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संपादकीय

अधिकार से पहले कर्तव्य, अध्याय — 2 , संतान के प्रति माता पिता के कर्तव्य

संतान के प्रति माता पिता के कर्तव्य

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आजकल जिसे हम कर्तव्य के नाम से जानते हैं प्राचीन काल में वही हमारे देश में विधि थी । उस समय विधि का पालन करना सबके लिए वैसे ही अनिवार्य था जैसे आज कानून का पालन करना अनिवार्य है । विधि विधेयात्मक होती है । जबकि कानून निषेधात्मक होता है । इन दोनों में मौलिक अंतर है ।हमारे पूर्वजों ने विधि का विधेयात्मक निर्माण किया । इसीलिए कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में यह विधेयात्मक प्रावधान किया कि :–
पुत्राश्च विविधेः शीलैर्नियोज्याः संततं बुधैः।
नीतिज्ञा शीलसम्पनना भवन्ति कुलपजिताः।।
हिन्दी में भावार्थ- महामति चाणक्य यहाँ पर कह रहे हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति अपने बच्चों को पवित्र कामों में लगने की प्रेरणा देते हैं , क्योंकि श्रद्धावान, चरित्रवान तथा नीतिज्ञ पुरुष ही विश्व में पूजे जाते हैं।
जैसे आज हम कानून के प्रावधान पढ़ते हैं , वैसे ही हमारे यहां पर विधि का प्रावधान होता था। महामेधा संपन्न चाणक्य के द्वारा दिए गए विधि के इस प्रावधान में कर्तव्य और अधिकार दोनों को समाविष्ट किया गया है । इससे स्पष्ट होता है कि माता-पिता को अपने बच्चों को शिक्षा अवश्य दिलानी चाहिए , यह उनका कर्तव्य है ।

