इतिहास का सच : सिल्क रोड नहीं ,भारत का उत्तरापथ
लेखक:- रवि शंकर,
कार्यकारी संपादक, भारतीय धरोहर
चीनी साम्राज्यवादी ओबोर बनाम भारतीय सहकारवादी ओसोर
ओबोर यानी वन बेल्ट वन रोड। वन रोड यानी सिल्क रोड। यह बड़ी हैरतअंगेज बात है कि चीन ने एक रूट को रोड बना दिया। सिल्क रोड कोई जगह नहीं थी सिल्क रूट था। यह कोई एक सड़क, एक सड़क पर लगने वाला एक बाजार या फिर किसी एक बाजार से होकर गुजरने वाली एक सड़क भर नहीं थी। बल्कि यह एक पूरा इलाका था जिसमें छोटे-छोटे ढेर सारे बाजार थे और ढेर सारी सड़के थी। यह मार्ग चीन और रोम के बीच के व्यापार का मार्ग भर नहीं था यह मार्ग विश्व के एक बड़े इलाके को आपस में जोड़ता था जिसमें चीन और रोम के अलावा भारत और कई देश आते थे। इसका कोई प्रारंभ बिंदु नहीं था जैसा कि आज चीन को इस का प्रारंभ बिंदु माना जाता है। इसका कोई अंतिम स्थल भी नहीं था जैसा कि आज रोम को इसका अंतिम स्थल बता दिया जाता है। सिल्क रूट की एक और विशेषता थी और यह विशेषता थी उसका एक खास संस्कृति का अनुगामी होना। यह संस्कृति थी भारत की। वास्तव में यह पूरा इलाका भारतीय संस्कृति के आदर्शों को मानने वाला था।
इसलिए ओबोर यानी कि वन बेल्ट, वन रोड का चीनी नारा तो झूठा है। इसका सही नारा होना चाहिए ओसोर यानी कि वन कल्चर, वन रिजियन। यह नारा भारत को देना चाहिए। ओबोर का चीनी नारा स्वभावत: साम्राज्यवादी तथा शोषणकारी पूंजीवादी प्रतीत होता है, जबकि ओसोर का भारतीय नारा मानवीय, शांतिकारक और सद्भाव तथा संवाद पैदा करने वाला होगा। इस बात को समझना हो तो हमें सिल्क रोड की वास्तविकता, इतिहास और भूगोल को समझना होगा। जिसे हम सिल्क रोड आज कह रहे हैं, उस पूरे इलाके की संस्कृति, राजनीति और भौगोलिक स्थिति पर ध्यान देना होगा। इस पूरे इलाके में भारत और चीन के ऐतिहासिक प्रभावों का अध्ययन करना होगा। तभी हम समझ पाएंगे कि ओबोर का नारा साम्राज्यावादी है, ओसोर का नारा मानवतावादी।
नाम ही झूठा
सबसे पहले तो हमें यह समझना चाहिए कि सिल्क रूट हो या फिर सिल्क रोड, यह नाम ही मिथ्या है। इस मार्ग को यह नाम अभी हाल में उन्नीसवीं शताब्दी में वर्ष 1877 में एक जर्मन भूगोलवेत्ता फर्डिनेंड वॉन रिक्थोफेन ने दिया। सिल्क रोड शब्द प्रयोग करने वाला दूसरा व्यक्ति भी एक जर्मन भूगोलवेत्ता था। ऑगस्ट हरमन नामक इस भूगोलवेत्ता ने वर्ष 1915 में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था द सिल्क रोड्स फ्रॉम चाइना टू द रोमन एंपायर। जेम्स ए मिलवार्ड अपनी पुस्तक द सिल्क रोड, ए वेरी शॉर्ट इंट्रोडक्शन में लिखते हैं, ‘इसने एक और भ्रामक समझ को बढ़ावा दिया जो कि आज भी इसके साथ जुड़ी हुई है। इसके अनुसार इस मार्ग का महत्व केवल चीन और भूमध्यसागरीय घाटी यानी कि पूरब और पश्चिम को जोडऩे में है। परंतु केवल मार्ग के केवल दो छोरों पर ध्यान देने से कई बिन्दू गायब हो जाते हैं।
