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अधिकार से पहले कर्तव्य ,अध्याय — 1 , भारत की शिक्षा प्रणाली और कर्तव्य

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अधिकार से पहले कर्तव्य ——— अध्याय 1

 

प्राचीन काल में भारत की शिक्षा प्रणाली गुरुकुलों के माध्यम से संचालित होती थी। चिकित्सा और शिक्षा दोनों नि:शुल्क देने की व्यवस्था हमारे ऋषि पूर्वजों ने अनिवार्य की थी । गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली की यह परम्परा पर्याप्त अवरोधों के उपरांत भी भारत में न्यूनाधिक 1850 ईसवी तक काम करती रही । 1835 ई0 में लार्ड मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली के पश्चात धीरे-धीरे गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में घुन लगने लगा। यद्यपि महर्षि दयानन्द जैसे महापुरुषों के कारण लार्ड मैकाले की शिक्षा प्रणाली का विरोध करने वाले लोग भारत में बड़ी संख्या में उत्पन्न हो गये । जिन्होंने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति का बहिष्कार किया।

मनुष्यत्व से देवत्व की साधना

भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली किस प्रकार के समाज का निर्माण करती थी इस पर मैथिलीशरण गुप्त जी की यह पंक्तियां पड़ा सार्थक प्रकाश डालती हैं :-
” वे मोह-बन्धन-मुक्त थे, स्वच्छन्द थे, स्वाधीन थे;
सम्पूर्ण सुख-संयुक्त थे, वे शान्ति-शिखरासीन थे ।
मन से, वचन से, कर्म्म से वे प्रभु-भजन में लीन थे,
विख्यात ब्रह्मानन्द – नद के वे मनोहर मीन थे॥

उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असम्भव नापना,
की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश-स्थापना ।
पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जानो रुक गया,
वे झुक गये जिस ओर को संसार मानो झुक गया॥”

भारत की गुरुकुल शिक्षा प्रणाली पूर्णतया मनुष्य को मनुष्यत्व से देवत्व की साधना में ढालने के लिए थी । इसका आध्यात्मिक पक्ष कहीं अधिक प्रबल था । यद्यपि यह मानव जीवन के भौतिक पक्ष पर भी पूरा ध्यान देती थी । किसी भी कारण से व्यक्ति का नैतिक पतन न हो और वह आध्यात्मिक उन्नति की ओर भी सदैव अग्रसर रहे , इसलिए यह शिक्षा प्रणाली कर्तव्य परायण मनुष्य निर्माण के लिए समर्पित थी ।
हमने शिक्षा को ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की आराधना का स्रोत बनाया। डॉ॰ अल्टेकर का कहना है कि : – ‘ वैदिक युग से लेकर अब तक भारतवासियों के लिये शिक्षा का अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है तथा जीवन के विभिन्न कार्यों में यह हमारा मार्ग आलोकित करती है।’
हमारे ऋषियों के द्वारा शिक्षा को ज्ञानचक्षु कह कर भी सम्मानित किया गया। इसका अभिप्राय है कि जब मनुष्य सांसारिक भोगों , ऐश्वर्यों और राग -द्वेष आदि से मुक्त होकर आत्मिक चेतना के आलोक में रहना आरंभ कर देता है , तब समझो कि उसके ज्ञानचक्षु खुल गए हैं । अब वह अपने जीवन को सार्थक बनाकर जीने में सक्षम हो गया है। ऐसे सार्थक जीवन पथ से युक्त व्यक्ति दूसरों के अधिकारों के प्रति सदैव जागरूक रहता है । इसके लिए वह समझ जाता है कि उसे मनुष्य धर्म का पालन करते हुए अपने कर्तव्यों पर अधिक ध्यान देना है । ऐसे व्यक्ति के भीतर किसी भी प्रकार का संशय या सन्देह नहीं रहता । उसके अन्तर्मन में मर्यादाएं सदैव उसे संतुलित और धर्मानुसार कार्य करने की प्रेरणा देती रहती हैं।
प्राचीन काल की शिक्षा प्रणाली के माध्यम से व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर लेता था। आत्मसाक्षात्कार कर लेने वाले व्यक्ति को ही स्नातक कहा जाता था । स्नातक के लिए कुछ भी ऐसा नहीं रहता था जो समझने योग्य ना हो। वह सब कुछ जान जाता था । ‘सब कुछ जानने’ का अभिप्राय यह भी था कि वह ज्ञान और अज्ञान , विद्या और अविद्या, विवेक और अविवेक के बीच की दूरियों को समाप्त कर जाता था।  इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए हमारे ऋषि ब्रह्मचर्य, तप और योगाभ्यास  का सहारा लिया करते थे।
ब्रह्मचर्य , तप और योगाभ्यास के माध्यम से विद्यार्थियों को अपने प्रति , अपने परिवार के प्रति , गुरु के प्रति , अपने सहपाठियों के प्रति , समाज , राष्ट्र , संसार और अन्त में प्राणीमात्र के प्रति कर्तव्य भाव से भरा जाता था । इसी पूरी प्रक्रिया को धर्म की व्यवस्था कहते थे । धर्म से ओतप्रोत व्यक्ति ही कर्तव्य परायण होता है । एक प्रकार से आत्मानुशासन के कड़े पहरे में यह सारी साधना पूर्ण होती थी । तत्पश्चात विद्यार्थी व्यष्टि से समष्टि तक के लिए उपयोगी बनकर अपने आपको संसार को समर्पित करता था। यही उसका समावर्त्तन संस्कार कहलाता था । इस समय गुरु या आचार्य लोग विद्यार्थियों को दीक्षांत भाषण के समय भी लोक व्यवहार और लोक के प्रति कर्तव्यों का पाठ पढ़ाया करते थे। कहीं पर भी ऐसी कोई शिक्षा नहीं दी जाती थी जो यह बताए या प्रदर्शित करे कि संसार में जाकर तुम्हें अपने अधिकारों के लिए कैसे लड़ना है ? – केवल एक ही बात पर ध्यान केंद्रित रहता था कि संसार में आपको कैसे एक सुव्यवस्थित और सार्थक जीवन जीना है ? और कैसे सार्थक जीवन जीते हुए संसार के सभी प्राणियों का कल्याण करना है ? मनुष्यत्व से देवत्व की साधना इसी बिंदु पर जाकर पूर्ण होती थी।

