Categories
धर्म-अध्यात्म समाज

महर्षि मनु की सामाजिक व्यवस्था और कर्माशय

मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि गुरुजन वृद्धजन, माता-पिता और सज्जन के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करने से व्यक्ति की आयु ,विद्या ,यश और बल में वृद्धि होती है ।अद्भुत लाभों का वैज्ञानिक आधार व्यक्ति के द्वारा अभिवादन की विधि में सुरक्षित है। प्रत्येक मानव देह धारी के शरीर में विभिन्न प्रकार की शक्तियों का समावेश होता है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में नकारात्मक व सकारात्मक शक्तियां मौजूद रहती है । अभिवादन भारतीय संस्कृति का संस्कार है। दुनिया के प्रत्येक देश में अलग-अलग इसकी विधियां प्रचलित हैं परंतु भारतवर्ष की विधि सर्वोत्कृष्ट है । आज जब विश्व कोरोना की महामारी से जूझ रहा है तो भारत में हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ करने का प्रचलन जो युगों पुराना रहा है , उसको सारा विश्व अंगीकार करना चाहता है। यही भारतीय संस्कृति की अनोखी एवं अनूठी और अनुकरण किये जाने योग्य श्रेष्ठता है।
जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे के लिए चरण स्पर्श करके अभिवादन करता है निश्चित ही उस व्यक्ति का हाथ अभिवादन करने वाले के सिर पर जाता है और उसको आशीर्वाद हृदय से देता है तो यह भी निश्चित है कि आशीर्वाद जो दिल से दिया जाता है वह कभी मुरझाता नहीं है बल्कि वह फलीभूत होता है।
अभिवादन करने वाला व्यक्ति जिससे अभिवादन करता है उसकी सारी शक्तियों को अपने अंदर आकर्षित कर लेता है , इसलिए अभिवादन में बहुत शक्ति है।

आर्यावर्तकालीन भारत वर्ष में मनुस्मृति के आधार पर जब शासन कार्य होता था और न्याय निर्णय दिए जाते थे तो उस समय निसंदेह यह धर्मशास्त्र हमारे लिए संविधान का कार्य करता था । आज जब आर्यावर्त की सीमाएं सिमटकर बहुत छोटी हो गई हैं , तब विदेशों में जहां – जहां भी मनुस्मृति के आधार पर शासन चलता हुआ दिखाई देता है , या शासन पर मनुस्मृति की छाप दिखाई देती है तो समझना चाहिए कि यह वही देश हैं जो कभी आर्यावर्त्त के अंग हुआ करते थे।
मनुस्मृति में चारों वर्णों के धर्मों का सविस्तार उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त चारों आश्रमों , सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के प्रकरण सहित राज्य की व्यवस्था , राजा के कर्तव्य , विभिन्न प्रकार के विवादों में न्याय निर्णय करने के विधान , सेना का प्रबंध आदि उन सभी विषयों पर प्रकाश डाला गया है जो कि मानवमात्र के जीवन में प्रतिदिन घटित होते हुए देखे जाते हैं या जिनका मानव जीवन से सीधा संबंध है । इस प्रकार मनुस्मृति हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करने वाला ग्रंथ है । इस ग्रंथ के माध्यम से राजकीय व्यवस्था तो विकसित और मर्यादित होती ही है , साथ ही सामाजिक व्यवस्था भी सुव्यवस्थित रहकर मानव जीवन और अन्य प्राणियों के जीवन को भी सुरक्षा और संरक्षा प्रदान करती है।
मनु महाराज वेदों के प्रकांड विद्वान थे । अतः उन्होंने जो कुछ भी अपनी मनुस्मृति में प्रतिपादित किया , वह वेद विरुद्ध नहीं हो सकता । वेदों के विषय में यह भी सर्वमान्य सत्य है कि वेद सृष्टि के नियमों के अनुसार व्यवस्था प्रतिपादित करने वाले ग्रंथ हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि मनु महाराज ने जो कुछ भी अपने मनुस्मृति नामक ग्रंथ में प्रतिपादित किया , वह भी सृष्टि नियमों के विपरीत न होकर उनके अनुकूल ही होना चाहिए। यदि वेदों को हमारे विद्वानों ने सृष्टि का आदि ग्रंथ स्वीकार किया है तो मनुस्मृति को भी सृष्टि का आदि संविधान कहकर इसी सम्मानपूर्ण श्रेणी में रखकर उसका भी सम्मान किया गया है । इसके साथ-साथ मनु महाराज को आदि संविधान निर्माता कहकर उन्हें भी सम्मानित किया गया है । वास्तव में मनुस्मृति में मनु महाराज ने जिस प्रकार के ज्ञान गाम्भीर्य का परिचय दिया है , उसके दृष्टिगत यदि उन्हें सृष्टि का आदि संविधान निर्माता कहा जाता है , तो इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है ।
वैज्ञानिकों का और विद्वानों का मानना है कि भूमंडल पर मिलने वाला चींटी नामक प्राणी भी अपने यहां पर एक सामाजिक व्यवस्था बनाकर रहता है । जिसमें उसका एक राजा या रानी भी होती है । इसके अतिरिक्त कुछ बौद्धिक नेतृत्व देने वाले लोग तो कुछ क्षत्रिय सैनिक ऐसे होते हैं जो आपत्ति के समय चीटियों के समूह की सुरक्षा करने में काम आते हैं । साथ ही कुछ ऐसे कर्मचारी भी होते हैं जो दूरदराज के क्षेत्रों से भोजन आदि का संग्रह करने का कार्य करते हैं। कुल मिलाकर वहां पर भी मनुस्मृति की व्यवस्था अर्थात वर्ण व्यवस्था लागू है। यही हम मधुमक्खियों के भीतर भी देखते हैं । अब जो लोग मनु की वर्ण व्यवस्था का मानव समाज में विरोध करते हैं , उन्हें यह बात बहुत सम्भव है कि गले से नहीं उतर पाएगी कि मनु की राजव्यवस्था और सामाजिक वर्ण व्यवस्था तो अन्य प्राणियों के समूहों में भी पाई जाती है ।

