कोविड-19 के अभी तक 4,805,210 केस सामने आ चुके हैं, इस दौरान 3,16,732 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। दुनिया भर में इस महामारी को रोकने के प्रयास जारी हैं और आम मेहनतकश आबादी पर इसके कहर ने पूंजीवादी व्यवस्था की पोल भी खोल कर रख दी है।इस बीमारी ने व्यवस्था की दरारों को तो उजागर किया ही है परन्तु इसने तमाम प्रगतिशील ताकतों में भी इस बीमारी को समझकर सही नतीजे निकालने पर एक बहस पैदा की है।
अपनी बात समझाने के लिए ही हम 8 पूंजीवादी देशों के कोविड -19 से लड़ने के अनुभव का विश्लेषण कर रहे हैं। अगर वैज्ञानिक पैमानों की बात करें तो ज्ञात आंकड़ों के अनुसार कोरोना वायरस से ग्रस्त एक व्यक्ति की अन्य लोगों को संक्रमित करने की दर (जिसे आरओ में मापा जाता है यानी एक व्यक्ति कितने लोगों को संक्रमित करता है) 2-2.5 के बीच है तथा ऑनसेट टाइम 14 दिन है (वह समय जबतक वायरस बिना लक्षण के शरीर में रह सकता है), जोकि फ्लू वायरस से अधिक है। इस वायरस पर लगभग हर देश में तमाम षड़यंत्र सिद्धांत भी सामने आए हैं। इन षड़यंत्र सिद्धांतकारों के अनुसार यह वायरस वुहान के लैब में / अमरीकी सैन्य लैब में बना था/ इसे बिग फार्मा कम्पनियों ने बनाया है/ और इस की टेस्टिंग व वैक्सीन के जरिए ये मुनाफा पीटना चाहते हैं / यह तानाशाही बढाने के लिए किया गया और यह वायरस हमेशा से मौजूद है और साधारण सर्दी जुकाम के अलावा कुछ नहीं है। हैरत की बात यह है कि इसमें वामपंथियों की भी एक नस्ल शामिल है।
अमरीका, यूके, बेलारूस और ब्राज़ील जैसे देशों में कम-से-कम शुरुआत कोरोना वायरस को दक्षिणपन्थी सरकारों ने झूठ करार दिया और इसके खतरे को बेहद कम करके आंका और इसे महज साधारण सर्दी जुकाम तक बताया। कोविड-19 बीमारी के फैलने के साथ ही जब संक्रमण के बारे में अधिक सटीक तस्वीर उभरने लगी तो सरकारों का रवैया भी बदलता गया और साथ ही षडयंत्र सिद्धांतकारों के सिद्धांत भी बदलते गए। कोरोना वायरस के बारे में पेश किए ये शुरुआती मूल्यांकन एक हद तक यह भी तय कर रहे थे कि इस बीमारी को सरकार किस तरह से हैण्डल करेगी।
चीन में वुहान शहर में पूर्ण लॉकडाउन किया गया और सर्विलांस के जरिए लोगों को घर में रहने को मजबूर किया गया जिसे दमनकारी राज्यू मशीनरी के जरिए लागू करवाया गया। साउथ कोरिया में लॉकडाउन पूरी तरह लागू नहीं किया गया परन्तु व्यापक टेस्टिंग, सर्विलांस और इलाज के जरिए बीमारी पर काबू पाया गया। जर्मनी से लेकर वियतनाम में सरकारों ने वायरस को रोकने के लिए लॉकडाउन, मास टेस्टिंग, क्वारंटिन और इलाज के तमाम मॉडलों को लागू किया। इन मॉडलों को लागू करने के पीछे पूंजीवादी मुल्कों की सरकारों की राजनीतिक अवस्थिति भी साफ हुई है। सरकारों द्वारा उठाए गएकदमों और सापेक्षिक रूप से बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते कुछ मुल्कों में बीमारी को बेहतर तरीके से फैलने से रोका गया। दक्षिणपन्थी राजनीतिज्ञ किसी भी सूरत में अर्थव्यवस्था को चालू करने के लिए कह रहे हैं, वे बता रहे हैं कि सरकारों को लॉकडाउन तुरन्त खत्म कर देना चाहिए। इसके लिए हर्ड इम्युनिटी, सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट की दुहाई देकर वायरस के साथ अब नॉर्मलाइज़ होकर जीने की बात कह रहे हैं।
अब जबकि जनवरी से लेकर मई तक का अनुभव हमारे सामने है और तमाम सरकारों द्वारा लागू किए गए कदमों के आंशिक नतीजे भी सामने आ चुके हैं तो हम सरकारों द्वारा लागू किए मॉडलों के अध्ययन के आधार पर (जो निश्चित ही अपर्याप्त आंकडों पर आधारित है) कुछ आरजी नतीजे निकालने की कोशिश करेंगे। इन 5 महीनों में जब से यह बीमारी फैली है हम कुछ प्रतिनिधिक देशों के प्रयोगों के आधार पर यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि कौन सी रणनीति अधिक कारगर सिद्ध हुई और कौन सी रणनीति असफल हुई है। साथ ही हम सरकारों के रवैये के पीछे काम कर रही राजनीतिक अवस्थिति पर भी रौशनी डालते चलेंगे और साथ ही लॉकडाउन के मॉडलों को लेकर चल रही बहस पर अपनी समझ भी रखेंगे।
