ओ३म्
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किसी भी देश की उन्नति, सुरक्षा व सामर्थ्य उसकी युवा पीढ़ी के नैतिक व चारित्रिक गुणों पर निर्भर करती है। बच्चों व युवाओं में यह गुण अपने प्रारब्ध, अपने माता-पिता तथा परिवेश सहित अपने आचार्यों व विद्यालयों की शिक्षा से आते हैं। देश की आजादी के बाद धर्मनिरेक्षता और प्रधानमंत्री का एक विचारधारा विशेष की ओर आकर्षित होने तथा वैदिक मूल्यों से अपरिचित व उनकी उपेक्षा करने के कारण शिक्षा का जो स्वरूप स्वीकार किया जाना चाहिये था, वह नहीं किया गया। प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में नैतिक व चारित्रिक गुणों की उपेक्षा की गई जिसका परिणाम यह हुआ देश में अधिकांश लोग नास्तिक व अर्ध नास्तिक विचारों के हो गये। आज का शिक्षित मनुष्य नैतिक गुणों, ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप सहित मनुष्य के ईश्वर, समाज व देश के प्रति कर्तव्यों से अनभिज्ञ है वहीं वह यह भी नहीं जानता कि परिवार का एक सदस्य होने के नाते उसके अपने माता-पिता, आचार्यों व संबंधियों आदि के प्रति क्या-क्या कर्तव्य हैं। पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव सर्वत्र देखा जाता है जो यह सिखाती है कि खाओं, पीयो और मस्त रहो। हमारी युवा पीढ़ी के अधिकांश लोग इस सिद्धान्त को चरितार्थ करते हुए ही दिखाई देते हैं। वेदों की सत्य एवं कल्याणकारी शिक्षा से बालक-बालिकाओं सहित युवक-युवतियां व उनके माता-पिता-आचार्य भी अनभिज्ञ एवं अधूरा ज्ञान रखने वाले दिखाई देते हैं। ऐसा स्कूली शिक्षा, घर में माता-पिता का सद्गुणों की शिक्षा से युक्त न होना तथा सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय न करने के कारण से हो रहा है। इससे देश में भ्रष्टाचार, अनाचार, स्वार्थ, अन्याय, शोषण, कर्तव्यहीनता, कुतर्क आदि का प्रभाव व व्यवहार देखा जाता है।
नैतिक और चारित्रिक शिक्षा विषयक साहित्य पर दृष्टि डालें तो वेद और समस्त वेदानुकूल वैदिक साहित्य इस आवश्यकता की पूर्ति करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। जिन मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में वैदिक साहित्य के अनुरूप नैतिक शिक्षा विषयक ज्ञान व मान्यतायें नहीं हैं वह वेदों की शिक्षा के विरोधी बन गये। उन विचारों का पोषण करने वाले राजनीतिक दल अपने हित व स्वार्थों के कारण वेद की मनुष्य मात्र की हितकारी शिक्षा का विरोध करते हैं और वेदों को भी अन्य साम्प्रदायिक ग्रन्थों के समान ही स्थान देते हैं। ऐसा मानना शिक्षा से जुड़े लोगों की महान भूल है। यदि कोई व्यक्ति व समाज अनजाने में भूल करे तो उसे समझाया जा सकता है परन्तु यदि कोई पूर्वाग्रह से युक्त ऐसा करता है तो उसे समझाने का लाभ नहीं होता। ऐसा होता हुआ ही हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में देखते हैं। होना तो यह चाहिये था कि वेदों में ईश्वर, आत्मा, मनुष्यों के कर्तव्यों व अकर्तव्यों का जो ज्ञान है उसे तर्क व युक्तिसंगत तरीकों से पढ़ाया जाता। अन्य साम्प्रदायिक ग्रन्थों की सत्य व तर्कसंगत मान्यताओं को भी पढ़ाया जाता। स्नातक होने के बाद युवा व युवती स्वयं निर्णय करते कि उनके लिये क्या उचित है और क्या नहीं? ऐसा अवसर हमारे विद्यार्थियों व युवाओं को प्राप्त ही नहीं होता। वह वेदों की मानव कल्याणकारी बातों से जानबूझकर अनभिज्ञ व अपरिचित रखे जाते हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हमारी युवापीढ़ी मांस-मदिरा सहित अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करती