आवश्यक थी ब्रह्मचर्य की साधना

भारत के पुरातन काल में शिक्षक को ‘आचार्य’ और ‘गुरु’ कहा जाता था । जबकि विद्यार्थी को ब्रह्मचारी, व्रतधारी, अंतेवासी, आचार्यकुलवासी कहा जाता था । उस काल में ब्रह्मचर्य का पालन करना सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। यही नियम स्त्रियों के लिए भी यथावत लागू होता था । ब्रह्मचर्य की शक्ति के संचय से जीवन कमल की भांति निर्मल रहता है । ऐसे व्यक्ति के मन में किसी भी प्रकार के उद्वेग , आवेग या आवेश नहीं होते हैं । वह निश्छल और पवित्र ह्रदय से कार्य करने में समर्थ रहता है । यही कारण था कि ब्रह्मचर्य की साधना के लिए हमारे यहाँ विद्यार्थी और विद्यार्थिनी दोनों को ही प्रेरित किया जाता था । जीवनी शक्ति का संचय कर उनके मुखमंडल को दीप्तिमान बनाए रखने की शिक्षा देकर संयमी , गम्भीर , विचारशील , कर्मशील और धर्मशील मनुष्य का निर्माण कर उन विद्यार्थी और विद्यार्थियों को संसार के लिए सौंपा जाता था ।

“वर्णन उन्होंने जिस विषय का है किया, पूरा किया;
मानो प्रकृति ने ही स्वयं साहित्य उनका रच दिया ।
चाहे समय की गति कभी अनुकूल उनके हो नहीं,
हैं किन्तु निश्चल एक-से सिद्धान्त उनके सब कहीं॥”

