आत्मा की उन्नति के बिना सामाजिक और देशोन्नती संभव नहीं

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मनुष्य मननशील प्राणी को कहते हैं। मनन का अर्थ सत्यासत्य का विचार करना होता है। सत्यासत्य के विचार करने की सामथ्र्य मनुष्य को विद्या व ज्ञान की प्राप्ति से होती है। विद्या व ज्ञान प्राप्ति के लिये बाल्यावस्था में किसी आचार्य से किसी पाठशाला, गुरुकुल या विद्यालय में अध्ययन करना होता है। विद्या प्राप्ति के लिये सच्चे ज्ञानी आचार्यों व विद्वानों की संगति तथा उपदेश ग्रहण भी आवश्यक है। सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय व अध्ययन ही मनुष्यों को विद्वान बनाता है। विद्या प्राप्ति के इन उपायों को करके ही मनुष्य सत्यासत्य विषयों का चिन्तन व मनन कर सकता है। सत्यासत्य को जानना ही मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य नहीं है अपितु सत्यासत्य को जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना भी मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य सिद्ध होता है। जो मनुष्य विद्वान हैं परन्तु सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग नहीं करते, वह मनुष्यवेश में मनुष्य नहीं अपितु देश व समाज सहित अपने भी शत्रु सिद्ध होते हैं। असत्य को छोड़े बिना मनुष्य की उन्नति नहीं होती। इसी प्रकार से सत्य को जानना, उसका ग्रहण व आचरण करना भी मनुष्य का कर्तव्य है। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह वस्तुतः मनुष्य होने के साथ उत्तम कोटि के मनुष्य जिसे देव कहते हैं, होते हैं। सत्य का ग्रहण मनुष्य को देव, विद्वान, ईश्वरभक्त, वेदभक्त, देशभक्त, समाज का मित्र व हितैषी, अपना व अपने परिवार सहित मानव जाति का उद्धारक व सुधारक बनाता है। परमात्मा ने मनुष्य को मनुष्य जन्म अपनी आत्मा की उन्नति करते हुए श्रेष्ठ कार्यों को करने के लिये दिया है। जो मनुष्य अपने जीवन में ज्ञान प्राप्ति, ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, मातृ-पितृ-आचार्यों की सेवा तथा समाज के हित के कार्य नहीं करते, वह सभ्य पुरुष, उत्तम नागरिक तथा सदाचारी मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं होते। अतः विद्या की प्राप्ति सहित सत्यासत्य का विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य सिद्ध होता है।

माता-पिता का कर्तव्य होता है कि वह अपनी सन्तानों के लिये योग्य आचार्यों व गुरुओं की तलाश करें तथा उन्हीं से उनको विद्या व ज्ञान की प्राप्ति करायें। सभी आचार्य व विद्वान समान नहीं होते और न ही सभी बालक व विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति की दृष्टि से समान होते हैं। आचार्यों का विद्वान होने के साथ सदाचारी होना भी आवश्यक होता है। विद्वान तथा सदाचारी आचार्य व आचार्यायें ही अपने विद्यार्थियों को ज्ञान प्राप्ति के साथ उनका आचरण शुद्ध व श्रेष्ठ बनाने में सहायक होते हैं। इसके साथ ही मनुष्य की ज्ञान प्राप्ति एवं आत्मा की उन्नति में वेद, ऋषियों के बनाये शास्त्रीय ग्रन्थ उपनिषद व दर्शन आदि सहित वैदिक विद्वानों के अनेक विषयों के ग्रन्थ भी स्वाध्याय के लिये उत्तम होते हैं। ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्याथी, महात्मा हंसराज सहित पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी का जीवन चरित आदि ग्रन्थ भी मनुष्य जाति की विद्या वृद्धि सहित चरित्र निर्माण में सहायक हैं। इनके माध्यम से मनुष्य सत्यासत्य को जानकर अपने जीवन को उच्च आदर्शों से युक्त कर अपनी आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति कर सकते हैं। जिस देश में ऐसे ज्ञानी व सच्चरित्र नागरिक होंगे वह देश निश्चय ही एक आदर्श देश होगा।

उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए जब हम अपने देश की शिक्षा व्यवस्था तथा प्रचलित नियमों को देखते हैं तो हमें निराशा मिलती है। हमारे देश में सत्य विद्या के ग्रन्थ वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि को शिक्षा व्यवस्था वा पाठ्यक्रम में सम्मिलित ही नहीं किया गया है। यह स्थिति नीति निर्धारकों की अज्ञानता, उनका किसी विशेष विचारधारा का होना, उनके राजनीतिक स्वार्थ तथा वेद विरोधी विचारधाराओं का होना ही विदित होता है। इसी कारण देश सामाजिक दृष्टि से समरस होने के स्थान पर विषमताओं से भर गया है। चरित्र व नैतिकता की बात करना ही अप्रांसगिक बना दिया गया है। देश के नेतागण व उच्च शिक्षित लोग ही भ्रष्टाचार व चरित्र हनन के अनैतिक कार्य करते हुए अधिक दिखाई देते हैं। समाज में सबके लिये समान नियम व कानून तक नहीं है। यह भेदभाव पूर्ण दृष्टि देश व समाज को कमजोर करती है। अतः पूरी व्यवस्था एवं नियमों की समीक्षा का यह उपयुक्त समय है। कुछ राजनीतिक व साम्प्रदायिक विचारधारा के लोग अपने स्वार्थों के कारण इसका विरोध करेंगे परन्तु यदि इस काम को अब नहीं किया गया तो आने वाले समय में यह असम्भव हो जायेगा। सत्य व जनहित के कार्यों का विरोध करने वालों की शक्ति निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो रही है। आने वाले समय में मनुष्य की देश व समाज हित में बोलने व लिखने की आजादी भी समाप्त होने की पूरी सम्भावना है। आज भी यह आजादी कुछ सीमा तक ही है। यदि बड़े अपराधियों के विरुद्ध कोई पत्रकार व देशभक्त कुछ कहता है तो उसे अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है। बहुत से लोगों की तो हत्या तक कर दी जाती है।