यहां एक बात स्परष्ट करते चलें कि आज दुनिया में किसी भी देशमें समाजवाद काबिज नहीं है और यहां हम जिन देशों का अध्य्यन कर रहे हैं वे सभी पूंजीवादी देश हैं। इन देशों में जो भी नीतियां लागू की गई हैं वे जिस राज्य मशीनरी द्वारा लागू करवाई गई हैं उनका चरित्र ही जनविरोधी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राज्य एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर शासन का यंत्र होता है। पूंजीवादी समाज में यह पूंजीपति वर्ग की जनता के ऊपर तानाशाही होती है। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में समाजवादी राज्य आसानी से जनता के बीच सोशल डिस्टेंसिंग व पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन सरीखे कदमों को लागू कर सकता है। केवल समाजवादी राज्य इस बीमारी द्वारा हो रहे नुकसान को कम से कम कर सकता है और समाज को इससे उबार सकता है क्योंकि तब समाज के केन्द्र में मुनाफा नहीं होगा बल्कि मनुष्य होगा। चीन में मेनिंगिटिस बीमारी से उबरने के लिए 1968 में समाजवादी राज्य ने भी लॉकडाउन लागू किया परन्तु यह मौजूदा सरकारों द्वारा लागू किए लॉकडाउन से भिन्न था। बुर्जुआ जनवाद के ऊंचे पैमानों वाले देश स्वीडन से लेकर नकली लालझण्डे वाले सामाजिक जनवादी वियतनाम तक सभी पूंजीवादी देशों में पूंजीवादी राज्य जनता पर जोर जबरदस्ती के जरिए ही लॉकडाउन व अन्य नीतियां लागू करसकता है। इस बात को साफ़ कर के ही हम आगे बढ़ सकते हैं।
अब देखते हैं कि यदि हम इन सभी देशों में पूंजीवादी सत्ता होने को एक नियतांक मान लेते हैं, तो पूंजीवाद के दायरे के भीतर किन देशों ने कोरोना महामारी पर नियंत्रण पाने में कितनी सफलता प्राप्त की और क्यों ? क्योंकि अपने आप में कोई विशेष कदम प्रतिक्रियवादी या प्रगतिशील नहीं होता है, जैसे कि मास टेस्टिंग, क्वारंटाइनिंग, व ट्रीटमेंट या फिर आशिंक या पूर्ण लॉकडाउन, बल्कि यह इससे तय होता है कि कौन सी सत्ता इन्हें लागू कर रही है और किस प्रकार लागू कर रही है।
1. वियतनाम
वियतनाम में कोविड -19 का पहला केस 23 जनवरी को दर्ज हुआ। वियतनाम में भी चीन कीतरह सत्ता पर ‘सामाजिक जनवादी’ (कम्युनिस्ट के भेस में पूंजीवादी) तानाशाह सरकार काबिज है जिसने त्वरित कार्यवाही करते हुए तत्काल बॉर्डर सील कर दिया और हवाई यात्राओं पर भी तत्काल रोक लगा दी। देश में व्यापक टेस्टिंग की गई, बेहद सख्त कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग की गई। एक-एक व्यक्ति के सम्पर्क को पहचानकर हजारों लोगों को क्वासरंटाइन किया गया। सरकार ने संक्रमण की सम्भावना के चलते एक बड़ी आबादी को क्वाईरंटाइन किया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण था सरकार द्वारा त्वरित कार्यवाही और बड़ी संख्या में टेस्टिंग करना और कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग था जिसके जरिए संक्रमण को फैलने से रोका गया। यहां पर 2003 में सार्स (SARS) फैलने के बाद से महामारी को फैलने से रोकने के लिए महामारी से निपटने की व्यवस्था मौजूद है। वियतनाम में अब तक 314 कोरोना केस आए हैं और अभी तक एक भी मृत्यु नहीं हुई।