आज संसार में अशांति का एक कारण यह भी है कि हम वर्तमान शिक्षा प्रणाली में ब्रह्मचर्य की आवश्यकता को अनिवार्य नहीं मानते। ब्रह्मचर्य के नाश के कारण संसार में अमर्यादा , अधर्म , अनीति व अत्याचार फैल रहे हैं । जिससे सर्वत्र कोलाहल व अशान्ति है। जिसे देख कर लगता है कि आज फिर आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुरुषों व ब्रह्मवादिनी स्त्रियों की आवश्यकता समाज को है ।
वास्तव में कर्तव्य मार्ग पर चलना एक कठोर साधना है। जिसे ब्रह्मचर्य की साधना से ही प्राप्त किया सकता है। इस साधना में ‘देने – देने ‘ के लिए अर्थात संसार के प्रति अपने कर्तव्यों को समझने और फिर संसार का उपकार करने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की उत्कृष्ट भावना कार्य करती है । जबकि अधिकारों के लिए ‘लेने लेने ‘ अर्थात दूसरे से झगड़ने और उसके धन – माल आदि को छीनने की प्रवृत्ति होती है । जिसके लिए किसी कठोर साधना की आवश्यकता नहीं होती । इससे पता चलता है कि अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता । उनके लिए तो झगड़ने की दानवीय प्रकृति का होना ही पर्याप्त है । जबकि कर्तव्यों के लिए संघर्ष और साधना का मार्ग अपनाना पड़ता है ।
आज का संसार भूल कर रहा है , जब वह यह मानता है कि अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है और कर्तव्य तो ऐसे ही निभाए जा सकते हैं। सच यही है कि अधिकारों के लिए संघर्ष की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि छीनना , झपटना , लूटना , मारना – काटना इस सबके लिए किसी कठोर साधना की आवश्यकता नहीं है , बल्कि इसे तो जंगली जीवन में यूं ही सीख लिया जाता है। ज्ञात रहे कि जंगल में फसल का उगाना बड़ा कठिन है क्योंकि उसके लिए एक साधना करनी पड़ती है , जबकि झाड़ – झंखाड़ अपने आप ही उत्पन्न हो जाते हैं।

मुस्लिम काल की मदरसा शिक्षा प्रणाली

मध्यकाल में भारतीय शिक्षा प्रणाली को क्षति पहुंचाने का भरसक प्रयास किया गया । जिस प्रकार भारतीय शिक्षा प्रणाली पहले से चली आ रही थी उसकी कुछ नकल करने का प्रयास इस्लामिक सल्तनत या बादशाहत काल में किया गया । यही कारण रहा कि जो महत्व प्राचीन भारत में संस्कृत का रहता था वह अब अरबी , फारसी या कहीं उर्दू भाषा ने ले लिया । जिस प्रकार हमारे यहां पर गुरुकुल शिक्षा प्रणाली काम कर रही थी , उसी की नकल करते हुए मदरसा शिक्षा प्रणाली को लागू किया गया। जैसे हम अपने धार्मिक संस्कार दिया करते थे , वैसे ही अब मजहबी संस्कार देने का निर्णय मुस्लिम सुल्तानों या बादशाहों ने लिया । यह अलग बात है कि हमारी शिक्षा प्रणाली धार्मिक शिक्षा प्रणाली थी और मुस्लिम सुल्तानों या बादशाहों द्वारा दी जा रही शिक्षा सांप्रदायिक शिक्षा प्रणाली थी। जिसने मनुष्य मनुष्य के बीच भेदभाव करना आरम्भ किया । सांप्रदायिक शिक्षा प्रणाली को भारत के लोगों