ऋषि दयानंद ने सच्चे धर्म के बारे में मानवता को कराया था परिचय
महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने देश में वैदिक धर्म के सत्यस्वरूप को प्रस्तुत कर उसका प्रचार किया था। उनके समय में धर्म का सत्यस्वरूप विस्मृत हो गया था। न कोई धर्म को जानता था न अधर्म को। धर्म पालन से लाभ तथा अधर्म से होने वाली हानियों का भी मनुष्यों को ज्ञान नहीं था। ईश्वर का सत्यस्वरूप भी देश देशान्तर के लोगों को पता नहीं था। आत्मा के सत्यस्वरूप से प्रायः सभी लोग अनभिज्ञ थे। यह सृष्टि किसने, कब व क्यों बनाई तथा हमारी आत्मा का स्वरूप क्या व कैसा है? हमारी आत्मा इस जन्म में कब, कैसे आयी अथवा शरीर से संयुक्त हुई और इसके जन्म का उद्देश्य क्या है? इन प्रश्नों से सभी लोग अनभिज्ञ थे। सभी मनुष्य प्रचलित मत-मतान्तरों की जीवन शैली व उपासना पद्धतियों को बिना विचार व सत्यासत्य की परीक्षा किये ही मानते चले आ रहे थे। मत-मतान्तरों को भी ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक अनेक शंकाओं व प्रश्नों का समाधान विदित नहीं था। सबका एक ही उद्देश्य था कि मत की पुस्तकों की शिक्षाओं का बिना विचार व शंका किये आस्थापूर्व रीति से सेवन करना है और जीवन में सुखों का भोग करना है। ऋषि दयानन्द दिव्य मनुष्य, महापुरुष व ऋषि थे। उन्होंने प्रत्येक बात को मानने से पूर्व उसके सत्यस्वरूप को जाना और उसे धर्म व कर्तव्य से जोड़कर उसकी प्रासंगिकता तथा आवश्यकता पर गहन विचार किया। यदि वह बात ईश्वरीय ज्ञान वे के सम्मत हुई और उससे किसी मनुष्य व मनुष्य समाज किंवा देश को हानि नहीं होती थी, तभी वह करणीय व मानने योग्य स्वीकार की। उनके इस सिद्धान्त व वेदों के प्रचार से मत-मतान्तरों की बहुत सी बातें मनुष्य, समाज व देश के लिये हितकर सिद्ध नहीं हुईं। अतः उन्हें छोड़ना आवश्यक था। ऋषि दयानन्द ने तर्क, युक्ति तथा विद्या के आधार पर कर्तव्य व अकर्तव्य सहित ईश्वर की वेदों में आज्ञा के अनुरूप धर्म का प्रचार किया। इससे मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों की पोल खुल गई। सभी विधर्मी लोग सावधान हो गये। वह सत्य को स्वीकार करने के लिये तत्पर नहीं हुए।
ऋषि दयानन्द के समय में मत-मतान्तरों के अनुयायियों की स्थिति यह थी कि वह न तो धर्म सम्बन्धी सत्यासत्य विषयक ज्ञान रखते थे और न ही अपने मत के आचार्यों की इच्छाओं के विरुद्ध ऋषि दयानन्द की बातों में विद्यमान सत्य को अनुभव करते हुए भी उन्हें स्वीकार कर सकते थे। ऋषि दयानन्द ने अपनी सदाशयता का अनेक प्रकार से परिचय दिया परन्तु अविद्या व स्वार्थों के कारण अधिकांश लोगों ने उनकी मानव व प्राणीमात्र की हितकारी धर्म विषयक मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया। इस कारण संसार सत्य के ज्ञान व आचरण से वंचित रहा और आज तक बना हुआ है। ऋषि दयानन्द और उनके अनुयायियों ने वेदों का जो प्रचार किया उसका समाज के एक वर्ग पर ही प्रभाव हुआ जो आज भी उन पर पूरी श्रद्धा व निष्ठा रखते हुए पालन करता है। वह दूसरे मतों को भी वेद व वेद मत के प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की परीक्षा करने की चुनौती देता है और सत्य को स्वीकार करने तथा असत्य को छोड़ने की प्रेरणा करता है। इसके विपरीत आज का मानव समाज अंग्रेजी शिक्षा पद्धति सहित भौतिक सुख सुविधाओं को ही अधिक महत्व देता है जिससे वह वैदिक धर्म के शाश्वत व हितकारी सिद्धान्तों के पालन से होने वाले लाभों को ग्रहण व प्राप्त नहीं हो पा रहा है। इसका वेदमार्ग के विपरीत आचरण करने वाले लोगों को वर्तमान व भविष्य में जो मूल्य चुकाना होगा, उसका अनुमान लगाया जा सकता है। वेद मार्ग पर चलने से मनुष्य का परजन्म सुधरता व उन्नत होता है। मनुष्य का पुनर्जन्म इस जन्म के संचित कर्मों के आधार पर ही होना है। यदि उसने इस जन्म में वेदों का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर को जाना नहीं और वेदोक्त विधि से उपासना व यज्ञादि कर्म नहीं किये तो उसका पुनर्जन्म भी उन सुखों व लाभों से वंचित रहेगा जो कि एक वेदोक्त मार्ग पर चलने व आचरण करने वाले मनुष्यों को प्राप्त होते हैं।