है, टीवी, सिनेमा, मोबाइल पर नैतिकता विरुद्ध चीजों को देखती व सुनती है तथा अच्छे व लाभकारी संस्कारों से वंचित रहती है जिससे उसका पतन होता है। यही कारण है कि देश में अनेक प्रकार के अपराधों में अपराधियों को अपराध विषयक दोषों व उसके परिणामों का ज्ञान न होना होता है। अतः मनुष्य में नैतिक एवं चारित्रिक नियमों व गुणों के विकास में वैदिक शिक्षा का सर्वाधिक महत्व है जिसका अध्ययन कराया जाना चाहिये था। यदि नहीं किया गया तो अब उसे सम्मिलित किया ही जा सकता है।
वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से मनुष्य ईश्वर व आत्मा के स्वरूप को जान जाता है। उसे विश्वास होता है कि इस ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी एवं सर्वशक्तिमान तथा न्यायकारी होकर जीवात्मा के हृदयस्थ सभी विचारों व अन्तः एवं बाह्य क्रियाओं को जान रहा है। वह शुभ कर्मों का फल सुख तथा अशुभ कर्मों व विचारों का फल दुःख मनुष्यों को प्रदान करता है। इस मनुष्य जन्म में हम अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोगते हैं। उन कर्मों के कारण से ही हमारा मनुष्य व इतर योनियों में जन्म लेना निर्धारित होता है। इस जन्म में हम जो कर्म करते हैं उसका कुछ भाग हम इस जन्म में भोग लेते हैं। जो शेष रहता है वह पुराने बिना भोगे कर्मों से संयुक्त हो जाता है। परजन्म, पुनर्जन्म व कालान्तर के जन्मों में उन सभी कर्मों का फल जीवात्मा को भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेकर भोगना पड़ता है। बुरे कर्मों का परिणाम नीच योनियां व दुःख होता है। इस रहस्य को जानने व समझ लेने पर मनुष्य बुरे काम नहीं करता। उसकी आत्मा उसे अशुभ कर्म करने से रोकती है। यदि मनुष्य को इसका ज्ञान नहीं होता तभी वह ऐसे अशुभ कर्मों को करता है। अतः वर्तमान में लोगों द्वारा अशुभ कर्मों का करना ईश्वर व जीवात्मा के मध्य कार्यरत कर्म-फल व्यवस्था के यथार्थ ज्ञान के न होने के कारण होता है। मनुष्य जब वैदिक साहित्य का अध्ययन करता है तो उसे शुभ कर्मों से होने वाले लाभों का भी ज्ञान होता है। उसकी प्रवृत्ति शुभ कर्मों की ओर हो जाती है। यदि उसे ऐसे शुभ कर्मो को करने वाले लोगों का साहचर्य व परिवेश मिलता है तो स्वाभाविक रूप से उसकी प्रवृत्ति उसी प्रकार की बन जाती है। ऐसा करने से अधिकांश मनुष्य पाप व अशुभ कर्मों से दूर हो जाते हैं। इससे देश व समाज सहित मनुष्यों को व्यक्तिगत लाभ भी होते हैं। उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है तथा उनको सन्तोष व प्रसन्नता का अनुभव हर समय होता है जिससे उनका स्वास्थ्य भी ठीक रहता है और आयुवृद्धि अनेक लाभ भी मिलते हैं। सन्तानों के लिए माता-पिता का धार्मिक होना आवश्यक होता है जिससे गर्भस्थ शिशु सहित जन्म के तत्काल बाद से उसे वैदिक संस्कार मिलना आरम्भ हो जायें। यह तभी सम्भव हो सकता है कि जब माता-पिता को अपने जीवन में वैदिक शिक्षा व संस्कार मिले हों। वैदिक परिवारों में ऐसा ही होता है। इस कारण उन परिवारों की सन्तानें सत्कर्मों को करती हुई नैतिक व चारित्रिक गुणों से युक्त होकर चहुंमुखी उन्नति करती हैं और समाज में अपना एक प्रशंसनीय स्थान बनाती है।
युवाओं को महापुरुषों के श्रेष्ठ जीवन चरित्रों से भी भी चरित्र सुधार की प्रेरणा मिलती है। हमारे देश का अतीत का इतिहास अत्यन्त उज्जवल रहा है। हमारे देश की विडम्बना रही है कि उसे सत्य इतिहास पढ़ने को नहीं दिया गया। उसे मिलावटी व प्रक्षिप्त इतिहास बनाकर पढ़ाया गया जिसमें सत्पुरुषों का इतिहास सामने नहीं आ सका। हमें भारत के महापुरुषों का कम तथा बाहर के लोगों व आततायियों के विषय में तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पढ़ाया जाता है। बाल्य व युवापीढ़ी सत्य से अनभिज्ञ होती है। उसे जो बताया जाता है, प्रमाण के अभाव में वह उसे ही सत्य मान लेती है। आजादी के बाद से ऐसा ही होता आ रहा है। हमारे देश के लोगों ने संगठित रूप से ऐसे प्रयासों का सशक्त विरोध नहीं किया। इससे इस षडयन्त्र को करने वाली शक्तियों के हौंसले बढ़ते रहे। आज तो विज्ञान एवं टैक्नोलोजी का युग है। आज यदि कहीं कोई गलत काम होता है तो उसका तत्काल मीडिया के द्वारा प्रचार हो जाता है। कुछ वर्ष पहले ऐसा सम्भव नहीं था। संचार के साधन सरकार के अपने पास होते थे। वह जो परोसते थे, बच्चे उसी को पढ़ते थे। इसके साथ ही सरकार के पास विरोध की आवाज उठने पर उसे कुचलने के साधन भी होते थे जिनका सहारा लिया जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते है। युवाओं को अपने देश के सभी महापुरुषों का सत्य इतिहास खोज कर पढ़ना चाहिये। राम, कृष्ण, चाणक्य, महर्षि दयानन्द, वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह, रानी लक्ष्मी बाई, राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्र शेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, अशफाक उल्ला खां सहित पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, वीर विनायक दामोदर सावरकर आदि का सत्य इतिहास भी लोगों को युवावस्था में पढ़ना चाहिये और देश के सभी स्कूलों में पढ़ाया भी जाना चाहिये। इससे भी देश की युवा पीढ़ी का चरित्र निर्माण करने में सहायता मिल सकती है। इनके साथ ही ईश्वर, अध्यात्म तथा संसार विषयक सत्य रहस्यों को जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि का अध्ययन भी किया व कराया जाना चाहिये।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था देश के सभी बच्चों व युवाओं में नैतिक व चारित्रिक गुणों का विकास करने में असमर्थ है। अतः शिक्षा व्यवस्था में नये परिवर्तन कर उसे समयानुरूप बनाया जाना चाहिये। देश के सुधी लोग सरकारों व नेताओं को सुझाव ही दे सकते हैं। इन पर स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होनी चाहिये। गुण व दोष के आधार पर ग्राह्य व अग्राह्य विषयों व मान्यताओं का चयन व निर्धारण किया जाना चाहिये। यही उचित पद्धति है देश के वर्तमान को सुरक्षित रखने तथा भविष्य को संवारने की। भारत का इतिहास विश्व में सबसे अधिक प्राचीन एवं महान है। महाभारत काल व उससे पहले विश्व के सभी लोग भारत के आचार्यों से ज्ञान च चरित्र की शिक्षा प्राप्त करने आते थे। मनुस्मृति में इस आशय का लेख भी उपलब्ध है। विश्वविद्यालय नाम भारत के उन विद्यालयों पर ही सार्थक होता है जहां अनेक देशों के विद्यार्थी अध्ययन करते थे। महाभारत काल के बाद सारी व्यवस्थायें ठप्प हो गईं। दासता के काल में विदेशी हमारे देश को लूटते रहें और हमारे देश के मूल निवासी आर्यों पर अन्याय, अत्याचार करने के साथ उनका सर्वविध शोषण करते रहे। विदेशियों व लुटेरों ने सोने की चिड़िया भारत को निर्धन देश बना दिया। आज पुनः विदेशी शक्तियां वैचारिक एवं आतंक के द्वारा देश पर नियंत्रण करना चाहती है। ऐसी स्थिति में देश के निष्पक्ष नेताओं और विद्वानों को विद्यार्थियों की शिक्षा के ज्ञान यज्ञ में अपनी आहुति देनी चाहिये और देश के प्राचीन धर्म व संस्कृति की रक्षा के उपाय व साधन करने चाहियें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य