ने स्वीकार नहीं किया । उन्होंने इस शिक्षा प्रणाली के इस मर्म को समझ लिया था कि इसमें अधिकार से पहले कर्तव्य का पाठ पढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं है । बात साफ थी कि भारत के लोग प्राचीन काल से ‘अधिकार से पहले कर्तव्य’ का पाठ पढ़ते आए थे । अपनी इसी परम्परागत शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भारतवासी संसार का उपकार करते चले आ रहे थे । दोनों शिक्षा प्रणालियों में इतने भारी अंतर के चलते ही भारत के लोग अपनी गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली को नई मदरसा शिक्षा प्रणाली से हर प्रकार से उच्च मानकर यथावत बनाए रहे। अब विद्यार्थी कुरान के कुछ अंशों को वैसे ही कंठस्थ करते थे जैसे गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में वेद के मंत्रों को कंठस्थ करने की परम्परा चली आ रही थी। वे पढ़ना, लिखना, गणित, अर्जीनवीसी और चिट्ठीपत्री भी सीखते थे।
भारत में लागू की गई इस नवीन शिक्षा प्रणाली में कहीं पर भी मानवतावाद को प्रचारित और प्रसारित करने की ऐसी व्यवस्था नहीं थी । जिसमें मनुष्य मनुष्य के प्रति अपने कर्तव्यों को समझे और वास्तविक बंधुत्व की भावना को सुदृढ़ करने की दिशा में अपनी ओर से सक्रिय सहयोग प्रदान करे। इस प्रकार ‘अधिकारों से पहले कर्तव्य ‘ – की ओर चलने की भारत की शिक्षा प्रणाली को इस मुस्लिम शिक्षा प्रणाली ने पलटकर रख दिया ।
भारतवर्ष में इस्लामिक शिक्षा प्रणाली ने राजकीय व्यवस्था के द्वारा नियम बनाकर लोगों को पहली बार रोकने का काम किया । इसने लोगों को साम्प्रदायिक शिक्षा दी और विधर्मी या काफिरों के प्रति उनके भीतर विष घोलने का कार्य किया। दूसरे मतावलम्बियों के अधिकारों का शोषण करना और कर्तव्यों को पीछे रखकर अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रवृत्ति भारत में इस काल में अधिक दिखाई दी । दुर्भाग्य यह रहा कि मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों के शासन ने भी अपनी नीतियों में इसी प्रकार के अनीतिपरक कार्यों को प्रोत्साहित किया । जिससे ऐसा लगा कि जैसे शासक वर्ग भी कर्तव्यपरायण लोगों का निर्माण न करके दूसरों के अधिकारों का शोषण , हनन और उत्पीड़न करने वाले लोगों को ही बनाने पर बल दे रहा था।
जब स्वार्थवाद किसी शिक्षा प्रणाली में आ जाता है तो वह समाज की व्यवस्था में घुन की भांति प्रवेश कर जाता है । धीरे-धीरे वह सारी व्यवस्था को भूमिसात कर देता है । मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों ने शिक्षा का साम्प्रदायिकीकरण व स्वार्थीकरण किया । ऐसी शिक्षा देने का प्रयास किया गया जिससे एक वर्ग के अधिकारों का शोषण हो और एक वर्ग के अधिकारों का पोषण हो । इस शिक्षा को प्राप्त करने वाले लोगों के भीतर ‘अधिकार से पहले कर्तव्य ‘ का निर्वाह करने की प्रवृत्ति लुप्त होती चली गई ।

