ओ३म्===========
हमारा यह संसार एक अपौरुषेय सत्ता द्वारा बनाया गया है। वही सत्ता इस संसार को बनाती है व चलाती भी है। संसार को बनाकर उसने ही अपनी योजना के अनुसार अनादि, अविनाशी, नित्य व जन्म-मरण धर्मा जीवात्माओं को इस संसार में भिन्न-भिन्न प्राणी योनियों में जन्म दिया है। जीवात्माओं का जन्म उनके पूर्वजन्मों के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार होता है। पूर्वजन्म के जो संचित कर्म होते हैं वह प्रारब्ध कहलाते हैं। उस प्रारब्ध में पुण्य कर्मों की संख्या पाप से अधिक होने पर मनुष्य जन्म मिलता है अन्यथा जीवात्माओं को मनुष्य से निम्न कोटि की पशु-पक्षी आदि प्राणी योनियों में जन्म मिलता है। मनुष्यादि सभी प्राणी अपने पूर्वजन्मों के पाप व पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिये संसार में जन्म लेते व उनका भोग करते हैं। मनुष्य योनि उभय योनि होती है। इस योनि में मनुष्यात्मायें पूर्व कर्मों का फल भोगने के साथ अपने ज्ञान व विवेक से नये कर्मों को भी करती हैं। सभी कर्म पाप व पुण्य के रूप में होते हैं।
परोपकार व आत्मा की उन्नति के सभी कार्य पुण्य कर्म होते हैं तथा स्वार्थ, भ्रष्टाचार, दूसरों को दुःख देना, असत्य का आचरण, चोरी, अनाचार व दुराचार आदि दुष्कर्म वा पाप कर्म होते हैं। इस जन्म के कर्मों तथा पूर्वजन्म के भोगने से रह गये कर्मों के अनुसार ही मनुष्य का पुनर्जन्म होता है। पाप का फल दुःख होता है। कोई भी जीवात्मा व प्राणी दुःख प्राप्त करना व भोगना नहीं चाहता। सभी की सुख प्राप्ति की इच्छा होती है। इसी प्रकार से मनुष्य आदि सभी प्राणी सुख चाहते हैं जिसका कारण व आधार शुभ व पुण्य कर्म होते हैं। अतः दुःखों की निवृत्ति पाप कर्मों का त्याग करने तथा सुखों की प्राप्ति सदाचार, सत्य, शुभ तथा पुण्य कर्मों को करने से होती है। यह सृष्टि के शाश्वत नियम हैं। यह नियम सृष्टि में अनादि काल से प्रवृत्त हैं और अनन्त काल तक बिना परिवर्तित हुए इसी प्रकार से चलते रहेंगे। इसका कारण यह है कि इस संसार को बनाने व चलाने वाली सत्ता ईश्वर है जो कि अनादि, अजन्मा, अनुत्पन्न, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजर व अमर है। संसार में दो ईश्वर नहीं है। जीवात्मा और ईश्वर के मध्य तीसरी कोई अनादि व चेतन सत्ता भी नहीं है। इस आधार पर संसार वा ब्रह्माण्ड में केवल और केवल एक ही ईश्वर है और जीवात्मायें आकार-प्रकार वा स्वरूप से समान होने पर भी संख्याओं में अनन्त हैं जो इस भूमि लोक सहित इस ब्रह्माण्ड के पृथिवी सदृश अनेक लोकों में ईश्वर की व्यवस्था में रहकर अपने अपने कर्मों का भोग करती हैं व कर रही हैं।संसार में ईश्वर की सत्ता है और वह एक है। महाभारत युद्ध के बाद देश और संसार में अज्ञान फैल गया था। वेदों का प्रचार बन्द होने से वेदज्ञान व वेद लुप्त हो गये थे। वेदज्ञानी ऋषियों की परम्परा भी महाभारत के कुछ समय बाद महर्षि जैमिनी पर समाप्त हो गई थी। इस अज्ञान के अन्धकार के युग में ज्ञानविरुद्ध भ्रमयुक्त अनेक मत संसार में फैले। इन मतों में ईश्वर का सत्यस्वरूप मतों व सम्प्रदायों के आचार्यों की दृष्टि से ओझल रहा। वेदों के विलुप्त होने के साथ संस्कृत भाषा का भी समुचित प्रचार नहीं रहा था। महाभारत के समय तक लोगों की बोलचाल व व्यवहार की भाषा संस्कृत थी। महाभारत के बाद संस्कृत के शब्दों पर आधारित अनेक बोलियों प्रचलन में आयीं। कालान्तर में इन्होंने ही भाषाओं का नाम व रूप ले लिया। इस अवस्था व परिस्थितियों में कुछ बुद्धिमान लोग हुए। वह संस्कृत का यथावत् ज्ञान न रखने से वेदों के सत्य अर्थों सहित ईश्वर के सत्यस्वरूप से भी परिचित न हो सके। अतः उन्होंने अपने-अपने ज्ञान व योग्यता के अनुसार ईश्वर का अनुमान किया व उसे ही प्रचारित किया। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों पर दृष्टि डालने से ज्ञान होता है कि उनमें ईश्वर का जो स्वरूप मिलता है वह वेदों से उपलब्ध ईश्वर के यथार्थस्वरूप कुछ समान व अनेक प्रकार से भिन्नता व अपूर्णता लिये हुए है।ईश्वर निराकार है अतः उसकी प्रतिमा, आकृति व मूर्ति कदापि नहीं बन सकती। आकृति व मूर्ति तो साकार वस्तुओं व पदार्थों की ही बनाई जा सकती है। इसी कारण से मूर्तिपूजा तर्क, युक्ति विरुद्ध होने सहित वेद विरुद्ध सिद्ध होती है। प्रचलित मूर्तिपूजा से ईश्वर उपासना का पूर्ण प्रयोजन सिद्ध न होने से इसका किया जाना अनुचित है। ईश्वर निराकार व सर्वव्यापक है। वह सर्वशक्तिमान भी है। उसके लिये जो भी सम्भव है वह कर सकता है। उसे किसी दुष्ट व बलवान को मारने के लिये अवतार लेने व मनुष्य का शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं होती। अतः उसके अवतार की कल्पना करना व उसके अवतार मानना, जिसका उल्लेख वेद व वेदानुकूल किसी ग्रन्थ में नहीं है तथा जो बुद्धि व तर्क की कसौटी पर भी सिद्ध नहीं होता, अनुचित व असत्य है। ऐसा ही कुछ कुछ वि भिन्न भिन्न रूपों में सभी मत-मतान्तरों में देखने को मिलता है।सभी मतों की अनेक मान्यतायें वेद, तर्क, युक्ति, सृष्टिक्रम व सत्य की कसौटी पर यथार्थ सिद्ध नहीं होती। अतः आवश्यकता है कि सभी मत-मतान्तर ईश्वर के स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव विषयक अपने-अपने मत की मान्यताओं की समीक्षा करें। मत-मतान्तरों की वेद व वेद के ऋषियों की सत्य, तर्क व युक्ति के आधार पर निर्दोष मान्यताओं के साथ समीक्षा की जानी चाहिये। समीक्षा करने पर जो सत्य हो, उसे अपनाना चाहिये और जो सत्य न हो उसे छोड़ना चाहिये। इसी से समस्त मानव जाति में ऐक्य सम्पादित हो सकता है। सभी मनुष्य परस्पर प्रेम से पूर्ण भ्रातृभाव के साथ रह सकते हैं। संसार से ईष्र्या, घृणा, द्वेष, अन्याय, शोषण, स्वमत व शक्ति का अहंकार आदि दोष दूर हो सकते हैं। विज्ञान व वैज्ञानिकों से भी हम प्रेरणा ले सकते हैं जो अपनी सभी मान्यताओं को स्वीकार करने से पहले अनेक प्रकार से उसकी परीक्षा करते हैं और परीक्षा की सभी कसौटियों पर सत्य पाये जाने पर ही उन्हें सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं। यही बात सभी मत-पन्थ व सम्प्रदायों को भी स्वीकार करनी चाहिये। यही विश्व शान्ति व समाज में सद्भाव व प्रेम स्थापित करने का मूल मन्त्र है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में अपने तर्क, युक्ति व गवेषणा से युक्त प्रचार से इसी बात की पुष्टि की थी। उन्होंने अपने सभी सिद्धान्तों व मान्यताओं को सत्य की कसौटी पर कस कर स्वीकार किया था और उन्हीं का जनसामान्य में प्रचार किया था। उन्होंने वेदों की परीक्षा की थी। वेदों को उन्होंने शत-प्रतिशत सत्य पाया था। वेदों में सत्य, तर्क व सृष्टिक्रम के विरुद्ध कोई मान्यता न होने तथा वेदों की अलौकिकता के कारण ही उन्होंने इसे ईश्वरीय ज्ञान व स्वतः प्रमाण माना था। मनुस्मृति में भी कहा गया है कि सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल है तथा धर्म जिज्ञासा होने पर परम प्रमाण वेदों का कथन व वाक्य ही होते हैं। संसार को इस सिद्धान्त को अपनाना था परन्तु उन्होंने अपने हिताहित के कारण इसे अपनाया नहीं जिस कारण संसार में सत्य को मान्यता व स्वीकार्यता प्राप्त न हो सकी।