हमारी यह सृष्टि एक परमात्मा के द्वारा सृष्ट, रचित व संचालित है। सभी मनुष्य आदि प्राणियों को एक ही ईश्वर व सृष्टिकर्ता ने उत्पन्न किया है। ईश्वर सर्वशक्तिमान व न्यायकारी है। उसका न्याय ऐसा है जिसे देश के लोग मुख्यतः मत-मतान्तरों के लोग न तो जानते व समझते हैं और न ही मानते हैं। ईश्वर की जो आज्ञायें व नियम वेद में दिये गये हैं, उसका मत-मतान्तरों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से विरोध देखा जाता है। ऐसा इसलिये भी होता है कि ईश्वर सूक्ष्म, अदृश्य, अगोचर, निराकार तथा सर्वव्यापक सत्ता है। मनुष्य ईश्वर व आत्मा के ज्ञान की अपेक्षा से अज्ञानी है। अतः वह पाप व पुण्य का विचार न कर अपने हित व स्वार्थ के अनुरूप काम करते हैं। वह जब रोगी व कष्टों में होते हैं तो उसका चिकित्सकों आदि से उपचार व समाधान कराते हैं। कुछ ठीक होकर अपने पुराने तौर तरीकों से जीवन व्यतीत करना आरम्भ कर देते हैं तथा कुछ मध्य में ही कालकवलित हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण अज्ञानता होता है। आश्चर्य तो यह होता है कि उन लोगों के मत के आचार्य भी उनका सही मार्गदर्शन नहीं करते। वह उन्हें ईश्वर व आत्मा के सच्चे स्वरूप से परिचित नहीं कराते। ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था का ज्ञान भी नहीं कराते। भोजन के नियमों यथा शाकाहार व मिताहार आदि से परिचित नहीं कराते और न ही उन्हें नैतिकता व चरित्र की ही शिक्षा देते हैं। आजकल सबका एक ही उद्देश्य प्रतीत होता है और वह है अधिकाधिक धन प्राप्ति, यश व कीर्ति की चाह तथा लोगों को अपना अनुयायी या दास बनाना। इसी कारण मनुष्य समाज अपनी आत्मा को सद्ज्ञान से युक्त नहीं कर पा रहा है। इसके साथ ही मनुष्य समाज व्यक्तिगत व सामाजिक आचरण की दृष्टि से सत्याचरण व सदाचारण को भी अपना नहीं पा रहा है। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिये मत-मतान्तरों की परस्पर विरोधी शिक्षाओं का त्याग तथा सत्यासत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का विवेचन कर ईश्वर प्रदत्त वेद के वेदानुकूल नियमों को जानना व धारण करना होगा। महाभारत के समय तक देश में वेद व वेदानुकूल नियमों का ही ज्ञान कराया जाता था। इस कारण से पूरे देश व विश्व में वैदिक विचारधारा ही विद्यमान थी। हमारे 1.96 अरब वर्ष पुराने इस संसार में आजकल जितने मत-मतान्तर प्रचलित हैं उनका 2500 वर्ष पूर्व कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं था। अतः आत्मा व देश की उन्नति के लिये हमें वेदों की ओर लौटना होगा। यदि नहीं लौटेंगे तो श्रेष्ठ मनुष्य समाज वा देश का निर्माण सम्भव नहीं होगा।

आत्मा की उन्नति में ईश्वर की ज्ञानयुक्त भक्ति भी सबसे अधिक सहायक होती है। इसके लिये ईश्वर व आत्मा का यथार्थ ज्ञान होने सहित उपासना की सही विधि का ज्ञान होना भी आवश्यक है। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि में ईश्वर व आत्मा का सत्यस्वरूप प्रस्तुत किया है। इनका अध्ययन कर व इन्हें आचरण में लाकर हम ईश्वर की सही विधि से उपासना व भक्ति कर सकते हैं। आत्मा की उन्नति में योग के अन्तर्गत ध्यान-समाधि का अभ्यास अत्यन्त लाभदायक है। प्राचीन काल से हमारे सभी पूर्वज इसका सेवन करते आये हैं। हम सब भी कुछ कुछ करते हैं परन्तु हमें अपनी उपासना विधि व ईश्वर विषयक ज्ञान को बढ़ाना है। ऐसा करने से मनुष्य की आत्मा की उन्नति होगी और ऐसे मनुष्यों से मिलकर ही एक श्रेष्ठ मनुष्य समाज बनेगा। इसी के लिये महर्षि दयानन्द ने अपना सारा जीवन लगाया। हमारे महापुरुष राम, कृष्ण तथा चाणक्य आदि ने भी वैदिक धर्म की रक्षा व प्रचार के लिये ही अपने अपने जीवन में दुष्टों का नाश व साधुओं की रक्षा सहित देश की उन्नति में योगदान किया था। सब मनुष्य वैदिक धर्म एवं संस्कृति को अपनाये तथा अपनी आत्मा की उन्नति सहित समाज व देशोन्नति में सहयोग करें, यह प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

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