डॉ. साहब समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। उन्होंने भारत की वित्तीय सेवाओं में रहते हुए तो सेवा की ही है साथ ही अब भी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियों में सक्रियता से भाग लेते हैं और जीवन के अंतिम पड़ाव में भी बड़ी तन्मयता से राष्ट्रसेवा का पुनीत कार्य कर रहे हैं।
पिछले दिनों उनकी सहधर्मिणी का स्वर्गवास हो गया। मैं न चाहते हुए भी देरी से उनके आवास पर पूज्या माताजी को अपनी श्रद्घांजलि अर्पित करने गया। उनके पास समाज के कई वरिष्ठ लोग और राजनीतिक हस्तियां बैठी थीं। उनकी सूनी सूनी आंखें यद्यपि कहीं कुछ तलाश रही थीं लेकिन वह बड़ी सावधानी से अपनी आंखों की तलाश को छिपाने का प्रयास कर रहे थे और लोगों को अपने दिल के दर्द का तनिक भी अहसास नही होने दे रहे थे। मैं उनके पास बैठा बैठा उन्हें पढ़ रहा था और उनकी समझदारी का कायल हो रहा था। उन्हें पता था कि ये आने जाने का क्रम एक औपचारिकता भर है, धीरे धीरे उठेगी वक्त की आंधी और ये सब चीजें उस आंधी में मिटकर रह जाएंगी। यदि कहीं शेष होंगी तो किसी उसी दिल में शेष रह जाएंगी जिसने उन यादों को अपने दिल की माला बनाकर रख लिया है। तभी उनसे एक व्यक्ति ने पूछ लिया कि अब आपके साथ इस इतने बड़े भवन में कौन रहेगा? मैंने डा. साहब की ओर देखा। मैं भी इस प्रश्न को लिए ही बैठा था। मेरी बात दूसरे ने कह दी, तो मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिलने की सी उत्सुकता हुई। इस प्रश्न पर डा. साहब का चेहरा गंभीर हो गया। मुझे लगा वह कहीं नीचे सागर में उतर गये हैं। कुछ देर बाद उत्तर का मोती तलाश कर वह ऊपर आए से लगे और बड़ी गंभीरता से कहने लगे-‘अब मेरे साथ इस भवन में एक अनंत शक्ति रहेगी।
डा. साहब का जवाब मेरे कलेजे को बींध गया। जवाब में दर्द था, एक सच था, इस समाज के चेहरे को और सच को उन्होंने बड़ी सावधानी से अपने जवाब में स्थान देकर व्यक्त किया था।
वृदावस्था में माता पिता के पास आज संतान को रहने का समय नही है। माता पिता एक बोझ बन गये हैं। सभ्य समाज का ढिंढोरा पीटने वाला ये निर्मम समाज अपने बड़ों को अपने आप काट रहा है इसलिए प्रेम और ममता का सागर सूखता जा रहा है। अस्सी वर्ष की अवस्था में एक अकेला आदमी कह रहा है, कि अब मेरे साथ एक अनंत शक्ति रहेगी, वही मुझे शक्ति देगी। क्योंकि वह नही कह सकता कि आज की संतान के पास तो समय नही है और ना ही रिश्तों के प्रति गहरी संजीदगी दिखाना सभ्यता में आता है, इसलिए अनंत शक्ति पर भरोसा करना ही उचित है। मैं उन्हें अपने सहयोग और जल्दी जल्दी आकर उनसे आशीर्वाद लेने का आश्वासन देकर वहां से चल दिया। लेकिन निर्मम समाज के प्रति वृद्घों में बढ़ता अविश्वास का भाव और उनकी हो रही दुर्दशा के दृष्टिïगत उनका कथन कि अब मेरे साथ इस भवन में एक अनंत शक्ति रहेगी, मेरे कानों से गूँजता रहा। मैं अब भी अब भी इस प्रश्न का उत्तर खोज रहा हूं।