सबसे पहले तो इस यूरेशीय अंतरदेशीय व्यापार में सिल्क यानी कि रेशम का इतना अधिक महत्व नहीं रहा है। वास्तव में इस मार्ग पर अनेक सामानों, जिसमें पालतू घोड़ों, सूती वस्त्र, कागज और बारूद महत्वपूर्ण हैं, और विचारों का आदान-प्रदान होता रहा है जिनका कि रेशम से कहीं अधिक व्यापक प्रभाव पड़ा।Ó मिलवार्ड आगे बताते हैं कि हमें यह नहीं समझना चाहिए सिल्क रोड में केवल पूरब-पश्चिम का व्यापार शामिल था जो कि इस महाद्वीप के मध्य के मैदानी इलाकों में फैला था। ऐसा करके हम उन क्षेत्रों की उपेक्षा कर देंगे जिनमें प्रमुखत: उत्तरी भारत और आज का पाकिस्तान आते हैं और जो न केवल इस व्यापार का मुख्य केंद्र थे, बल्कि जिसका सूती वस्त्रों तथा बौद्ध विचारों के रूप में सामानों तथा विचारों के यूरेशियन आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण योगदान था।
प्रश्न उठता है कि क्या इससे पहले इस मार्ग का अस्तित्व नहीं था या फिर इस मार्ग का कोई नाम नहीं था? यदि हम अस्तित्व की बात करें तो इस मार्ग का अस्तित्व तो था। आखिर तभी तो रिक्थोफेन को इसका नामकरण करने की सूझी। तो क्या इस मार्ग का कोई नाम नहीं था? यूरोपीयों की बात करें तो संभव है कि उन्हें इसका नाम न पता हो, परंतु भारत की अगर हम बात करें तो भारत में इसका नाम था। यह नाम था उत्तरापथ। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत इस मार्ग का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी रहा है। चीन का तो इस पूरे व्यापार में बहुत ही छोटा सा हिस्सा हुआ करता था। मुख्य व्यापार भारत का था और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मुख्य राजनीतिक संरक्षण भी वर्षों तक भारत का ही रहा है। फिर रिक्थोफेन ने इसका नया नामकरण करने की आवश्यकता क्यों महसूस की होगी, वह भी ऐसा नाम जिससे इस मार्ग में चीन की प्रमुखता दिखने लगे? वास्तव में यूरोप भारत को दबाने और चीन को उभारने के लिए ऐसा कर रहा था।
सिल्क रूट या रोड या फिर हिंदी में कहें तो रेशम मार्ग का नाम सुनने से लगता है कि इस मार्ग से प्रमुख व्यापार रेशम का होता रहा होगा। रेशम का प्रारंभिक तथा प्रमुख उत्पादक चीन रहा है। भारत में भी रेशम चीन से ही आया है। चीन का वातावरण रेशम के उत्पादन के लिए सर्वाधिक अनुकूल है। आचार्य चाणक्य ने भी अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में चीन से रेशम का व्यापार करने की बात लिखी है। परंतु इस मार्ग पर होने वाले व्यापार में रेशम का हिस्सा कितना रहा होगा? इसका अनुमान हम इस बात से लगा सकते हैं कि रेशम का तत्कालीन और आज के जन-जीवन में भी कितनी भूमिका है?