अंग्रेजों की स्कूली शिक्षा प्रणाली

जो कुछ मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों ने अपनी शिक्षा नीति के माध्यम से भारत में किया उसी प्रकार की नीति को भारत में अंग्रेजों ने भी अपनाया। उन्होंने भारत की परंपरागत गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने का घातक प्रयास किया। अंग्रेजों के काल में व्यापारिक धर्म प्रचारकों ने भारत की शिक्षा प्रणाली का विनाश करने का ठेका ले लिया। इन्होंने ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ-साथ इतिहास , भूगोल , व्याकरण , गणित , साहित्य आदि विषय भी पढ़ाने आरम्भ किए। जहां गुरुकुल में चौबीसों घंटे छात्र-छात्राएं अपने अध्यापक व अध्यापिकाओं या ऋषि और ऋषिकाओं के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए रहते थे , वहीं अब विद्यालयों में कुछ घंटे पढ़ाई करने का नियम बनाया गया । रविवार को अवकाश घोषित किया गया । इसके अतिरिक्त अनेकों छुट्टियां भी प्रदान की गयीं। विद्यार्थी और विद्यार्थिनियों की सह – शिक्षा का प्रचलन आरम्भ किया गया।
इस सब के उपरांत भी सारी शिक्षा प्रणाली को अंग्रेजों के हितों के अनुकूल बनाने का प्रयास किया गया । ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ भारत से कैसे अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त कर सकती है ? – और कैसे भारत को उपनिवेशवादी व्यवस्था के अन्तर्गत लाकर इसका अधिक से अधिक शोषण किया जा सकता है ? – संपूर्ण शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य केवल यही बनकर रह गया । अपने विचारों को थोपने का प्रयास किया गया और भारतीयों को हर प्रकार से जलील करने की चेष्टा की गई । पूरी शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य यह था कि भारतीयों के भीतर हीनभावना उत्पन्न कर दी जाए।
कुल मिलाकर यह शिक्षा प्रणाली मनुष्य का मनुष्य के प्रति क्या कर्तव्य हो सकता है ? – इस बात पर केंद्रित नहीं थी । इसके विपरीत यह शिक्षा प्रणाली केवल इस बात पर केंद्रित थी कि दूसरों का मूर्ख बनाकर कैसे अधिक से अधिक अपने स्वार्थों की पूर्ति की जा सकती है ? इस शिक्षा प्रणाली की ऐसी मानसिकता के चलते यह भी भारत के और मानव जाति के हितों के अनुकूल शिक्षा प्रणाली सिद्ध नहीं हुई।
अंग्रेजों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा इसलिए लागू की कि वह भारत के लोगों को अपने लिए ‘बाबू’ बनाकर तैयार करना चाहते थे । उनकी सोच थी कि लिपिक स्तर के व्यक्ति को ब्रिटेन से न लाकर भारत से ही पैदा कर लिया जाए तो अच्छा है । लॉर्ड मैकाले ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया कि वह भारत के लोगों को ही अंग्रेज बनाकर और उनके भीतर अंग्रेजीयत के संस्कार डालकर इस देश का विनाश कर देना चाहता है।
यह एक सर्वमान्य सत्य है कि जहां पर किसी का विनाश कर देने का भाव होता है वहां पर कर्तव्य निर्वाह करने का भाव स्वयं ही मर जाता है। वहां पर झूठे अधिकारों का संघर्ष होता है और सर्वनाश में ही आत्म विकास देखने की मूर्खतापूर्ण नीति कार्य करती हुई दिखाई देती है। इस प्रकार की नीतियों से युद्ध , झगड़े , रक्तपात , नरसंहार जन्म लेते हैं और मानवता का सर्वत्र अहित होता है। अंग्रेजों की स्वार्थपूर्ण शिक्षा प्रणाली का ही परिणाम था कि विश्व ने सन 1920 से लेकर 1945 तक दो महायुद्ध देखे और उसके उपरांत भी विश्व स्तर पर तनाव में किसी प्रकार की कमी आज तक नहीं आई है । क्योंकि लोगों की शिक्षा प्रणाली कर्तव्यवाद को प्रोत्साहित करने वाली ना होकर अधिकारों के लिए लड़ने – झगड़ने वाली शिक्षा प्रणाली है।
आज डिग्रीधारी लोग भी छल कपट , ईर्ष्या , घृणा , द्वेष से भरे हुए हैं । अपने आप को ‘सभ्य समाज’ का एक अंग कहने वाले लोग भी एक दूसरे की जड़ें काटने और एक दूसरे को मूर्ख बनाकर अपना ‘उल्लू सीधा करने’ की स्वार्थपूर्ण चालों को चलने में लगे रहते हैं । इन लोगों को पढ़ा लिखा कहा जा सकता है लेकिन ज्ञानी या विद्वान नहीं कहा जा सकता । क्योंकि इनकी सोच सर्वहित को प्राथमिकता देने वाली नहीं होती। ऐसी परिस्थितियों में मानना पड़ेगा कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली समाज और संसार के लिए उपयोगी शिक्षा प्रणाली नहीं है । शिक्षा प्रणाली वही उचित होती है जो मनुष्य को अधिकारों से पहले कर्तव्य का पाठ पढ़ाये और जो समाज का देवत्वीकरण करने की प्रक्रिया को बलवती करने वाली हो।
भारतीय शिक्षा प्रणाली के विषय में विशेषज्ञों की मान्यता है कि सन 1857 की क्रान्ति के बाद जब 1860 ई0 में भारत के शासन को ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी: से छीनकर रानी विक्टोरिया के अधीन किया गया तब मैकाले को भारत में अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाने के लिये आवश्यक नीतियां सुझाने का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। यद्यपि वह भारत के शिक्षा तंत्र को समाप्त कर अपना शिक्षा तंत्र लागू करने की योजना सन 1835 में ही घोषित कर चुका था । अब अंग्रेजों ने अनुभव किया कि उसकी शिक्षा नीति को यथावत लागू कर भारत के सांस्कृतिक मूल्यों को उजाड़ते हुए यहां पर शासन किया जाए । अपनी इसी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए लार्ड मैकाले ने सारे देश का भ्रमण किया।