टेस्टिंग किट भी यहां बेहद उन्नत स्तर पर तैयार की गई है और सरकार द्वारा मास्क के निर्यात पर जनवरी से ही रोक लगा दी गई। कोरोना का एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान में ट्रांस्मिट होने का पहला वैज्ञानिक शोध भी वियतनाम के वैज्ञानिकों ने प्रकाशित किया। मार्च अन्ते तक संक्रमण सामान्य सोशल डिस्टेंसिंग से काबू न होते देख सरकार ने 1-15 अप्रैल तक लॉकडाउन किया। मई माह आते-आते वियतनाम में स्थिति सामान्य हो चली है। यह एक दीगरबात है कि यहां भी दमनकारी सरकार पूर्ण तानाशाहनापूर्ण तरीके से यह कदम उठारही है और भारत के संशोधनवादियों और फेसबुकिये लेफ्ट द्वारा इसे कम्युनिस्ट मॉडल बनाकर पेश करना निहायत ही मूर्खतापूर्ण है! यह एक पूंजीवादी देश है जिसमें संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टी समाजवादी खोल के जरिए तानाशाहनापूर्ण तरीके से और विराट राज्य तंत्र के जरिए जनता पर पूंजीपतियों का शासन लागू करती है। कोविड -19 बीमारी को फैलने से रोक पाने की सफलता के पीछे सबसे महत्वतपूर्ण कारण त्वरित कार्यवाही, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग और व्यापक टेस्टिंग थी। ये सारे काम एक समाजवादी देश में जनसमुदायों की पहलकदमी और रज़ामन्दी के ज़रिये किया जा सकता है, यह तो चीन पचास साल पहले ही दिखा चुका है। इसलिए ये कदम अपने आप में प्रतिक्रियावादी या प्रगतिशील नहीं होते जब तक कि हम यह न देखें कि उन्हें जो राज्यसत्ता लागू कर रही है, उसका वर्ग चरित्र क्या है और इन्हें किस प्रकार लागू किया जा रहा है।
इस सफलता के बावजूद वियतनाम के मॉडल के बारे में अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में बेहद कम ज़िक्र किया जा रहा है और जिस मॉडल को कारगर और सफल मॉडल के रूप में पेश किया जा रहा है वह जर्मनी है जहां फ़िलहाल 8000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं और लॉकडाउन भी वियतनाम से ज्यादा दिनों के लिए लागू किया गया है। इसमें आबादी के ज्यादा होने का कोई खेल नहीं है क्योंकि वियतनाम की आबादी 9.5 करोड़ है जबकि जर्मनी की आबादी 8.4 करोड़ है और आबादी का घनत्व भी वियतनाम में अधिक है।
2. दक्षिण कोरिया
दक्षिणी-पूर्वी एशिया में चीन के बाद सबसे अधिक तेजी से दक्षिण कोरिया में यह वायरस फ़ैला। यह ऐसा देश है जहां पश्चिमी देशों सरीखा ”जनवाद” है। हाल ही में बान की मून की फिल्म पैरासाइट को ऑस्कर से भी नवाजा गया। दक्षिण कोरिया में भी वियतनाम की तरह 2003 सार्स व अन्य महामारियों के जूझने की वजह से महामारी से निपटने की एक व्यवस्था मौजूद है। दक्षिण कोरिया मेंभी वियतनाम की तरह त्वकरित रेस्पांस, व्यािपक टेस्टिंग और चेन ऑफ ट्रांस्मिशन (कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग) और क्वारंटाइन लागू किया गया। यहां पूर्ण लॉकडाउन लागू नहीं किया गया। चीन से एक मायने में यह अलग इसलिए था कि यहां पर एक्सपोज़्ड लोगों को घर पर ही क्वाारंटाइन रहने दिया गया (चीनमें जबरन अस्पइतालों में भर्ती कराया गया था)। पर चीन के साथ इस मामले में समानता थी कि क्वारंटाइन व संक्रमण पर नज़र रखने के लिए इसने व्यापक सर्विलांस किया। दक्षिण कोरिया में भी केस मार्टेलिटी रेट बेहद कम है यानी संक्रमित लोगों में बेहद कम लोगों की मृत्यु हुई है। टेस्टिंग के लिए दक्षिण कोरिया ने मोबाइल सेंटर से लेकर ड्राइव थ्रू के जरिए टेस्टिंग की भी सुविधा की जिससे एक बड़ी आबादी का टेस्ट बेहद जल्दी हो सका। दक्षिण कोरिया ने फरवरी में ही टेस्टिंग पूरी क्षमता से किया जिससे कि बीमारी को फैलने से रोका जा सका और मार्च की शुरूआत से ही यहां नए केस की संख्या कम हो गई और फ़िलहाल यहां स्थिति काबू में है। दक्षिण कोरिया में कुल 11037 कोरोना के संक्रमण सामने आए हैं जिनमें 262 लोगों की मृत्यु हुई है। यहां कुल 741145 टेस्ट कराए गए और प्रति दस लाख पर टेस्ट संख्या 14457 है।
3. व 4. जापान और ताइवान
