निजी क्लीनिक बंद होने से मरीज हो रहे है परेशान

अजय कुमार

जनता को परेशानियों से बचाने के लिए लॉकडाउन के दौरान राशन-पानी, दूध-सब्जी-फल की दुकानें, मेडिकल स्टोर, सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानें, रिपेयरिंग सेंटर तक खुल रहे हैं तब निजी चिकित्सक अपने क्लीनिक या नर्सिंग होम खोलने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहे हैं।

कोरोना महामारी के समय जब इसके संक्रमण को रोकने के लिए सावधानीवश अधिकांश सरकारी अस्पतालों में ओपीडी बंद हैं या नाममात्र को चल रही हैं, तब निजी चिकित्सक मरीजों के लिए ‘वरदान’ साबित हो सकते थे, लेकिन देश पर आई कोरोना ‘इमरजेंसी’ के समय ‘धरती के भगवान’ कहे जाने वाले 95 फीसदी से अधिक निजी चिकित्सकों ने भी अपनी क्लीनिक और नर्सिंग होम पर ‘ताला’ लगा दिया। पहले लॉकडाउन के दौरान लगा कि यह ‘तालाबंदी’ सरकारी फरमान के चलते हुई होगी, लेकिन जल्द ही खुलासा हो गया कि यह कोई सरकारी ‘तालाबंदी’ नहीं थी। बल्कि आम आदमी की तरह ‘धरती का भगवान’ भी कोरोना से डर गया था। इसीलिए उसने अपने मरीजों को ‘ऊपर वाले‘ के सहारे छोड़कर अपनी जान बचाना ज्यादा बेहतर समझा। संभवतः जब आम आदमी कोरोना के चलते शारीरिक दूरी बनाए रखने की महत्ता को नहीं समझ पा रहा था, तब चिकित्सकों को ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का महत्व अच्छी तरह से समझ में आ गया था। उन्हें प्रधानमंत्री मोदी का वह संबोधन भी याद रहा होगा, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘जान है तो जहान है।’ अगर ऐसा न होता तो यह कथित समाज सेवक जिन्हें डॉक्टर की उपाधि मिली हुई है, अपने पेशे को और अधिक बदनाम करते हुए घरों में ‘कैद’ नहीं हो जाते।

आश्चर्य होता है, एक तरफ जनता को परेशानियों से बचाने के लिए लॉकडाउन के दौरान राशन-पानी, दूध-सब्जी-फल की दुकानें, मेडिकल स्टोर, सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानें, रिपेयरिंग सेंटर तक खुल रहे हैं तब निजी चिकित्सक अपने क्लीनिक या नर्सिंग होम खोलने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहे हैं। संकट के इस दौर में जब डॉक्टरों की सबसे ज्यादा जरूरत है, कुछ डॉक्टर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहे हैं। ज्यादातर डॉक्टर मरीज देखने से परहेज कर रहे हैं। स्थानीय प्रशासन चाहे तो महामारी एक्ट के तहत इन डॉक्टरों के लाइसेंस निलंबित कर सकता है, काम से बच रहे डॉक्टरों पर महामारी अधिनियम 1894 एक्ट के तहत एक से पांच साल तक प्रतिबंध लगाए जाने का प्रावधान भी मौजूद है, लेकिन योगी सरकार और उनका शासन-प्रशासन डॉक्टरों की मनमानी के खिलाफ मूक बना हुआ है।
यह स्थिति तब है जबकि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) भी डॉक्टरों से बार-बार अपील कर रहा है कि वे अपने क्लीनिक खोलें या एमटीएच सहित अन्य सरकारी अस्पतालों में स्वेच्छा से सेवाएं दें, ताकि कोरोना महामारी काल में व्यवस्थाएं सुचारू रूप से चल सकें और मरीजों को परेशानी न हो। आईएमए पदाधिकारी फोन लगाकर चिकित्सकों को उनकी जिम्मेदारी याद दिला रहे हैं, लेकिन अधिकांश डॉक्टर सेवाएं देने से कतरा रहे हैं। कुछ खुद को क्वारंटाइन करने की बात करते हैं तो कोई कहता है कि वे तो फोन पर ही मरीजों को इलाज दे रहे हैं। उनके लिए सरकारी अस्पताल में सेवा देना संभव नहीं है। आईएमए ने ऐसे डॉक्टरों की सूची तैयार कर ली है।