रेशम आज भी एक विलासिता की वस्तु ही है। सामान्यत: अमीर लोगों के प्रयोग का वस्त्र। साधारण और गरीब लोग रेशम को निहार तो सकते हैं, परंतु पहन नहीं सकते। प्राचीन काल में तो रेशम भारत के अलावा यूरोप सहित अन्य सभी इलाकों के लिए अत्यंत ही मंहगा वस्त्र था। मिश्र और रोम के छोटे से इलाके को अगर हम छोड़ दें तो मध्य एशिया, यूरोप और अफ्रीका के लोगों की हालत इतनी खराब थी कि उन्हें तो सूती वस्त्र भी प्राप्त नहीं थे। ऐसे में हम सोचें कि मात्रा के हिसाब से रेशम व्यापार की सबसे प्रमुख वस्तु रही होगी तो हम मूर्ख ही कहे जाएंगे। इसलिए यह देखना आवश्यक है कि इस मार्ग से और किन किन वस्तुओं का व्यापार होता था।
इस मार्ग से होने वाले व्यापार की प्रमुख वस्तुएं थीं, सभी प्रकार के वस्त्र, जिसमें सूती वस्त्र बड़ी मात्रा में थे, मसाले, नील, शक्कर, चावल और घोड़े-गाय जैसे पशु आदि। यदि हम अलबिरूनी से लेकर प्लीनी द जूनियर तथा सीनियर तक के प्राचीन वर्णनों को पढ़ें, तो हमें ज्ञात होगा कि मिश्र और रोम के लिए भारत के सूती वस्त्र तथा मसाले की बड़े आकर्षण का विषय थे। इन दोनों ही वस्तुओं की केवल मिश्र और रोम ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में बहुत मांग थी। प्लीनी से लेकर बर्नियर तक लिखते हैं कि भारतीय मसालों के कारण पूरी दुनिया का सोना और चाँदी भारत में आकर एकत्र हो जा रहे हैं। बर्नियर तो लिखता है कि भारत के पास व्यापार करने के लिए मसाले और वस्त्र हैं, परंतु ऐसा कुछ नहीं है जो वह बाहर वालों से ले। भारत के बाहर ऐसा कुछ होता ही नहीं है जिसका भारत में अभाव हो। ऐसे में भारत से व्यापार करने के लिए सोना और चाँदी ही एकमात्र विकल्प बचता है। हम इसे व्यावहारिक रूप में भी देख सकते हैं। भारत को सोने की चिडिय़ा कहा जाता रहा है, परंतु भारत में सोने का उत्पादन अधिक नहीं होता। फिर यह सोना आता कहाँ से था? यह सोना भारत में व्यापार के द्वारा दुनियाभर से आता था।
भारतीय व्यापारियों का एकाधिकार
कहा जा सकता है कि भारत इस व्यापार में सामानों की आपूर्ति भले ही करता रहा हो, परंतु व्यापार पर तो चीन और अन्य देशों का ही कब्जा रहा होगा। परंतु यह बात भी सच नहीं है। अत्यंत प्रारंभिक काल से ही इस पूरे इलाके में भारतीय व्यापारियों के लंबे काफिलों का एकाधिकार रहा है। व्यापार के मामले में भारतीयों का न तो पहले कोई सानी रहा है और न ही आज है। उन्नीसवीं शताब्दी तक विश्व व्यापार में भारतीय व्यापारी प्रमुख भूमिका में रहे हैं। स्कॉट सी. लेवी की पुस्तक कारवाँ, हिंदू मर्चेंट्स ऑन द सिल्क रोड, की भूमिका में गुरुचरण दास लिखते हैं, ‘हिंदू व्यापारी मध्य एशियायी अर्थव्यवस्था के केंद्रबिंदू थे। वे रोपाई के मौसम में रोपाई के लिए किसानों को ऋण दिया करते थे, कटाई के मौसम में उनकी फसल खरीदा करते थे और उनके परिवहन की भी व्यवस्था करते थे। स्थानीय शासक उनकी इन सेवाओं का काफी सम्मान करते थे, जिनके कारण उनकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ रहती थी और करों का संग्रह बढ़ता था। इसके बदले में शासक भारतीय व्यापारियों को अपने शिविरनुमा काफिले में शांति और सम्मान से रहने की सुविधा देते थे, जहाँ वे होली-दिवाली जैसे त्योहार मनाते थे। उनके साथ ब्राह्मण भी होते थे जो सारे कर्मकांड करवाते थे। इनकी केवल एक परंपरा से स्थानीय कठमुल्ले मुसलमानों को समस्या थी – मृतकों का अंतिम संस्कार करने की परंपरा। इसलिए बुखारा के अमीर ने श्मसान के पास सेना की एक टुकड़ी तैनात कर रखी थी, ताकि कोई उन्हें परेशान न कर पाए।Ó