संसार का नियम है कि समान विचार वाले लोगों में ही मित्रता होती है। इसी प्रकार से एक मत के लोग परस्पर मित्र होते हैं। दो मतों के लोगों में मतभेद पाये जाते हैं जो उनकी परस्पर भिन्न व विरोधी मान्यताओं के कारण से होते हैं। यदि सभी मत अपने सभी सिद्धान्तों व मान्यताओं को परस्पर चर्चा व विचार-विमर्श कर एकमत कर सब पर सहमति कर लें और तर्क से सिद्ध सत्य सिद्धान्तों को अपना लें तो संसार में शान्ति व सुख का नया युग आ सकता है। परस्पर की घृणा दूर हो सकती है। अन्याय व शोषण भी दूर हो सकता है। सभी एक दूसरे की उन्नति के लिये प्रयत्नरत हो सकते हैं। विचार करने पर ऐसा होना असम्भव नहीं है परन्तु अविद्या, हठ व दुराग्रह आदि अनेक कारणों से लोग परस्पर एकमत नहीं हो पाते। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में एकता में बाधक कारणों पर भी प्रकाश डाला है। उन्होंने परस्पर एक मत होने के लिये प्रयत्न भी किये थे। उसके बाद कभी इस प्रकार का कोई प्रयत्न किसी ने नहीं किया। आज ऋषि दयानन्द नहीं हैं। शायद अब वह व उन जैसा कोई आयेगा भी नहीं। अतः संसार में सत्य के ग्रहण व असत्य को छोड़ने के लिये भले ही प्रयत्न न किये जायें परन्तु ऋषि दयानन्द ने सन्मार्ग दिखाने का जो काम किया था, उसके लिये उन्हें स्मरण तो किया ही जाना चाहिये।इतिहास में जो हो चुका है उसे बदला नहीं जा सकता। भविष्य में जो होना है उसका भी अनुमान ही किया जा सकता है। इस अनुमान के आधार पर यदि किसी दिन सभी मत-मतान्तर संसार का हित करने की दृष्टि से ईश्वर के सत्यस्वरूप पर परस्पर विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने के लिए एकमत हो जायेंगे तो वह दिन इस सृष्टि के अपूर्व महत्व का दिवस होगा। ऐसा होगा या नहीं? कहा नहीं जा सकता। महर्षि दयानन्द की सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में कहे गये कुछ महत्वपूर्ण शब्दों को लिखकर हम इस लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं ‘यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतों में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जो-जो बातें सब के अनुकूल सब में सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक दूसरे के विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्ते वर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे। क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़ कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डुबा दिया है। इनमें से जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग विरोध करने में तत्पर होकर अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु ‘सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।’ अर्थात् सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़ निश्चय के आलम्बन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थप्रकाश करने से नहीं हटते।’ ऐसे अनेक महत्वपूर्ण वचन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में कहे हैं। बुद्धिमान संकेत से ही वक्ता व लेखक की भावना को समझ लेते हैं। ऋषि दयानन्द का वेदप्रचार करने तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के लेखन का यही अभिप्राय था कि लोग एक ईश्वर के सत्य स्वरूप को जाने, उसको स्वीकार करें तथा उसकी एक सर्वसम्मत विधि से उपासना करें जिससे देश व समाज में सभी प्रकार के विरोध भाव दूर होकर देश व जनता को पूर्ण सुख की प्राप्ति हो। ओ३म् शम्।-मनमोहन कुमार आर्य