वियतनाम और दक्षिण कोरिया से ही मिलते जुलते उदाहरण जापान और ताइवान के भी हैं जहां पर बेहद कम संक्रमण हुआ है और मृत्यु भी काफ़ी कम हुई है। ताइवान में बेहद कम संक्रमण का एक कारण चीन से सीख लेना था और व्यापक टेस्टिंग व कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के ज़रिए संक्रमण को रोकना था। यहां लॉकडॉउन लागू करने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि सही वक्त पर सही कदम उठाने का काम कमोबेश ठीक तरीके से किया गया। ताइवान में कुल 440 लोग कोरोना से संक्रमित हुए और इनमें 7 लोगों की मृत्यु हुई। ताइवान में कुल 68988 टेस्ट कराए गए व प्रति दस लाख पर टेस्ट संख्या 2897 है। वहीं जापान में लोगों के आदतन मास्क पहनने और सामाजिक जीवन में रचे-बसे वैज्ञानिक रवैये के चलते भी बीमारी पर काबू पाना सम्भव हो सका। जापान में कोरोना के 16203 केस सामने आए हैं जिनमें 713 लोगों की मृत्यु हुई। इस दौरान जापान में कुल 233144 टेस्ट कराए गए और प्रति दस लाख टेस्ट संख्या 1843 है।
5. अमरीका
अमरीका में कोरोना वायरस दुनिया भर के मुकाबले सबसे अधिक फैला है। सभी को पता है कि अमरीका में ट्रम्प ने कोरोना को लेकर जितना झूठ बोला है और जितनी गलतबयानी की है उस मामले में वह हमारे देश के प्रधानमन्त्री को चुनौती देता प्रतीत होता है! अमरीका में कोरेाना का पहला केस 19 जनवरी को दर्ज किया गया था। जनवरी में ही अमरीका की सेना के एक दस्तावेज में कोविड-19 के भयंकर महामारी बनने की आशंका व्यक्त की गई थी। परन्तु तब ट्रम्प ने अमरीकी जनता को ”सब चंगा सी” कहा। ट्रम्प ने केस बढ़ने पर इसे चीनी वायरस कहा और कोरोना को लेकर चल रहे तमाम षडयंत्र सिद्धांतों को हवा दी। मार्च तक बेहद कम टेस्ट हुए थे पर जितने भी टेस्ट हुए उससे साफ हो रहा था कि संक्रमण फैल रहा है। विदेश से लौट रहे लोगों की पर्याप्त जांच नहीं हुई। इसके चलते जब सरकार की आलोचना हुई तब ट्रम्प ने अंततः मार्च माह की शुरुआत में कोविड-19 को राष्ट्रीयआपदा घोषित किया। तमाम आलोचनाओं के बाद मार्च में धीरे-धीरे टेस्टिंग बढ़ाई गई और कई स्टेट्स में लॉकडाउन भी लागू किया गया। परन्तु् संक्रमण फैल चुका था। आज हर रोज़ हज़ारों लोग बीमारी की चपेट में आ रहे हैं। अब तक अमरीका में 15 लाख से ज्यादा लोग बीमार हो चुके हैं और 90000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। हालांकि अबतक अमरीका में 11875580 टेस्ट हो चुके हैं लेकिन प्रति दस लाख पर इन टेस्ट की संख्या 35903 है जो अभी भी कई यूरोपीय देशों से कम है। यह भी गौर करने की बात है कि यह टेस्टिंग मार्च में शुरू हुई और अप्रैल-मई में मौजूदा स्तर तक पहुंची है।अमरीकी सरकार ने चीन से और संक्रमित क्षेत्रों से आने वाले लागों की जांच और हवाई सेवाओं पर रोक काफी बाद में लगाई। वियतनाम और दक्षिण कोरिया के उदाहरण के बरक्सि टेस्टिंग बढ़ाने और संक्रमण को रोकने में काफी देर की गई। अमरीका में 90000 से ज्यादा लोगों की मौत के पीछे भी कई कारण हैं। निश्चित ही इन मौतों के पीछे सबसे बड़ा कारण सरकार का बेहद धीमा रेस्पोंस था जिसकी वजह से यह बीमारी पूरे देश में फैल गई। दूसरा सीडीसी (महामारी का नियंत्रण कर रही अमरीकी एजेंसी) ने मरीजों को कोरोना के लक्षण आने पर भी अस्पताल आने की जगह घर रहने पर जोर दिया। बीमारी फैलने की शुरुआत मेंअमरीका में टेस्ट की क़ीमत और अस्पताल का खर्चा खुद मरीज को देना था जिस वजह से वैसे ही एक बड़ी आबादी इस टेस्ट से दूर रही। तीसरा, इस दौरान सबसे अधिक मौतें इस वजह से भी हुई कि अस्पतालों में केवल अतिगंभीर लोगों को ही भर्ती किया गया जिसके कारण वे लोग जिनके लक्षण अतिगम्भीर नहीं थे उन्हें सरकार ने अस्पेतालों में भर्ती करने से इंकार कर दिया। ये तीन कारण अमरीका में इतनी अधिक मौतों के जिम्मेदार है।
इन मौतों के बावजूद आंशिक लॉकडाउन का पूंजीपतियों की लॉबी ने जमकर विरोध भी किया। इस दौरान ट्रम्प ने भी राज्यों को लॉकडाउन की नीतियों से मुक्त करने का आह्वान भी किया। इस आह्वान पर फासिस्ट और दक्षिणपन्थियों ने जगह जगह सड़कों पर जाम भी लगाया और आर्थिक गतिविधियों को पुन: शुरू करने की मांग की। हाल ही में ऐसा एक कार्यक्रम ‘ऑपरेशन ग्रिडलॉक’ ट्रम्प के आह्वान पर आयोजित किया गया जिसका मकसद सड़क जामकर लॉकडाउन का विरोध करना था। अमरीकी पूंजी के प्रतिनिधियों का सीधा नंगा माल्थसवादी तर्क है कि हमें अर्थव्यवस्था चलानी होगी और इसके लिए आबादी का कमजोर हिस्सा कुर्बान कर देना चाहिए। इस तर्क को ही कपड़े पहनाकर हर्ड इम्युनिटी विकसित कर कोविड-19 से लड़ने की बात कही गई। यूके में भी बोरिस की सरकार यह कह रही थी परन्तुइ बोरिस को भी जब कोरोनावायरस ने चपेट में ले लिया और संक्रमण फैलने से जब जनदबाव बढ़ा तो वहाँ भी मास स्केल पर टेस्टिंग करनी पड़ी।