कर्माशय

मनुष्य जितने भी कर्म करता है उन सबका ईश्वर के यहां हिसाब रहता है। और नित्य प्रति क्षण – प्रतिक्षण का हिसाब रहता है । किस जीव ने किस जन्म में क्या-क्या कर्म किए हैं ? इन सबका भंडार ईश्वर के पास रहता है और उसी के अनुसार उस जीव का अगला जन्म योनि और आयु निश्चित होती है । जिससे प्रारब्धऔर भाग्य बनता है। कर्म से ही मनुष्य के अंतःकरण में भाव उत्पन्न होते हैं। कर्म से ही मनुष्य अपना संसार सृजित करता है। तीनों गुण सत्व , रज और तम तीनों में से जिस प्रकृति का भी कार्य मनुष्य करता है , यह सभी उसके कर्माशय अर्थात कर्म भंडार में इकट्ठे होते रहते हैं।
अर्थात एक मनुष्य द्वारा कृत कर्मों से ही उसका कर्माशय बनता है। मनुष्य के द्वारा संचित कर्मों में से कुछ का कर्मफल फलीभूत होता है जो शेष बचते रहते हैं उन संचित कर्मों से करमाशय से बनता है।
इन्हीं संचित कर्मों के आधार पर मनुष्य का प्रारब्ध और भाग्य बनता है । इस जगत का प्रत्येक कार्य किसी न किसी कारण से जुड़ा है। इसलिए जीवात्मा के कर्मों के विधान में भी कार्य और कारण का संबंध है। व्यक्ति ने कोई कार्य किया , चाहे वह पाप कर्म हो या पुण्य कर्म उसका कारण क्या है ? कारण व्यक्ति के अपने संस्कार हैं ।इसलिए भारतीय तत्वज्ञानियों ने कारण के शुद्धिकरण को हमेशा ही महत्व प्रदान किया है। साधना ,सत्संग, आत्मचिंतन से व्यक्ति की प्रकृति बदलती है। उसके संस्कार बदलते हैं ।यह सकारात्मक परिवर्तन ही उसे ईश्वरोन्मुख करता है। और अपने पाप और पुण्य कर्मों के रूप में फलित सुख-दुख का भोग भोगने व्यक्ति की अनिवार्य बाध्यता है ।इसलिए विपत्तियां और दुखों से हमें घबराना नहीं चाहिए। पूरी तरह से कर्मों का भोग भोगने के बाद साधक का कर्माशय जब शून्य हो जाता है तब वह मुक्ति का अधिकारी होता है।