इसके आगे गुरुचरण दास लिखते हैं, ‘बुखारा के उज्बेक खानों ने अपने प्रशासन में एक पद ही बना दिया था यसावुल ई हिंदुआन – हिंदुओं का रक्षक जिसका काम था हिंदू व्यापारियों के कल्याण की चिंता करना और बहुसंख्यक असहिष्णु मुसलमान समुदाय को दिए गए कर्ज की वसूली में उनकी सहायता करना। फारसी सफाविद साम्राज्य (1501-1722) ने भी समान रूप से हिंदू व्यापारियों और उनके काफिले की रक्षा की और मुस्लिम लोगों के बीच रहते हुए उन्हें अपने रीति-रिवाजों का पालन करने की छूट दी।Ó समझने की बात यह है कि ऐसा केवल व्यापार के कारण नहीं होता था। मुस्लिम शासक केवल धन के लिए हिंदुओं को अपनी परंपराओं के पालन की छूट नहीं देते थे। उन पर अभी तक इस्लाम के कट्टरवादिता का प्रभाव अधिक नहीं हो पाया था और वे भारतीय उदात्त परंपरा के अनुसार ही व्यवहार कर रहे थे। जब शासकों पर भी इस्लामी कट्टरता का प्रभाव बढ़ा तो केवल ईरान के इस्फाहान में 25 हजार हिंदू व्यापारी मारे गए।
इस पूरे विवरण से कई बात साफ हो जाती है। पहली बात तो यह कि भारतीयों का इस व्यापार क्षेत्र पर लंबे समय तक कब्जा रहा है और वे भारतीय अधिकांशत: हिंदू ही थे। दूसरी बात यह कि वे अपने काफिले के साथ ब्राह्मणों को भी लेकर चलते थे और अपने त्यौहार आदि भी मनाते थे। इसका तात्पर्य हुआ कि वे केवल घुमंतु लोग नहीं थे। व्यापार के लिए वे घूमते भी थे, परंतु डेरा डाल कर भी रहते थे। इसका एक और प्रमाण श्मसानों का होना है। श्मसान होते थे ताकि लंबे समय रहने पर लोगों की मृत्यु भी होती थी और वे भारत वापस आने की बजाय वहीं उनका अंतिम संस्कार करते थे। श्मसानों की स्थाई व्यवस्था ही रही होगी, तभी वहाँ सेना की टुकड़ी रखी गई थी।
यहाँ ध्यान देने की बात यह भी है कि बुखारा उज्बेकिस्तान में आता है, जो कि कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा है। वास्तव में यदि हम कथित सिल्क रोड का नक्शा देखें तो इसका अधिकांश हिस्सा चीन के बाहर ही है, चीन के अंदर तो इसका कठिनाई से 10 प्रतिशत भाग ही होगा। कथित सिल्क रोड का बड़ा भाग चीन से बाहर ही रहा है और उस पूरे भाग पर भारतीय व्यापारियों का अधिकार रहा है। उन इलाकों में अलग-अलग कालखंड में अलग-अलग वर्गों का शासन रहा है। प्राचीन काल में यानी कि सातवीं-आठवीं शताब्दी में इस्लाम के प्रादुर्भाव और विस्तार से पहले तक इस पूरे इलाके में भारतीय राजाओं का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शासन रहा है। इस्लाम के विस्तार के बाद जब यहाँ की जनता और शासकों का मतांतरण हो गया, तब भी इस पूरे इलाके में लंबे समय तक एक प्रकार का सांप्रदायिक सद्भाव बना रहा है। इसका एक बड़ा कारण रहा है भारतीय उदात्त जीवनमूल्यों का इस पूरे इलाके में प्रभाव। पहले सनातन भारतीय परंपरा और फिर उसी परंपरा को आगे बढ़ाती बौद्ध परंपरा के प्रभाव में मध्य एशिया और यूरेशिया के पूरे इलाके में शांति और सद्भाव का वह वातावरण बना रहा जिसमें व्यापार खूब फला-फूला।
चीनी सिल्क रोड नहीं, भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र