खैर, अपने माल्थसवादी तर्क को और अधिक सुसंगत करते हुए अमरीका में दक्षिणपन्थी अब यह कर रहे हैं कि कोरोना एकमात्र बीमारी नहीं है और बेरोज़गारी के कारण, कैंसर और अन्य बीमारियों के कारण भी बहुत अधिक लोग मारे जा रहे हैं इसलिए हमें लॉकडाउन खोल देना चाहिए। परन्तु वे इन मौतों के लिए पूंजीवाद को जिम्मेदार नहीं ठहराते हैं। इसमें एक चेहरा फॉक्स न्यूज़ की हैल्थ एक्सपर्ट डॉ शैपिरो भी हैं। इन्होंने हाल ही में एक किताब लिखी है ‘मेक अमरीका हैल्थी एगेन’। किताब के नाम से ही जाहिर है कि वे ट्रम्प की समर्थक हैं और इस किताब में यूनिवर्सल हैल्थ केअर को मूर्खता बताती हैं और उनके अनुसार स्वास्थ्य व्यक्ति का निजी मसला है और अमरीकियों को सरकार का मुंह ताकने की जगह बेहतर जीवनशैली अपनानी चाहिए। हमारे देश के कोविडियट्स ने भी कुछ ऐसी ही राय दी थी कि अच्छा खाओ, व्यायाम करो, और स्वस्थ रहो! शिपैरो के अनुसार अमरीकी लोग महानतम राष्ट्र में जी रहे हैं परन्तु वे खुद ही स्वस्थ न होने की वजह से देश की महामारी से जंग में सबसे कमजोर कड़ी हैं। हमारे देश के कोविडियट्स के समान ही वे हर तीन-चार दिन में बताती हैं कि फलां बीमारी से लोग अधिक मरते हैं इसलिए हमें कोरोना से अधिक अन्य बीमारियों पर ध्यान देना चाहिए व अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए लॉकडाउन खोलने की तरफ बढ़ना चाहिए। परन्तु यह अलग बात है कि शैपिरो भी लॉकडाउन को पूरी तरह गलत नहीं मानती है और महामारी फैलने की सूरत में इसे कारगर मानती हैं और यह भी मानती हैं कि इसे तत्काल नहीं हटाना चाहिए बल्कि ”अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने” के लिए धैर्यपूर्वक लॉकडाउन हटाया जाना चाहिए और भविष्य में भी सोशल डिस्टेरन्सिंग व अन्यभ सावधानी बरतनी चाहिए। परन्तु शैपिरो द्वारा पेश तर्क को भारत के अनपढ़ ”मार्क्सवादी” उद्धृत कर लॉकडाउन की नीति को गलत साबित करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। वास्तव में, महज़ लॉकडाउन अपने आप में कोई समाधान है ही नहीं। पहली बात तो यह है कि यदि सही समय पर सही कदम उठाए जाएं तो इसकी आवश्यकता से बचा जा सकता है। दूसरी बात, यदि किन्ही वजहों से आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन अनिवार्य हो भी जाए तो उसे पूर्ण तैयारी और योजनाबद्धता के साथ लागू किया जाना चाहिए। और तीसरी बात यह कि यदि पूर्ण योजनाबद्धता के साथ लागू करने पर भी लॉकडाउन के दौरान मास टेस्टिंग व ट्रीटमेंट नहीं किया जाता तो फिर इसका कोई लाभ नहीं होता, उल्टे हानि होती है। लेकिन हमारे कोविडियट्स लॉकडाउन करने या न करने का मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का सैद्धान्तिक मुद्दा मानते हैं! कहने की आवश्यकता नहीं कि यह अवस्थिति ही मूर्खतापूर्ण है। इनपर हम नतीजों पर बात करते हुए फिर लौटेंगे।
आज अमरीका में कोविड-19 बीमारी विकराल रूप ले चुकी है और प्रतिदिन मृत्यु की नज़र से देखें तो यह फ़िलहाल सबसे अधिक मृत्यु का कारण है। अमरीका द्वारा बीमारी को जिस तरह से सम्भाला गया उससे यह साफ है कि एक बेहद ढीला रवैया, कम मास टेस्टिंग और अस्पातालों में अपर्याप्त इलाज बीमारी के भयंकर रूप ग्रहण करने के कारण हैं।
6. यूके