माता – पिता भी शत्रु और बैरी हो जाते हैं

शिक्षा क्यों दिलानी चाहिए ? उसका उत्तर देते हुए भी चाणक्य ने स्पष्ट किया है कि श्रद्धावान , चरित्रवान तथा नीतिज्ञ पुरुष ही विश्व में पूजे जाते हैं । इस प्रकार संतान का श्रद्धावान , चरित्रवान तथा नीतिज्ञ पुरुष बनना जहाँ उनका एक अधिकार है , वहीं माता-पिता के द्वारा उन्हें ऐसा बनाया जाना उनका एक कर्तव्य है। अधिकार और कर्तव्य दोनों का समन्वय बनाकर जो प्रावधान किया जाता है , उसी को विधि कहते हैं। चाणक्य की इस व्यवस्था से यह भी स्पष्ट होता है कि सन्तान को चरित्रवान , श्रद्धावान और नीतिज्ञ पुरुष बनाना भी हमारी शिक्षा का एक उद्देश्य था।
अपने इस मत की और भी अधिक पुष्टि करते हुए चाणक्य ने यह भी स्पष्ट किया है कि :–
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
हिन्दी में भावार्थ–ऐसे माता पिता अपनी संतान के बैरी हैं जो उसे शिक्षित नहीं करते। अशिक्षित व्यक्ति कभी भी बुद्धिमानों की सभा में सम्मान नहीं पाता। वहां उसकी स्थिति हंसों के झुण्ड में बगुले जैसी होती है।
भारत के प्राचीन वांग्मय में यह भी एक विधिक व्यवस्था है । इसका भावार्थ यही है कि जो माता-पिता अपनी संतान को शिक्षित करने के अपने कर्तव्य को विस्मृत कर देते हैं , वह अपनी संतान का भारी अहित करते हैं । क्योंकि ऐसी संतान बड़े होकर वैसे ही अपमानित जीवन जीती है जैसे हंसों के झुंड में बगुले को अपमान झेलना पड़ता है । इसका अभिप्राय है कि प्रत्येक माता-पिता का यह दायित्व है कि वह अपनी संतान को हंस बनाए और उसे सम्मानित जीवन जीने के लिए प्रेरित करें ।
हर एक बालक अपने बचपन से ही अपने सुनहरे भविष्य की योजनाएं बनाने लगता है । उसके मन मस्तिष्क में ऐसे अनेकों सपने फलने फूलने लगते हैं जो उसे सम्मानित जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं । बच्चे के ऐसे सपनों को साकार करना माता-पिता का पवित्र कर्तव्य है । ‘बड़ा’ बनने की चाह बच्चे के भीतर जितनी बलवती होती जाती है कि उतना ही वह ‘बड़ा’ होता जाता है । भीतर ‘बड़ा’ बनने की चाह है और बाहर से वह शारीरिक रूप से ‘बड़ा’ होता जा रहा है। इन्हीं के साथ एक तीसरी बात और घटित हो रही होती है कि वह ‘बड़ों’ का अनुकरण भी करने लगता है। वास्तव में कोई भी बालक बड़ों का अनुकरण इसीलिए करता है कि उसे ‘बड़ा’ बनना है । वह बहुत शीघ्रता से अपने नाम के साथ से यह हटा देना चाहता है कि वह बालक है । वह चाहता है कि लोग उसे ‘बड़ा’ मानें और ‘बड़ा’ समझें । इसलिए कई बच्चे समय से पहले ‘बड़ी बातें’ करते देखे जाते हैं।
घर में प्रत्येक बालक को अपने बड़े के रूप में सबसे पहले माता-पिता ही दिखाई देते हैं । यही कारण है कि बच्चा अपने माता-पिता की बातों का अधिक अनुकरण करता है। अनुकरण करते – करते कुछ बातें उसके व्यवहार में सम्मिलित हो जाती हैं और संस्कार रूप में उसके हृदय – पटल पर भी अंकित हो जाती हैं । जिन्हें वह जीवन भर अपने कार्य व्यवहार से हटा नहीं पाता । यही कारण है कि विद्वानों ने परिवार को प्रथम पाठशाला माना है । जिसमें बालक बालक रहकर भी शिक्षा ग्रहण करता है । माता – पिता का कर्तव्य है कि वह अपने आचरण और व्यवहार को श्रेष्ठ रूप में प्रस्तुत करें । जितना आदर्श व्यवहार , आदर्श कार्यशैली, आदर्श बोलचाल आदि बनाकर वह अपने बच्चे के सामने प्रस्तुत करेंगे उतना ही बच्चा उनसे कुछ अधिक बेहतर सीख पाएगा। माता पिता का कर्तव्य है कि वह अपने आचरण व्यवहार को तो आदर्श रूप में प्रस्तुत करें ही साथ ही वह अपने बच्चे की गतिविधियों पर भी नजर रखें । बच्चा कहां खेलता है ? कैसे बच्चों में खेलता है ? कैसे खेल उसे प्रिय हैं ? और कैसी पुस्तकें उसे पढ़ना रुचिकर है ? कौन से खिलौने वह पसंद करता है ? – इत्यादि पर माता-पिता को ध्यान देना चाहिए।
इस अवस्था में बच्चों को उचित मार्गदर्शन और भरपूर प्यार की भी आवश्यकता होती है। जिससे उन्हें वंचित रखना उनके भावी व्यक्तित्व के साथ खिलवाड़ करना होता है । अतः माता-पिता का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का उचित मार्गदर्शन करते हुए उन्हें भरपूर प्यार भी दें। मां का कर्तव्य है कि वह बच्चे की शत्रु न बने और पिता का कर्तव्य है कि वह बच्चे का बैरी ना बने।