ध्यान देने की बात यह है कि जिसे आज कथित सिल्क रोड के चीनी पहचान से जाना-पहचाना जा रहा है, वह पूरा इलाका कभी चीन में रहा ही नहीं है। चीनी तूर्किस्तान के नाम से प्रसिद्ध सिक्यांग आदि जो इलाके आज चीन में हैं, वे भी वर्ष 1945-50 के पहले कभी चीन में नहीं रहे। यदि हम विभिन्न शताब्दियों में चीन के नक्शे को देखें तो 220 ईसा पूर्व के हान राजवंश से लेकर चौदहवीं शताब्दी में युवान राजवंश के ठीक पहले तक ये सारे इलाके भारतीय प्रभावक्षेत्र में ही रहे हैं। युवान राजवंश भी वास्तव में चीनी राजवंश नहीं है, वह मंगोल राजवंश है और उस काल में चीन मंगोलों का गुलाम था। यहाँ हमें यह भी समझना चाहिए कि चीन की यह गुलामी भारत में इस्लामी शासन से नितांत भिन्न था। एक तो पूरे भारत में कभी इस्लामी शासन नहीं रहा। दूसरे, भारत में इस्लामी शासन के दौरान भी भारत का जनमानस कभी गुलाम नहीं हुआ और यहाँ के राजवंश भी हमेशा उनसे स्वाधीनता हेतु लड़ते रहे और तीसरे, शासन के अलावा व्यापार, उत्पादन, खेती, साहित्य, धर्म तथा दर्शन सभी कार्य स्वतंत्र रीति से चलते रहे। चीन की हालत ऐसी नहीं थी। उसके संपूर्ण जीवन पर मंगोलों का गंभीर प्रभाव रहा। खेती-व्यापार से लेकर धर्म-दर्शन तक पर मंगोलों की सत्ता ने गहरा प्रभाव डाला।
इसलिए चीन जिस इतिहास के बल पर कथित सिल्क रोड पर अपने प्रभावक्षेत्र की बात कर रहा है, वह वास्तव में गुलाम चीन के मंगोल राजवंश का प्रभाव रहा है। दावा किया जाता है कि लगभग 220 ईसा पूर्व में हान राजवंश के समय में चीन ने इस व्यापारिक मार्ग को विकसित किया। यदि हम हान राजवंश के समय के चीन का नक्शा देखें तो साफ हो जाता है कि उस समय चीन की सीमाएं तिब्बत और तत्कालीन खोतान यानी कि वर्तमान सिक्यांग से कहीं पीछे सिकुड़ी हुई थीं। इसी काल में बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा के लिए चीन अपनी महान दिवाल बना रहा था। उन दिवालों को देखें तो पता चलता है कि उस काल में चीन की सीमाएं काफी संकुचित रही हैं और उस पूरे काल में चीन बाहरी आक्रमणों से रक्षा में ही परेशान और व्यस्त है। ऐसे में वह कोई व्यापारिक मार्ग और वह भी पूरे यूरेशिया के क्षेत्र में विकसित कर दे, यह मूर्खतापूर्ण प्रलाप ही जान पड़ता है। सच्चाई यह है कि उस पूरे काल में यूरेशिया के इस इलाके में भारतीय राजवंशों का जबरदस्त प्रभाव रहा है।
आधुनिक कालगणना के अनुसार भारतीय कुषाण राजवंश का काल पहली से चौथी शताब्दी का है। कुषाणों के काल में यूरेशिया के लगभग इलाकों में भारतीय सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव रहा है। हालांकि चीन के इतिहासकारों और स्रोतों का दावा है कि कुषाण एक चीनी समुदाय यू ची मूल के हैं, परंतु कुषाणों का सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल भारतीय ही है। यह हम आज देख सकते हैं कि हानवंशी चीन की संस्कृति किस प्रकार साम्राज्यवादी और असहिष्णु है, तिब्बती हों या उइगर, मंगोल हों या फिर मांजू चीन की संस्कृति प्रारंभ से विस्तारवादी ही रही है। उसकी कठिनाई यह रही है कि अधिकांश समय चीन विभिन्न पड़ोसी ताकतों से हारता ही रहा है, चाहे वे मांचू रहे हों, या मंगोल रहे हों या फिर मध्य एशियायी तूर्क। पहली बार यूरेशिया के संपर्क में चीन तेरहवीं शताब्दी में मंगोलों के चीन पर अधिकार करने और पूरे यूरेशिया में साम्राज्य विस्तार करने के बाद ही आया है। उससे पहले चीन का सीधा संपर्क बिल्कुल भी नहीं रहा है। वह हमेशा अपनी सुरक्षा में ही व्यस्त रहा है व्यापारिक मार्ग विकसित करना तो दूर की बात है। उससे पहले चीन का जो भी संपर्क रहा है, वह भारत के रास्ते ही रहा है।
