मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे
ज्ञान का प्रकाश
ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी है । जिसमें ज्ञान दिया है । जिसमें उचित और अनुचित , भले और बुरे , मान व अपमान , सुख – दुख आदि का ज्ञान हमको होता है। बौद्धिक स्तर जब उच्चतम शिखर की ओर अग्रसर होता है तो ऐसा व्यक्ति ज्ञान का पुंज बनता है अथवा ज्ञान का ज्योति स्तंभ बन जाता है । लोग उस ज्योति स्तंभ से प्रकाश ग्रहण करते हैं और उसके आलोक में जीवन के गूढ़ रहस्यों को खोजते हैं । अपने बारे में सोचते हैं और शेष संसार के बारे में सोचते हैं । ज्ञान का ज्योति स्तंभ बन जाना अर्थात प्रेरणास्रोत बन जाना सचमुच जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। कहा गया है कि जिसके पास बुद्धि है बल उसी के पास है । इसका अभिप्राय है कि बुद्धि व्यक्ति को ज्ञान का स्तंभ ज्योति स्तंभ बना देती है । ऐसे ज्ञान के ज्योति स्तंभ बने लोग जब संसार में विचरते हैं तो लोग उन्हें भूसुर कहते हैं अर्थात पृथ्वी का देवता कहकर उन्हें सम्मानित किया जाता है । उन तपी हुई मूर्तियों को लोग देखकर भी धन्य हो जाते हैं।
मनुष्य के पास अपना चरित्र बल , आत्मबल , सामाजिकबल , धनबल , चरित्र बल , शरीरबल , बुद्धिबल , विद्याबल आदि आठ प्रकार का बल होता है । इन सबमें उत्तम बुद्धि बल ही माना गया है। शरीर बल सबसे निकृष्ट होता है। समाज में ऐसे लोग अक्सर मिल जाते हैं जो अपनी पीठ यह कहकर थपथपाते हैं कि मैंने अमुक व्यक्ति को अमुक समय पर ठोक दिया था , अमुक के साथ मैंने ऐसी बदतमीजी कर दी थी ? अमुक को मैंने इस प्रकार दंड दे दिया था , लेकिन कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कभी ऐसी डींगे आपको मारता हुआ नहीं मिलता कि मैंने अमुक व्यक्ति व्यक्ति के साथ इस प्रकार की बदतमीजी की थी ?
यह ज्ञान के प्रकाश के कारण ही संभव है कि जब मनुष्य अपनी इंद्रियों को अर्थात बुद्धि को वाह इस जगत में खर्चा करके अंतर्मुखी करता है उससे वह अपनी आत्मा के प्रकाश को प्राप्त करता है जो एक मनुष्य का जीवन ध्येय होता है । इसी दिशा में जो हमारे पूर्वज चले हैं वही महापुरुष बने । उन्होंने ऊर्ध्व गति को प्राप्त किया। फिर इन्हीं महापुरुषों ने समाज का और राष्ट्र का उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया । आत्मिक उन्नति सामाजिक उन्नति और आध्यात्मिक उन्नति के रास्ते खोले और यही ज्ञान का प्रकाश है।
सामाजिक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व
है यही पशु प्रवृत्ति कि आप आप ही चरे ।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
मनुष्य का जन्म व्यक्तिगत उन्नति के लिए ही नहीं बल्कि सामाजिक उन्नति के लिए भी होता है और सामाजिक उन्नति के लिए व्यक्तिगत कार्यों में से समय निकालकर सामाजिक हित के कार्य करना अति आवश्यक होता है । शास्त्रों में कर्तव्य कर्मो की दो श्रेणियां हैं इष्ट कर्म व आपूर्त्त कर्म।
अर्जुन कहता है कि मैं जानना चाहता हूॅ कि ज्ञान श्रेष्ठ है या कर्म श्रेष्ठ है। यदि ज्ञान श्रेष्ठ है तो मुझे इस क्रूर कर्म में अर्थात युद्ध में न फंसाएं। तब भगवान ने उसे समझाया- “लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ, ज्ञानयोगेन साड्.ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।’’