संगठित रहें

एक कहानी बचपन में पढ़ी थी। चार बैल थे एक जंगल में। वहीं एक शेर भी था। चारों बैल एक साथ रहते थे। जब तक चारों बैल एक साथ होते थे तो शेर आक्रमण नहीं कर सकता था। एक दिन शेर ने सोचा एक बैल के कान में रोककर के कुछ कहा जाए। उसने अपनी योजना को फलीभूत किया । एक बैल को रोककर के उसके कान में कुछ कहने का नाटक करते हुए वह कुछ भी न कहकर वह चला गया।
अन्य बैलों ने उस बैल से पूछा कि शेर आपके कान में क्या-क्या कह गया ? बैल सत्य बोलता है , कहता है कि शेर ने मुझे कुछ नहीं कहा । इस पर अन्य तीन बैल उससे कहने लगे कि नहीं , उसने आपके कान में कुछ कहा है। इस तरीके से आपस का विश्वास जो था वह भंग हुआ और जो उनका संघ था वह भी भंग हुआ। जब संघ भंग हुआ तो चारों मारे गए । उसी शेर ने चारों को अलग-अलग करके मार दिया।
यह कहानी केवल एक पाठ प्रदान करती है कि मनुष्यों को संग संग रहकर संघ बनाना चाहिए तभी सुरक्षित रह सकते हैं। इसलिए अपने लोगों से अर्थात अपने परिजनों से और प्रियजनों से कभी भी बिगाड़ो मत । उनके साथ संघ बनाए रखो।
क्योंकि कहते हैं कि संघे शक्ति कलियुगे। अर्थात कलयुग में संग संग रहना ही शक्ति है।
विचार करते हैं तो यह कलयुग के लिए क्यों कहा गया ? फिर अन्य तीनों युगों में क्या संग संग रहने की आवश्यकता नहीं थी , कलयुग में ही क्यों ?
कलयुग में इसलिए कि सतयुग में मनुष्य आत्मा प्रधान था अर्थात आत्मा के अनुसार कार्य करता था , आचरण करता था और आत्मा क्योंकि पवित्र होता है और ईश्वर के अंश होते हुए उसके अधिक समीप में रहता है , इसलिए पाप की संभावना नहीं है अर्थात अध्यात्म का प्रभाव अधिक रहता है।
सतयुग के बाद त्रेता में मनुष्य आत्मा प्रधान नहीं रहा बल्कि उसकी अवन्नति हुई और वह मन के अधीन हो गया अर्थात मन प्रधान हो गया। मन क्योंकि चलायमान होता है और वह मनुष्य को पाप की तरफ लगाने में भी लगा रहता है । इंद्रियों का राजा मन होता है इसलिए इंद्रिय आपकी तरफ मनुष्य को ले चलती हैं इसीलिए अधोगति का मार्ग तैयार हो जाता है।
इसके बाद तीसरा युग द्वापर है। जिसमें व्यक्ति शरीर प्रधान माना जाता है। इस युग में शत्रुता होते हुए भी हत्या या अपराध कम था ,लेकिन फिर भी द्वापर में और अधिक अवन्नति हुई।
परंतु अब कलयुग में मनुष्य अन्न प्रधान है। अन्न की प्रधानता होने के कारण पूजा, साधना और उपासना में विश्वास नहीं रहा और संघ बनाकर हर समस्या का समाधान निकालना चाहता है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version