इसलिए चीन जिस इतिहास के बल पर कथित सिल्क रोड पर अपने प्रभावक्षेत्र की बात कर रहा है, वह वास्तव में गुलाम चीन के मंगोल राजवंश का प्रभाव रहा है। यह भी हमें जानना चाहिए कि मंगोल दिखने में भले ही चीनी जैसे हों, उनकी संस्कृति पर भारतीय प्रभाव काफी गहरा और दर्शनीय है। मंगोल सम्राट चंगेज खाँ से लेकर कुबलाई खाँ तक सभी भारतीय उदात्त जीवनमूल्यों को ही प्रश्रय देते आए हैं। इसलिए मध्य एशिया के इस व्यापारिक पथ, उत्तरापथ पर कभी भी भारतीयों और हिंदुओं को किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा और वे चीन से लेकर पश्चिमोत्तर में रूस, मध्य में ईरान, अरब और दक्षिण-पश्चिम में भूमध्यसागरीय यूरोपीय देशों और अफ्रीका तक निर्बाध व्यापार करते रहे। इस पूरे इलाके में भारतीय हिंदू प्रभाव के अनेक सूत्र पुरातात्विक खुदाई में भी प्राप्त होते रहे हैं। मंगोलिया और सिक्यांग के इलाके की चर्चा भारतीय धरोहर के नवंबर-दिसंबर, 2016 के अंक में विस्तार से की जा चुकी है। यूरेशिया के क्षेत्र में भारत के सांस्कृतिक प्रभाव को भी आसानी से देखा जा सकता है।
एक सड़क नहीं, एक संस्कृति
वास्तव में सिल्क रोड को एक रोड के रूप में देखने से यही समस्या आती है। इसे हमें एक क्षेत्र के रूप में ही देखना होगा। जब हम इसे एक क्षेत्र के रूप में देखेंगे तो केवल व्यापार महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा, बल्कि विचारों और संस्कृतियों का परस्पर जुड़ाव तथा विनिमय अधिक महत्व की वस्तु होंगे और इसमें चीन का योगदान शून्य ही है। जो भी योगदान है, वह भारत का है। इसी बात को वैलेरी हानसेन अपनी पुस्तक द सिल्क रोड ए न्यू हिस्ट्री में लिखती हैं, ‘इन कागजातों से मुख्य खिलाडिय़ों, व्यापार की सामग्रियों, काफिलों के आकार और इस व्यापार के मार्ग में पडऩे वाले स्थानीय लोगों पर होने वाले प्रभाव को समझना संभव हो पाता है। ये सिल्क रोड के वृहत्तर प्रभावों को भी स्पष्ट करती हैं, विशेषकर आस्था संबंधी विश्वासों और तकनीकों जिन्हें अपने युद्ध-जर्जर इलाकों से भाग कर आए हुए विस्थापित लोग अपने साथ लेकर आए। …भारत में जन्मे बौद्ध मत जो चीन में काफी लोकप्रिय हो चुका था, का निश्चित ही सबसे अधिक प्रभाव था, परंतु बेबीलोन के मैनिकेइज्म, जरथ्रुष्टवादियों तथा सीरीया के पूर्वी ईसाई चर्च का भी थोड़ा बहुत प्रभाव था।Ó हानसेन लिखती हैं कि इस्लाम के उदय के पहले तक इस पूरे इलाके के विभिन्न समुदायों के लोग एक-दूसरे के आस्थाओं के प्रति आश्चर्यजनक रूप से सहिष्णु थे। शासक व्यक्तिगत रूप से किसी मत को छोड़ कर कोई दूसरा मत स्वीकार करते थे और वे अपनी प्रजा को उनका अनुशरण करने के लिए प्रोत्साहित भी करते थे, परंतु वे अन्य मतावलम्बियों को भी उनकी रिवाजों का पालन करने की पूरी छूट देते थे।
यह सहिष्णु परंपरा भारत की है और यहाँ से ही पूरे यूरेशिया में फैली थी। यूरेशिया के इस इलाके में भारत के बाद दूसरा प्रमुख सांस्कृतिक प्रभाव सोगदियानों का रहा है। सोगदियान वास्तव में वर्तमान उज्बेकिस्तान के प्रसिद्ध शहर समरकंद के थे। उनका मूल और आगे ढूंढने पर ईरान तक पहुँचता है। ईरान मूलत: भारतीय संस्कृति का ही एक भाग रहा है। अधिकांशत: सोगदियान लोग जरथुस्त्र के मतानुयायी रहे हैं। जरथुस्त्र प्रकारांतर से वैदिक मत ही है। जेंदावेस्ता का मूल ऋग्वेद है, यह आज किसी से भी छिपा नहीं है। उनके बारे में वर्णन करते हुए हानसेन लिखती हैं, ‘वे एक ईरानी भाषा सोदियान बोलते थे, और अधिकांश लोग प्राचीन ईरानी गुरु जरथुस्त्र की शिक्षाओं का पालन करती रही है जिसका कहना था कि सत्य सबसे महान गुण है। सिक्यांग में संरक्षण की अस्वाभाविक परिस्थितियों के कारण सोगादियानों और उनके मत के बारे में जानकारी उनके मूलस्थान की बजाय चीन में सुरक्षित रही।