वर्तमान स्थिति की भयावहता का कारण

आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में माता – पिता ने बच्चों का उचित मार्गदर्शन करना बंद कर दिया है ।इसे वह अपनी मजबूरी कहते हैं। इसी के साथ-साथ बच्चों को प्यार देना भी अपनी व्यस्तताओं के नाम पर बहुत कम कर दिया है। जिससे माता – पिता और बच्चों के बीच में एक भावशून्यता सी विकसित होती जा रही है । महानगरों में इस भावशून्यता ने अपने कुपरिणाम भी देने आरंभ कर दिए हैं । जहां पहले माता-पिता बच्चों को अकेला छोड़ते हैं या उन्हें ‘आया’ के माध्यम से या शिक्षकों के माध्यम से मार्गदर्शन या प्यार दिलाने का प्रयास करते हैं, फिर वही बच्चे बड़े होकर माता-पिता को नौकरों के या डॉक्टर्स के माध्यम से प्यार , चिकित्सा व सेवा दिलाने का प्रयास करते हैं । कहीं-कहीं तो स्थिति इससे भी ज्यादा बिगड़ चुकी है। यह सब इसीलिए हो रहा है कि माता – पिता ने अपने कर्तव्य से सही समय पर मुंह फेरने का प्रयास किया।
माता पिता के लिए यह भी आवश्यक है कि वह अपने बच्चों के कैरियर पर ध्यान दें । इस विषय में यह भी सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है कि माता – पिता बच्चे की निजी पसंद पर अपनी पसंद को हावी न होने दें । बच्चा की स्वाभाविक इच्छा को समझो कि वह उसकी अपनी भीतर की प्रतिभा है ।
मान लीजिए आप अपने बच्चे को डॉक्टर बनाना चाहते हैं , परंतु वह स्वयं एक अच्छा बिजनेसमैन बनना चाहता है। ऐसे में आपका कर्तव्य है कि आप उसे एक अच्छा बिजनेसमैन बनने के लिए उचित परिवेश दें । उचित मार्गदर्शन दें । माता – पिता अपने बच्चे की अनावश्यक आलोचना से बचें । दूसरों के समक्ष उसकी कमियों को गिराने का काम कभी न करें । आलोचना करने से बच्चा विरोधी , विद्रोही और क्रोधी होता चला जाता है। साथ ही दूसरों के समक्ष उसकी कमियां गिनाने से वह उन कमियों को सुधारने के स्थान पर और अधिक ग्रहण करता चला जाता है ।
बच्चे को उसकी गलतियों पर डांटना , डपटना भी चाहिए । परंतु उस डांटने व डपटने की एक मर्यादा होती है । कभी भी अपेक्षा से अधिक डांटना , डपटना , फटकारना या दंडित करना बच्चे को आपके प्रति विद्रोही बनाने का सबसे भयंकर कारण होता है। इसलिए इस प्रकार की बातों से बचना चाहिए । दंड उचित परिमाण में देना आवश्यक है। इससे बच्चे के भीतर किसी भी दोषी को उसके दोष के अनुपात में ही दंड देने की प्रवृत्ति विकसित होती है और वह न्यायशील व्यवहार करने वाला बनता है।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम अपने बच्चे को सुधार नहीं रहे हैं अपितु उसका निर्माण कर रहे हैं। निर्माण के लिए जिस प्रकार के व्यवहार की आवश्यकता होती है हमें वही अपनाना चाहिए । इसके लिए सर्वोत्तम मार्ग यही है कि हम बच्चे का निर्माण वैसे ही करें जैसे एक कुंभकार किसी घड़े का निर्माण करता है । एक कुशल कुंभकार भीतर से हाथ का सहारा लगाकर बाहर से घड़े की पिटाई करता है। यही भाव माता – पिता को बच्चों के निर्माण में अपनाना चाहिए। भीतर से सुकोमल होकर बाहर से थोड़ी फटकार लगाएं तो बच्चे का सही निर्माण हो सकता है।