भारत की सामाजिक संरचना और लॉर्ड मैकाले

जब लॉर्ड मैकाले ने भारतीय समाज का दौरा किया तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यहां झाडू देने वाला, चमड़ा उतारने वाला, करघा चलाने वाला, कृषक, व्यापारी (वैश्य), मंत्र पढ़ने वाला आदि सभी वर्ण के लोग अपने-अपने कर्म को बड़ी श्रद्धा से हंसते-गाते कर रहे थे। वास्तव में भारतीय समाज की ऐसी दशा इसीलिए थी कि भारत के लोग परम्परागत रूप से अपने – अपने अधिकारों के लिए झगड़ने की प्रवृत्ति से प्रेरित नहीं थे , इसके विपरीत वे एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करने के कर्तव्य भाव से प्रेरित थे । सारा समाज संबंधों की पवित्र और सहयोगात्मक डोर से बंधा हुआ था। शूद्र भी समाज में किसी का भाई, चाचा या दादा था तथा ब्राहमण भी ऐसे ही रिश्तों से बंधा था। गांवों में हम चाचा , दादा , बाबा , ताऊ आदि के रिश्तों को आज भी इसी प्रकार बना हुआ देखते हैं । जहाँ लोग इन सारे रिश्तों को वैसे ही निभाते हैं जैसे वे अपने सगे चाचा , ताऊ आदि के प्रति निभाते हैं।
हमारे देश में तब किसी भी व्यक्ति की बेटी सारे गांव की बेटी हुआ करती थी । इसी प्रकार दामाद, मामा आदि रिश्ते गांव के हुआ करते थे। इस प्रकार भारतीय समाज भिन्नता के बीच भी एकता के सूत्र में बंधा हुआ था। इस समय धार्मिक सम्प्रदायों के बीच भी सौहार्दपूर्ण संबंध था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि कुछ राजनीतिक कारणों के चलते 1857 की क्रान्ति में कई स्थानों पर हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध किया था। मैकाले को लगा कि जब तक हिन्दू-मुसलमानों के बीच वैमनस्यता नहीं होगी तथा वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत संचालित समाज की एकता नहीं टूटेगी , तब तक भारत पर अंग्रेजों का शासन मजबूत नहीं होगा।
भारतीय समाज की एकता को नष्ट करने तथा वर्णाश्रित कर्म के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए मैकाले ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बनाया। अंग्रेजों की इस शिक्षा नीति का लक्ष्य था – संस्कृत, फारसी तथा लोक भाषाओं के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करना। साथ ही सरकार चलाने के लिए देशी अंग्रेजों को तैयार करना। इस प्रणाली के जरिए वंशानुगत कर्म के प्रति घृणा पैदा करने और परस्पर विद्वेष फैलाने की भी चेष्टा की गई थी। इसके अतिरिक्त पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन पद्धति के प्रति आकर्षण पैदा करना भी मैकाले का लक्ष्य था। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने भी महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई मिशनरियों ने ही सर्वप्रथम मैकाले की शिक्षा-नीति को लागू किया।
स्पष्ट है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत करने वाली शिक्षा प्रणाली थी। जिसमें ‘सबका साथ सबका विकास’ करने का भारत का परंपरागत गुण था ।इस सारी व्यवस्था को नष्ट करने का प्रयास लॉर्ड मैकाले ने किया । जिससे भारत का समाज जिस समरसता के साथ एक दूसरे से बंधा हुआ था उसका वह वंदनीय स्वरूप उजड़ने लगा । भारत में धीरे-धीरे इंडिया बसने लगी । 1947 के पश्चात भारत की नई शिक्षा नीति को लागू करते समय लॉर्ड मैकाले और उससे पहले की इस्लामिक शिक्षा प्रणाली या किसी अन्य शिक्षा प्रणाली को एक ओर रखकर भारत की गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली को लागू किया जाता तो भारत अब तक अपने पुराने सामाजिक समरसता के भाव को विकसित करने में सफल हो जाता । इतना ही नहीं भारत विश्व गुरु ही बन जाता।
निश्चय ही भारत को अपनी नई शिक्षा नीति के लिए यह नियम बनाना चाहिए था कि अधिकारों से पहले कर्तव्य निभाने वाले समाज का निर्माण करना हमारा उद्देश्य है। हमारे पूर्वज जिस प्रकार के समाज को बनाकर अपने आपको गौरवान्वित करते थे आज उसी प्रकार के समाज को हमारे द्वारा बनाया जाना हमारा कर्तव्य है । मैथिलीशरण गुप्त जी की यह पंक्तियां कितनी सार्थक हैं :–

“वे मेदिनी-तल में सुकृत के बीज बोते थे सदा,
परदुःख देख दयालुता से द्रवित होते थे सदा ।
वे सत्वगुण-शुभ्रांशु से तम-ताप खोते थे सदा,
निश्चिन्त विघ्न-विहीन सुख की नींद सोते थे सदा॥

वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे;
वे स्वार्थ-रत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे ।
संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे सभी,
निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी?॥ ”

सचेष्ट पूर्वजों के हम उत्तराधिकारियों को सचेष्ट होकर निश्चेष्ट होने के कलंक को धोना होगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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