डॉक्टर क्यों क्लीनिक नहीं खोल रहे हैं, इसको लेकर कुछ चिकित्सकों का पक्ष लेने की कोशिश की गई तो इनका कहना था कि दवाई की दुकानों को लेकर तो प्रशासन ने स्थिति स्पष्ट कर दी है, लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि लॉकडाउन में निजी क्लीनिक खोले जा सकते हैं या नहीं। इसके चलते डॉक्टर क्लीनिक खोलने से परहेज कर रहे हैं। डॉक्टरों का यह भी कहना है कि कोरोना के संदिग्ध मरीज के सीधे संपर्क में आने पर उन्हें भी संक्रमण होने की आशंका है। सरकार उन्हें कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए पीपीई किट उपलब्ध करवाए तो वे क्लीनिक पर मरीजों को देख सकते हैं। बातचीत के दौरान कुछ डॉक्टर ऑफ द रिकॉर्ड क्लीनिक या नर्सिंग होम नहीं खुलने की वजह गिनाने लगे हैं। वह कहते हैं कि किसी मरीज के माथे पर तो लिखा नहीं होता है कि वह कोरोना संदिग्ध है और कोरोना जांच इतनी महंगी है कि उसे प्रत्येक मरीज वहन नहीं कर सकता है।

बात निजी क्लीनिक खोले जाने को लेकर सरकारी आदेश की कि जाए तो कोरोना महामारी को फैलने से रोकने के लिए जब पहली बार देश में लॉकडाउन लागू हुआ था, तो उसी के कुछ दिनों के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव राजेंद्र कुमार तिवारी ने प्रदेश में भर लॉकडाउन के दौरान निजी क्लीनिक व नर्सिंग होम खोलने के निर्देश दिए थे। उन्होंने सभी जिलाधिकारियों को पत्र लिखकर कहा था कि कई जिलों से निजी चिकित्सालयों के बंद होने और मरीजों को न देखने की सूचना मिल रही है। इसलिए मरीजों के हित में लॉकडाउन के दौरान नर्सिंग होम और क्लीनिक को खोलने की व्यवस्था की जाए। ऐसा न करने वाले चिकित्सालयों के खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए गए थे।

मुख्य सचिव ने आदेश जारी करते हुए कहा था कि निजी चिकित्सालयों के प्रबंधकों-प्रतिनिधियों के साथ बैठक करके उन्हें बताया जाए कि उनके द्वारा सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर मरीजों को देखा जा सकता है। चिकित्सकों को निर्देश दिया गया था कि वह चिकित्सा व उपचार के लिए प्रयोग में आने वाले उपकरणों को क्रियाशील रखें। चिकित्सकों, पैरामेडिकल स्टाफ का एक निश्चित समय के लिए उपस्थिति सुनिश्चित करें। दवाओं की पर्याप्त उपलब्धता बनाएं रखें। मुख्य सचिव ने निजी चिकित्सालयों में समुचित इलाज की व्यवस्था कराने के लिए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानि आईएमए से सहयोग के लिए भी कहा था।

वैसे इससे पूर्व जब कोरोना वायरस के खतरे को देखते हुए देश भर में 21 दिनों के लिए लॉकडाउन लागू किया गया था, तब भी केन्द्र ने लॉकडाउन के दौरान जरूरी सेवाओं, प्रभावी उपायों और अपवादों के बारे में गाइडलाइन जारी की है। इस गाइडलाइन में कहा गया था कि स्वास्थ्य सेवाओं पर रोक नहीं रहेगी और दवा की दुकानें यानी मेडिकल स्टोर, मेडिकल इक्विपमेंट की दुकानें, पैथ लैब और राशन की दुकानें खुली रहेंगी। इसी प्रकार अस्पताल, डिस्पेंसरी, क्लीनिक, नर्सिंग होम आदि को भी लॉकडाउन के दौरान खुले रखने की इजाजत दी गई थी। लोगों को डॉक्टर के यहां जाने और अस्पताल से घर आने की भी छूट थी।

लब्बोलुआब यह है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार निजी चिकित्सकों को क्लीनिक और नर्सिंग होम चलाने वालों की मनमानी बंदी के खिलाफ कोई सख्त कदम ही नहीं उठा पा रही है, जबकि सरकार चाहे तो उसके पास अपार शक्तियां हैं, जिसके सहारे मनमानी कर रहे निजी चिकित्सकों की नकेल वह कस सकती है, लेकिन न जाने क्यों बीमार-मरीजों को ‘ऊपर वाले’ के सहारे छोड़कर धरती के भगवान के अंतर्धान हो जाने को योगी सरकार गंभीरता से नहीं ले रही है। अच्छा होता योगी सरकार कुछ कड़े कदम उठाती, ताकि कम से कम बिना इलाज के किसी का दम तो नहीं निकलता। आज की तारीख में लाखों की संख्या में ऐसे नए-पुराने मरीज हैं जिनको डॉक्टर की सलाह की जरूरत है, लेकिन वह मजबूर होकर घरों में बैठे हैं, जिसके चलते इनका मर्ज भी बढ़ता जा रहा है। खासकर वृद्ध और गर्भवती महिलाओं को कुछ ज्यादा ही परेशानी हो रही है, जिन्हें रूटीन चैकअप कराना जरूरी होता है।

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