यूके की बोरिस सरकार का भी कुल मिलाकर कुछ अन्तरों के साथ कोरोना बीमारी को सम्भालने में अमरीका जैसा ही ढीला रवैया अपनाया गया और यहां पर टेस्टिंग की गति को मार्च अंत में ही बढ़ाया गया। यूके में कोविड-19 के कुल 240161 केस आए हैं जिसमें 34466 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। इस दौरान यूके मेंकुल 2489563 टेस्ट कराए गए व प्रति दस लाख टेस्ट संख्या 36697 है।
7. जर्मनी
जर्मनी को इस समय पश्चिमी देशों में कोविड-19 बीमारी के सफ़ल मॉडल के तौर पर पेश किया जा रहा है। परन्तु जर्मनी में अभी तक 175900 केस आ चुके हैं और 8002 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। एंजेला मर्केल के वैज्ञानिक होने और उनके द्वारा मंच पर बेहद ‘अच्छीे’ बात रखने के तरीके के कारण उन्हें इस बीमारी में उभरे पश्चिमी नेता के रूप में पेश किया जा रहाहै। परन्तुे असल में जर्मनी केवल सापेक्षिक तौर पर स्पेन, इटली, यूके और अमरीका से ही अधिक सफ़ल है। यहां पर मास स्केल टेस्टिंग भी एक लम्बे समय बाद ही शुरू हो सकी। जब यह बीमारी चीन में फैल रही थी तब जर्मनी की सरकार ने इसे ‘बेहद कम खतरनाक’ बताया। चीन से आए व्यक्ति के सम्पर्क में आने के कारण जिन लोगों को कोरोना हुआ उन्हें क्वारंटाइन किया गया। परन्तु व्यापक मास टेस्टिंग नहीं की गई। विदेश से आने वाले लोगों की जांच भी फरवरी के अन्तिम हफ़्ते में ही शुरू की गई और यह भी इटली से वापस लौट रहे जर्मनों के बीमारी देश में लेकर आने के कारण हुआ। बीमारी पर वैज्ञानिक तौर पर मुख्यत: नज़र रख रहे राबर्ट कोच इन्स्टिट्यूट ने फरवरी अंत में बढ़ते संक्रमण के चलते इसे 2 मार्च को ‘मॉडरेट’ खतरे की श्रेणी में डाल दिया। इस समय ही मास स्केल पर जांच शुरू हुई। जर्मनी ने 22 मार्च को राष्ट्रीय महामारी योजना के तहत कोरोना बीमारी के ख़िलाफ रेस्पोंस को ‘कन्टेनमैण्टर से ‘प्रोटेक्शन’ मंजिल में डाला और इसके साथ ही सरकार ने अप्रैल माह तक देश भर में लॉकडाउन की घोषणा की। मई माह में फिलहाल नए केस की संख्या घटती जा रही है और सरकार एक-एक कर लॉकडाउन को खोल रही है। परन्तु इसे जिस तरह से एक मॉडल पेश किया जा रहा है उसमें साफ तौर पर ग़लत समझदारी मौजूद है। जर्मनी में सरकार के पास जनवरी में ही यह रिपोर्ट थी कि यह बीमारी आगे भयंकर रूप ले सकती है परन्तु जर्मन सरकार ने दक्षिण कोरिया, ताइवान और वियतनाम के बरक्स बहुत देर से मास टेस्टिंग शुरू की और दूसरा देश में सम्भावित बीमार लोगों के मुकाबले देर से ही कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग शुरू की और जांच शुरू की। जर्मनी में कुल 3147771 टेस्ट कराए गए व प्रति दस लाख टेस्ट संख्या 37585 है।
8. स्वीडन
स्वीडनमें सरकार द्वारा लॉकडाउन लागू नहीं करने को लेकर कुछ हल्कों में काफीतारीफ हुई और इसे लॉकडाउन के वैकल्पिक मॉडल के तौर पर पेश किश गया। स्वीडनमें सरकार ने जनता से घर में रहने और सामाजिक दूरी बरतने की अपील की। बार, स्कूल और तमाम गतिविधियों को रोका नहीं गया। इसे ‘लॉकडाउन विरोधियों’ ने हर्ड इम्युनिटी विकसित करने के तरीके के मॉडल के तौर पर पेश किया हैं हालांकि खुद स्वीडन के स्वास्थ्य मंत्री ने ही बताया कि यह बहुत बड़ी गलतफहमी है कि हमने कोई प्रतिबन्ध या रोक नहीं लागू की। स्वीडन के मुख्य महामारी विशेषज्ञ ने हर्ड इम्युनिटी के प्रयोग के सफल होने की कामना भी की। हालांकि लॉकडाउन लागू न करने की नीति को स्वीडन जैसा एक देश सामाजिक-आर्थिक कारणों के चलते लागू कर सकता था। यह एक ऐसा देश है जहां जनसंख्या घनत्व दुनिया में सबसे कम में से एक है। लोगों की जीवन शैली के चलते यहां सोशल डिस्टेंसिंग करना पहले से ही सम्भव था। साथ ही, सामाजिक-जनवाद के पुराने इतिहास और एक लिबरल बुर्जुआ सरकार होने के चलते और साथ ही नागरिकों के उच्च शैक्षणिक व सांस्कृतिक स्तर के कारण नागरिकों की व्यापक आबादी को सोशल डिस्टेंसिंग के लिए सहमत किया जा सकता था। इसे सार्वभौमिक तौर पर लागू किया ही नहीं जा सकता है। लेकिन इन सबके बावजूद, क्या स्वीडन का मॉडल कोई सफलता की कहानी सुना रहा है? नहीं!