सही समय पर सही शिक्षा

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि शैशव यौवन का जनक है ।अतः बच्चों को सही समय पर सही शिक्षा प्रदान करना माता-पिता का कर्तव्य है । माता – पिता बच्चों में उचित संस्कार देने के लिए स्वयं को आदर्श रूप में प्रस्तुत करें । यदि माता पिता स्वयं टी.वी. देखने में समय व्यतीत करेंगे तो बच्चों पर उनके लाख कहने का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा कि टीवी नहीं देखना चाहिए । बच्चा टी.वी. न देखें ,इसके लिए उचित होगा कि माता-पिता स्वयं टी.वी. ना देखें।
कई माताएं ऐसी होती है जो बच्चों के दोषों को उनके पिता से झूठ बोलकर छुपाने का प्रयास करती हैं । इससे वह समझती हैं कि बच्चा खुश होगा और वह बच्चे को बुराइयों से बचा लेगी । जबकि होता यह है कि माता के ऐसे व्यवहार को बच्चा ग्रहण कर लेता है और वह समझ लेता है कि किसी भी विपरीत परिस्थिति से बचने के लिए झूठ एक अच्छा सहारा है। परिणाम स्वरूप झूठ बोलना उसके व्यवहार में सम्मिलित हो जाता है। अतः उचित होगा कि माता को अपने बच्चे को झूठ बोलकर किसी दण्ड से बचाने की कार्यवाही नहीं करनी चाहिए । इसके विपरीत माता को चाहिए कि वह बच्चे को विपरीत परिस्थितियों में भी सच का साथ न छोड़ने के लिए प्रेरित करती रहे। बच्चे को सही समय पर सही शिक्षा देने का प्रयास माता-पिता को करना चाहिए।
माता – पिता के लिए यह भी आवश्यक है कि वह बच्चों की जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए स्वयं ज्ञानी बनें । अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करें । बच्चे की जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए कभी उसे गुमराह न करें । यदि स्वयं उसकी जिज्ञासा का उचित समाधान नहीं कर सकते हैं तो किसी दूसरे से कराएं। इससे बच्चा जिज्ञासाओं को सही रूप में शांत कर पाएगा और वह कभी जीवन में किसी दूसरे को गुमराह करने के बारे में सोच भी नहीं पाएगा।
बच्चों के सामने माता – पिता का चीखना चिल्लाना भी पूर्णतया वर्जित है। चीखने चिल्लाने वाले माता-पिता अपने बच्चों को भी ऐसा ही संस्कार देते हैं। माता-पिता का यह भी कर्तव्य है कि वह बच्चा की पढ़ाई के समय कभी टी.वी. न देखें । कभी ऊंची आवाज में बातचीत न करें और न ही ऊंची आवाज में मोबाइल पर किसी दूसरे से बातचीत करें। अपनों से बड़ों के प्रति माता-पिता स्वयं श्रद्धालु बने रहें । बड़ों का सेवा भाव और आदर – सत्कार करने वाले माता-पिता अपने बच्चों को ऐसे ही मानवीय गुणों से भर देते हैं , जबकि अपने से बड़ों के प्रति निरादर का भाव रखने वाले माता पिता स्वयं भी अपनी संतान के हाथों एक दिन अपमानित होते हैं।
एक कुशल एवं योग्य पिता को अपनी संतान के पालन पोषण के प्रति सतर्क रहना चाहिए । सन्तान का शारीरिक ,आर्थिक ,मानसिक शोषण न होना चाहिए । विद्वानों का कहना है कि :—

‘लालयेत पाँच वर्षानि दस वर्षानी ताडयेत।
प्रापते तू षोडसे वरखे पुत्र मित्राणी समाचरेत’ ।

अर्थात लालन – पालन में ताड़न का भी महत्व है । अनुशासन सीखने के लिए दंड या भय आवश्यक है ,जो बच्चे  को सही और गलत मार्ग का आभास कराता है । सही समय पर सही शिक्षा का एक अर्थ यह भी है कि सही समय पर प्यार और सही समय पर लताड़ भी बच्चों को दी जानी अपेक्षित है।

