अपना मार्ग प्रशस्त किया | और ये एक कटु सत्य है कि उनकी इस राजनीति का पहला शिकार स्वामी श्रद्धानंद ही बने थे |
दिल्ली की जामा मस्जिद के गुम्बद से स्वामीजी ने यह वेदमंत्र पढ़ा था-
“त्वं हि पिता वसो त्वं माता सखा त्वमेव । शतक्रतो बभूविथ । अधा ते सुम्नमी महे ।।”
संसार के इतिहास की ये एकलौती घटना है जब ‘एक काफ़िर’ मस्जिद के मिम्बर से वेदमंत्र का उच्चारण कर रहा था | इसके बाद मुसलमानों ने अन्य मस्जिदों में भी उनके व्याख्यान करवाये | मुसलमानों पर स्वामीजी के अमिट प्रभाव की खबर गांधी को लगी | अपनी लोकप्रियता के आड़े आते श्रद्धानंद उनको अपनी व्यक्तिगत पूजा में बाधा लगे | टर्की के बादशाह और अंग्रेजो का संघर्ष को लेकर ‘खिलाफत आन्दोलन’ जो की भारत के लिये निरर्थक था, गांधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिये अकारण ही ये आन्दोलन छेड़ जनशक्ति को भ्रमित किया| इससे कई नेता गांधी से असंतुष्ट होकर संघठन से अलग होने लगे | इनमे स्वामीजी भी थे | कोड़ोनाडा कांग्रेस सम्मलेन में देश के ८ करोड़ अछूतों के उद्धार की जो घृणित योजना बनी, उसके कारण भी काफी असंतोष फैला | योजना के मुताबिक अछूतों को हिन्दू और मुसलमानों में बराबर बांटने की बात कही गयी | यानि हिन्दू समाज के अभिन्न अंग करीब ४ करोड़ लोगों को सीधे सीधे इस्लाम की गोदी में सौंपने का षड़यंत्र था | ये बात स्वामीजी के लिये असहनीय थी क्यूंकि उन्होंने तो अपना जीवन ही अछूतों के उद्धार को समर्पित कर दिया था | वे कांग्रेस से सदा के लिये अलग हो गये | उनके पीछे पीछे सेठ बिड़ला और मदन मोहन मालवीयजी ने भी कांग्रेस छोड़ दी | इस घटना ने गांधी की ईर्ष्या की आग को और भड़का दिया | उन्होंने अपने पत्रों में आर्यसमाज और स्वामीजी के विरुद्ध विषवमन किया और उनके फैलाये सांप्रदायिक जाल ने आखिर अपना रंग दिखाया और २३ दिसम्बर १९२६ को स्वामी श्रद्धानंद की हत्या एक मुस्लिम के हांथो करा दी गयी | स्वामीजी की शहादत पर गांधी ने भी ऐसी वीरोचित मृत्यु की कामना की थी | वैसी मृत्यु तो खैर उनको नही मिली पर भारत के बंटवारे के कारण लाखों-करोड़ो हिन्दुओ की आँहों से भरी मृत्यु अवश्य मिली | भगवान सबकी इच्छा पूर्ण नही करता | पर स्वामीजी का बलिदान व्यर्थ नही गया | करोड़ो आर्यसमाजी सदा के लिये कांग्रेस से अलग हो गये और कांग्रेस मात्र एक सांप्रदायिक पार्टी बनकर रह गयी |

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