इस प्रकार हम पाते हैं कि यूरेशिया के पूरे इलाके में भारतीय संस्कृति ही अपने विभिन्न रूपों में छाई हुई थी। यह संस्कृति परस्पर सहकार की संस्कृति थी और इस सहकार के कारण इस पूरे इलाके में व्यापार फल-फूल सका था। यह स्थिति लगभग अ_ारहवीं शताब्दी तक रही है। अ_ारहवीं शताब्दी तक पूरे यूरेशिया में हिंदू व्यापारियों के टोले बसे हुए थे। आज के अफगानिस्तान से लेकर ईरान और रूस तक उन्हें शासकीय संरक्षण मिलता था। इस परस्पर सहकारवादी संस्कृति का लोप होते ही यूरेशिया के इलाके में अशांति था गई और उसके कारण व्यापार नष्ट हो गया। प्रारंभ में इस्लामी कट्टरपंथियों और कालांतर में कम्यूनिस्टों के उभार ने इन इलाकों के शानदार व्यापारिक इतिहास को समाप्त कर दिया।
रणनीति और संभावनाएं
वर्ष 1917 की रूसी क्रांति के बाद उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान, किर्गीस्तान, बेलारूस, उक्रेन आदि देश सोवियत संघ में शामिल कर लिए गए थे। परंतु इससे इन देशों की स्थिति सुधरी नहीं, उलटे उनकी स्थिति और खराब हुई। वर्ष 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ और कुल 15 देश अलग-अलग हो गए। देश तो अलग-अलग हो गए, परंतु वे अपनी उस साझी विरासत से अभी तक नहीं जुड़ पाए हैं, जिसके वे उत्तराधिकारी हैं। यह वही साझी विरासत है जो आज से केवल तीन सौ वर्ष पहले उनकी पहचान हुआ करती थी। उसी पहचान को पाने की छटपटाहट में वे अलग देश तो बन गए हैं, अब आवश्यकता है कि वे अपनी उस पहचान को भी जीवित करें। इस काम में उनकी सहायता भारत कर सकता है। उसने पहले भी यह काम किया है। यह काम चीन नहीं कर सकता। वह वन बेल्ट वन रोड के नाम पर केवल शोषण कर सकता है। तिब्बत और सिक्यांग की हालत हम देख सकते हैं। दोनों ही इलाकों की उनकी अपनी पहचान को समाप्त करने का एक षड्यंत्र चल रहा है। चीन उनकी अपनी पहचान को मजबूत नहीं कर रहा, वह उसे नष्ट करने का प्रयास कर रहा है।
इसलिए आज की आवश्यकता है कि ओबोर का भारत विरोध करे, परंतु इसका उद्देश्य केवल अपनी सामरिक रक्षा न हो। वह इस पूरे इलाके की साझी पहचान जोकि सभी के हित में थी, को पुनर्जीवित करे। इसके लिए वन कल्चर वन रिजियन का, ओसोर का नारा देने की आवश्यकता है। कैस्पियन सागर के तटों से लेकर मंगोलिया तक के यूरेशिया के इलाके में एक बार फिर से उसी सहकारवादी, मानवतावादी और पंथनिरपेक्ष वातावरण बनाने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए।
संदर्भ :
1. द सिल्क रोड: ए वेरी शार्ट इन्ट्रोडक्शन, जेम्स ए मलिवार्ड,
2. कारवाँ: हिंदू मर्चेंट्स ऑन सिल्क रोड, स्कॉट सी लेवी
3. द सिल्क रोड: ए न्यू हिल्ट्री, वेलेरी हानसेन
4. द सिल्क रोड: ए न्यू हिस्ट्री ऑफ द वल्र्ड, पीटर फ्रैंकोपैन
5. इंडिया एंड सेंट्र्ल एशिया, बी.बी. कुमार एंड जे.एन. रॉय
6. बृहत्तर भारत, चंद्रगुप्त वेदालंकार
7. www.wikipedia.com
8. www.ancient.au
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