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! मैंने तुम्हें पहले भी बताया था कि संसार में दो प्रकार की निष्ठायें हैं। एक निष्ठा है जो ज्ञान योगी लोगों की है, अर्थात् जो सांख्य लोग हैं और ज्ञान से सम्बन्धित ब्यक्तित्व हैं; वे समझते व कहते हैं कि जीवन में कल्याण अगर होगा, मुक्ति अगर होगी तो ज्ञान से ही होगी। इसके दूसरे भाग में ’कर्मयोगेन योगिनाम्’ कहकर भगवान ने कहा कि योगी लोग कहते हैं कि कर्म अवश्य करना चाहिये।
इष्ट कर्म में जर जमीन आदि आते हैं तथा कर्म में वह सामाजिक करते हुए हैं जिनसे समाज का कल्याण होता है अर्थात सभी लोकोपचार के कार्य करना उत्कर्ष श्रेणी में आता है । यज्ञ से पर्यावरण को स्वच्छ करके लोकोपकारक कार्य समाज के लिए किया जाता है। सामाजिक दायित्व को सामाजिक कर्तव्य अथवा सामाजिक कर्म को करने से धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
आज विश्व में जो पर्यावरण असंतुलन बिगड़ा है और प्राकृतिक आपदाएं अधिक आ रही हैं उसका कारण सिर्फ यह है कि हम अपने सामाजिक कर्म पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। पहाड़ों से हम बहुत सारा पत्थर एवं मोटे रेत के रूप में निकालकर पहाड़ों को समाप्त कर रहे हैं । पानी को प्रदूषित कर रहे हैं । हवा को प्रदूषित कर रहे हैं। इससे कैंसर, मस्तिष्क आघात, हृदयाघात जैसी भयंकर बीमारियां समाज में उत्पन्न हो रही हैं तथा हिमखंड पिघल रहे हैं और समुद्र का तल बढ़ता जा रहा है । जो मानव जीवन के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। मानव जीवन तबाह हो रहा है। इसलिए सामाजिक उत्तरदायित्व कार्यों का निर्वहन भी पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए बहुत ही आवश्यक है।
अपनी अपनी योनि से प्रेम
जब जीव मनुष्य की योनि में होता है तो उसको मनुष्य योनि अच्छी लगती है और वह मरना नहीं चाहता है । जब सर्प योनि में होता है तब उसको सर्प की योनि अच्छी लगती है। जब वह जलचर होता है तो उसको जलचर रहना अच्छा लगता है । वहां से मरना नहीं चाहता । नभचर होता है तो नभचर रहना अच्छा लगता है। वहां से मरना नहीं चाहता है। इस सबका निष्कर्ष यह है जीव जिस योनि में होता है उसको उसी योनि के प्रति प्रेम हो जाता है जिस को राग कहते हैं। जीवन का महत्व इसी से पता चलता है , क्योंकि प्रत्येक जीव अपने शरीर से ही रागमय रहता है। प्रत्येक मनुष्य भी इसी प्रकार अपने जीवन से सर्वाधिक प्यार करता है , क्योंकि अपने जीवन से बढ़कर उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता। जबकि मनुष्य के पास विवेक है। जिसके कारण वह अन्य जीवधारियों से पृथक है। विवेक ही मनुष्य को और पशु पक्षियों की योनि से अलग करता है । जो मनुष्य ऐसा नहीं होता , उसको हम प्राय: पशु योनि का कहकर उच्चारित करते हैं। मनुष्य हैं यह जानता है कि यह शरीर नश्वर है परंतु फिर भी जब जान बचाने की बारी आती है , तो सबसे पहले अपनी जान बचाता है। मनुष्य अपने जीवन को सुंदर और सुखी बनाने में भी निरंतर प्रयासरत रहता है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत