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कविता

बच्चों को खिला पिला बच्चों को भूखी रह जाती : व्रत , पूजन उपवास हुआ करती है मां

ओ३म्
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-रचयिताः ऋषि भक्त प्रो. सारस्वत मोहन मनीषी, दिल्ली।
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समूचा आर्यजगत प्रसिद्ध ऋषिभक्त एवं अन्तर्राष्ट्रीय कवि डा. सारस्वत मोहन मनीषी, दिल्ली के नाम व शुभ कार्यों से परिचित है। आपके अनेक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आप निरन्तर साहित्य साधना में लगे हुए हैं। आप देश भर में बड़े बड़े कवि सम्मेलनों का संचालन करते हैं तथा देश प्रेम से भरी अपनी कविता का जोशीले स्वरों में पाठ करते हैं। आपके अनेक मित्र कवि आपको अपना गुरु मानते एवं आदर देते हैं। आपके कुछ गीत व भजन अत्यन्त लोकप्रिय हैं। आर्यसमाज के अनेक भजनोपदेशक आपके भजनों को बड़े प्रेम एवं हृदय की भावनाओं का रस घोलकर गाते हैं। हमारा सौभाग्य है कि हमारी मनीषी जी से निकटता है तथा उनका स्नेह व आशीर्वाद हमें प्राप्त है। कल दिनांक 10-5-2020 को मातृ दिवस था। हमें आपकी मां के ऊपर एक अत्यन्त प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण कविता प्राप्त हुई थी। इसे हम प्रस्तुत कर रहे हैं। हम इस कविता को कल प्रस्तुत नहीं कर सके इसके लिये क्षमा प्रार्थी हैं। मनीषी जी की कविता प्रस्तुत है :–

बंजर में मधुमास हुआ करती है मां,
संस्कृति का उल्लास हुआ करती है मां।

मत बांटों दानव बनकर भूगोलों में,
देवों का इतिहास हुआ करती है मां।

देना केवल देना जिसका लक्ष्य रहे,
विष में भी विश्वास हुआ करती है मां।

कुचली जाने पर भी सुरभित करती है,
नन्दन वन की घास हुआ करती है मां।

खिला-पिला बच्चों को भूखी रह जाती,
व्रत-पूजन उपवास हुआ करती है मां।

सदा हर्षवर्धन करती सन्तानों का,
नित पुरुषोत्तम मास हुआ करती है मां।

खो जाने पर ही कीमत का पता चले,
आम दिखे पर खास हुआ करती है मां।

प्रज्ञा पारमिता परमेश्वर से कम क्या,
सांस सांस अरदास हुआ करती है मां।

संस्कारों की तुलसी बोती जीवन में,
ऋत सत्यार्थ प्रकाश हुआ करती है मां।

संन्यासी के तप से बढ़कर तप इसका,
घर में भी बनवास हुआ करती है मां।

फूल झरे असमय तो ज्यादा दुःख होता,
खूशबू का अहसास हुआ करती है मां।

शोलों में भी ओलों जैसी ठंडक दे,
तृप्तिदायिनी प्यास हुआ करती है मां।

मां के चरण आचरण का पर्याय रहें,
धरती पर आकाश हुआ करती है मां।

स्वर्ग छुपा हुआ होता है मां के पैरों में,
सुख का सतत विकास हुआ करती है मां।

सिर पर हाथ धरे लोहा सोना कर दे,
वरदानी संन्यास हुआ करती है मां।

मात-पिता को रखो सदा सिर-आंखों पर,
सबके मुक्ति का प्रयास हुआ करती है मां।

वह घर दूध-पूत अन्न-धन से भरा रहे,
जिस घर में न उदास हुआ करती है मां।

सदा शीष आशीष ‘मनीषी’ बना रहे,
कंकर में कैलाश हुआ करती है मां।

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रचयिता- प्रो. सारस्वत मोहन मनीषी,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
मोबाइल-09810835335

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