बच्चों में आत्मविश्वास विकसित करें

जिस प्रकार किसी नाजुक पौधे की रक्षा के लिए उसके चारों ओर एक सुरक्षात्मक घेरा डाल दिया जाता है जिससे कि पशुओं,आदि से उसकी रक्षा होती है , उसी प्रकार कुछ कंटीले तारों अर्थात उचित समय पर उचित फटकार आदि का घेरा बच्चे के चारों ओर डालना भी आवश्यक होता है । इस प्रकार के सुरक्षा कवच के घेरे से जैसे एक पौधा बड़ा वृक्ष बन जाता है और फिर अनेकों पथिकों को अपनी शीतल छाया देता है , साथ ही मीठे फल देकर भी उसकी सेवा करता है , उसी प्रकार फटकार आदि के सुरक्षा कवच में पला बालक भी बड़ा होकर दूसरों को वृक्ष की भांति ही छाया और फल देने वाला बन जाता है ।
एक सुयोग्य पिता का यह कर्तव्य है कि वह अपने बच्चे या संतान के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए उन्हें कभी भी बेलगाम ना छोड़े । ध्यान रहे कि सत्यनिष्ठा ,पवित्रता,ईमानदारी ,सच्चरित्रता ,दया ,करुणा ,क्षमा ,विनम्रता ,मैत्री , सेवा ,त्याग आदि  मानवीय  गुण मनुष्य परिवार में ही सीखता है ।
एक पिता को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने सुयोग्य पुत्र , पुत्री अर्थात संतान की प्रतिभा के विकास में सहायक हो । उस पर पहरा लगा कर ना बैठ जाए । कहने का अभिप्राय है कि जैसे ही उसे यह विश्वास हो कि उसकी संतान किसी कार्य को पूर्ण क्षमताओं के साथ अच्छे ढंग से कर सकती है तो
ऐसे कार्यों के निष्पादन करने में पिता को सहायक होना चाहिए । इससे बच्चों में आत्मविश्वास जागृत होता है ।
हमारे यहां प्राचीन काल में जैसे ही राजकुमार योग्यता प्राप्त कर लेता था , वैसे ही पिता उसके लिए गद्दी छोड़ कर स्वयं वनवासी हो जाता था। वह परंपरा संसार के लिए आज भी लाभदायक हो सकती है। हमने अपने ही इतिहास में मुगल बादशाहों के बारे में ऐसे अनेकों किस्से सुने हैं जब वह स्वयं अत्यंत वृद्ध होकर भी बादशाह बने रहे तो उनके पुत्रों ने उनके विरुद्ध विद्रोह किये । विद्रोह की ऐसी स्थिति से बचने के लिए बच्चों की योग्यता को विकसित करने का अवसर स्वयं पिता को ही देना चाहिए।
अंत में माता – पिता के संतान के प्रति कर्तव्यों को कवि की इन पंक्तियों में समेटा जा सकता है :–

” हर माँ बाप को अपना फर्ज निभाना होता है
रोते हुए बच्चे को प्यार से गले लगाना होता है,
तेरी सूरत देख जन्नत का सुख नसीब होता है
माँ तेरे आँचल में, हर मौसम सुहाना होता है,
मेरे जीवन में बचपना जब उछल कूद करता है
खिलौना लेने का माँ से, फिर नया बहाना होता है,
जब जिद्द पर अड़ जाऊ माँ प्यार से समझाती है
माँ की बात को ना समझूँ तो, रोना रुलाना होता है,
मेरे हर गुनाह को मेरी माँ हँसकर माफ़ कर देती है
नादान हूँ मैं, कुछ गलतियों को माँ से छुपाना होता है,
लुटा कर सारी दौलत बच्चों पर माँ-बाप गर्व करते हैं
माँ-बाप का खज़ाना, बच्चों का सपना सजाना होता है।

राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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