अभी स्वीडन में बीमारी के करीब 30000 केस हैं और इनमें करीब 3674 लोगों की मृत्यु होचुकी है। फिलहाल यह आशंका है कि यह संख्या और अधिक बढ़ेगी क्योंकि स्वीडन में मोर्टेलिटी रेट बेहद अधिक है (42%, जिन मामलों का नतीजा आ चुका है)। लगातार बढ़ती मृत्यु की संख्या के चलते इसे वैकल्पिक मॉडल के तौर पर पेश किए जाने पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। जो इसे एक मॉडल मानने की जिद पाले हुए हैं वे भी अब इन आंकड़ों को स्वीकार करने पर मजबूर हैं कि स्वीडन के मॉडल को वे देश तो कत्तई लागू नहीं कर सकते जिनका जनसंख्या घनत्व अधिक है और खासकर तीसरी दुनिया के वे देश जहां बड़ी आबादी झुग्गी झोपडि़यों में रहने को मजबूर हो।स्वीडन मॉडल पर साथी अभिजीत का यह प्रशंसनीय शोध पत्र यहां पढ़ा जा सकता है: (https://abhijitsays.wordpress.com/…/one-size-does-not-fit…/…)
उपरोक्त देशों केप्रयोगों के सीमित अध्ययन के आधार पर हम यह बात कह सकते हैं कि अगर मौजूदा परिस्थिति और उपरोक्त आंकड़ों को आधार मानें तो यह कहा जा सकता है कि केवल वियतनाम, दक्षिण कोरिया, ताइवान सरीखे देश में कोरोना बीमारी को अपेक्षाकृत सफलापूर्वक फैलने से रोका गया है। इन देशों में त्वरित कार्यवाही, व्यापक मास टेस्टिंग, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, सम्भावित लोगों का क्वारन्टाइन और संक्रमित लोगों के सही इलाज के कारण ही इस बीमारी को रोका जा सका है। इस दौरान आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन को लागू करने की अनिवार्यता संक्रमण के फैलने के ऊपर निर्भररता है। यह किन्हीं स्थितियों में अनिवार्य हो भी सकता है, और किन्हीं स्थितियों में नहीं हो सकता है। जिन देशों में सरकार जनवरी से ही (उपरोक्त सभी देशों में जनवरी में ही पहला कोरोना संक्रमण का केस आया) अपनी पूरी क्षमता से काम कर रही थी, वहीं संक्रमण को रोका जा सका है।
वहीं दूसरी ओर अमरीका, यूके, ब्राजील की दक्षिणन्थी सरकारों ने पहले वायरस को महज होक्स करार दिया। यूके और अमरीका की सरकारों ने फैलते हुए संक्रमण को देख अपना रुख बदलते हुए मार्च में जाकर कुछ कदम उठाए। ब्राजील में बोल्सोनारो तो हमारे देश के कोविडियट्स के समान अभी भी इसे मामूली बीमारी ही करार दे रहा है! इन देशों में बीमारी ने विकराल रूप ले लिया हैऔर ये मॉडल के तौर पर असफल रहे हैं। हम बार-बार यह दोहराते रहे हैं कि हम निरपेक्ष रूप से लॉकडाउन के समर्थक या विरोधी नहीं है। यह कोई विचारधारात्माक मसला नहीं है जिसके ऊपर ऐसा रुख अपनाया जाय। हमारा स्पष्ट मानना है कि आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन की अनिवार्यता बहुत से कारकों पर निर्भर करती है, मसलन, देश की जनसंख्या व जनसंख्या घनत्व, संक्रमण की दर और देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की क्षमता, सही समय पर वांछनीय कदमों का उठाया जाना या न उठाया जाना, इत्यादि। इन चर राशियों के अनुसार ही लॉकडाउन पर कोई अवस्थिति अपनाई जा सकती है। दूसरी बात यह कि किसी भी किस्म का लॉकडाउन वांछनीय बनने के बाद भी केवल तभी कारगर हो सकता है जबकि उसे पूर्ण तैयारी और योजनाबद्धता के साथ्ज्ञ किया जाय और जब साथ में मास टेस्टिंग हो, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग हो, क्वारंटाइनिंग हो, व संक्रमित लोगों का इलाज हो। यह अब साफ सिद्ध तथ्य है कि जिन देशों में इन शर्तों को पूरा करके लॉकडाउन लागू किया गया, वहां वह कारगार हुआ और जिन देशों में इन शर्तों को पूरा करके लागू नहीं किया गया, वहां वह एक विपदा में तब्दील हो गया। इसके अलावा, जिन देशों के बेहद शुरुआत में ही वांछनीय कदम उठा लिये वहां लॉकडाउन, या कम-से-कम पूर्ण लॉकडाउन की कोई आवश्यपकता ही नहीं पड़ी।
हम यहां उन अमानवीय तर्कों पर समय नहीं जाया करेंगे जिन्हें सभी देशों में दक्षिणपन्थी सरकारें अर्थव्यवस्था तुरन्त चालू करवाने के लिए दे रही हैं, मसलन इस बीमारी से बचने का रास्ता हर्ड इम्युनिटी विकसित होने देना है जिस प्रक्रिया में समाज के बूढ़े और बीमार लोग मारे जाएंगे। उल्टा हमारे अनुसार सबसे पहले हम यह प्रयास करेंगे कि हमारे समाज के सबसे कमजोर और बूढ़े लोगों को बचाया जाए। माल्थसवादी और संवेदनशीलता खो चुके लोग ही यह तर्क करेंगे कि हमें अर्थव्यवस्था चलाने के लिए आबादी के इस हिस्से को कुर्बान कर देना चाहिए। दूसरी बात यह है कि इस कोरोना की चपेट में आने वाले 10-40 की उम्र के लोगों में केस मोर्टेलिटी रेट कुल मिलाकर 0.6 प्रतिशत है। भारत जैसे देश में ही यह संख्या लाखों में जाएगी। क्या हम इसआबादी को कुर्बान करने का जोखिम उठाएं और उन्हें हर्ड इम्यूनिटी विकसित होने के भरोसे छोड़ दें? इस तर्क के नग्न होने पर तमाम दक्षिणपंथी और कोविडियट्स इसे कपड़े पहनाकर कहते हैं कि कोरोना के चलते तमाम सरकारों द्वारा लागू किए गए लॉकडाउन में कैन्सर से, भूख से और अन्य कारणों से बहुत अधिक मौत हो रही हैं। हमने ऊपर दिखाया था कि इस बात को सिद्ध करने के लिए वे दक्षिणपन्थी डॉ. शिपैरो को उद्धृत करते हैं परन्तु दिक्कत यह है कि उसे भी ये गलत उद्धृत करते हैं।अपने हिसाब से डॉ. शिपैरो को उद्धृत कर वे लॉकडाउन के निरपेक्ष विरोध की अवैज्ञानिक अवस्थिति अपनाते हैं (जोकि निरपेक्ष समर्थन की ही मिरर इमेज है और उतनी ही मूर्खतापूर्ण है) और कैंसर, बेरोज़गारी और अन्य कारकों से होने वाली मौतों की जगह कोरोना से होने वाली मौत के बीच चुनाव करते हैं। वे कहते हैं कि जीवन और जीविकोपार्जन में से एक को चुनना है, या कहते हैं कि कोरोना पर ध्यान केन्द्रित करने के कारण कैंसर व टीबी से कितने लोग मर रहे हैं, इसलिए कोरोना से लोगों को मरने दिया जाय। इसी प्रकार की बाइनरीज़ दक्षिणपंथी पूंजीपति वर्ग और कोविडियट्स दोनों ही पेश करते हैं। परन्तु सर्वहारा वर्ग इन बाइनरीज़ में चुनने के लिए बाध्य नहीं है। हम कहते हैं कि हमें न भूख से मरना है, न बेरोज़गारी से, न कैन्सर से और न ही कोरोना से! ये पूरी दुनिया हमारे श्रम से चलती है और इन सभी से रक्षा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यानी हमें सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखरेख भी चाहिए, हमें कोरोना से संरक्षण भी चाहिए, हमें फूड राशनिंग भी चाहिए, हमें पीपीई किट्स भी चाहिए, हमें नौकरी की गारण्टी भी चाहिए। भूख से, बेरोज़गारी से, कैन्सर से व लॉकडाउन के समय हो रही अधिकतम मौतें पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा जनित कारणों से हो रही मौतें हैं। बेरोज़गारी और राशन मज़दूरों तक नहीं पहुंचाने की जिम्मेदार यह पूंजीवादी व्यवस्था है। हमें इस समय इस व्यवस्था के मानवद्रोही चरित्र को नंगा करना चाहिए न कि लॉकडाउन लागू करने या न करने के फाल्स बाइनरी में फंस कर पूंजीवाद के अन्तरविरोधों पर पर्दा डालना चाहिए।
अभय प्रताप सिंह
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