ऋषि दयानन्द ने अथक व कठोर तप एवं पुरुषार्थपूर्वक योग एवं वेद विद्या को प्राप्त कर अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से संसार से अविद्या दूर करने हेतु ईश्वरीय ज्ञान वेदों का प्रचार आरम्भ किया था। उन्होंने देश व समाज के सामने ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति तथा मनुष्य के कर्तव्य व अकर्तव्य विषयक वेद की मान्यताओं को प्रस्तुत किया था। उन्होंने सब मनुष्यों को मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों से भी उन्हें अवगत कराया। वेद की मान्तयाओं के आचरण तथा वेद विरुद्ध मतों की जीवनशैली के अनुसार जीवन व्यतीत करने से होने वाली हानियों से भी उन्होंने लोगों को परिचित कराया था। सभी मत-मतान्तर उनके विरुद्ध एकत्रित व लामबन्द हो गये थे। ऐसी स्थिति में ऋषि दयानन्द ने अपने कर्तव्य को महत्व दिया और देश के विभिन्न भागों में जाकर वेद मत का प्रचार करते रहे। बहुत से लोग उनके विचारों से प्रभावित हुए। उनके सत्य वेद धर्म के प्रचार से प्रभावित होने वाले लोगों में सभी मतों के लोग थे। उनके अनेक प्रश्नों का उत्तर वेदेतर मतों के पास नहीं था। ऋषि दयानन्द ने ऐसे सभी विषयों को वैदिक विचारधारा के आधार पर प्रस्तुत कर लोगों की जिज्ञासों को शान्त करने सहित उनकी भ्रान्तियों को दूर किया। अपने भक्तों की प्रेरणा से उन्होंने वेद विषयक मान्यताओं सहित मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त मान्यताओं का प्रकाश करने के लिये विश्व का एक अद्वितीय ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखा और उसका प्रकाशन कराया।
सत्यार्थप्रकाश पढ़कर ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्यस्वरूप का ज्ञान होने के साथ ईश्वर, समाज, परिवार तथा अपने निजी कर्तव्यों का ज्ञान होता है। सत्यार्थप्रकाश से मनुष्य को अपने सभी कर्तव्यों एवं अकर्तव्यों का ज्ञान होने से उसे कर्तव्यों का आचरण तथा अकर्तव्यों वा असत्य का त्याग करने की प्रेरणा मिलती है। वह वेदेतर सभी मतों के अविद्या से युक्त यथार्थस्वरूप से भी परिचित हो जाता है। उसे यह भी विदित होता है कि संसार में सृष्टिकर्ता एक ही सत्ता है जिसके ईश्वर, परमेश्वर, सच्चिदानन्दस्वरूप सृष्टिकर्ता आदि अनेक नाम है। ईश्वर दो, तीन व अधिक नहीं अपितु वह एक ही सत्ता है। भिन्न-भिन्न मतों में ईश्वर के जो नाम आये हैं वह ईश्वर से पृथक सत्तायें नहीं हैं। सभी जीव ईश्वर की सन्तानें हैं। इस आधार पर ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एवं ‘सभी मनुष्य व प्राणी एक ही ईश्वर की सन्तान’ का सिद्धान्त अस्तित्व में आया है। जिस प्रकार माता-पिता व समाज में विद्वान परिवार व समाज से अविद्या व अज्ञान को दूर करते हैं, उसी प्रकार से सभी विद्वानों का कर्तव्य है कि वह वृहद विश्व मानव समाज से ईश्वर व आत्मा विषयक अविद्या को दूर कर सभी को सत्योपदेश से उपकृत करें। यही काम ऋषि दयानन्द और उनके प्रमुख अनुयायियों ने किया और आज भी पद प्रतिष्ठिा व स्वार्थों से मुक्त आर्य समाज के विद्वान इस कार्य को करते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। यही काम मनुष्य जाति की उन्नति व समाज व विश्व में शान्ति स्थापित करने का एकमात्र आधार है। इस दृष्टि से ऋषि दयानन्द को देखें तो वह हमें विश्व में प्रथम विश्वशान्ति की योजना प्रस्तुत करने व क्रियान्वित करने वाले महापुरुष के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।
ऋषि दयानन्द ने बताया कि धर्म जीवन में सद्गुणों व सत्कर्मों को धारण करने को कहते हैं। अग्नि ने ताप व प्रकाश सहित रूप को धारण किया हुआ है। यही उसका धर्म है। जल ने शीतलता को तथा वायु ने स्पर्श गुण व धर्म को धारण किया हुआ है। इसी प्रकार से मनुष्य को भी सत्य गुणों व सत्य कर्तव्यों को धारण करना चाहिये। मत-मतान्तर को मानना धर्म व कर्तव्य नहीं है। मत-मतान्तरों की परीक्षा कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना ही धर्म होता है। ईश्वर ने जीवों को सुख व कल्याण प्रदान करने के लिये सृष्टि की रचना की व इसका धारण व पोषण कर रहा है। उसी ने सभी जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मानुसार मनुष्यादि योनियों में जन्म दिया है। वह धर्माचार करने वाले मनुष्यों को सुख देता है और अधर्माचरण करने वालों को इस जन्म सहित परजन्म में भी पाप कर्मों का फल भुगाता व दुःख देता है। पाप कर्मों का फल दुःख है, इसी लिये धर्म व धर्म पालन की आवश्यकता मनुष्य के लिये है। महर्षि दयानन्द ने स्वयं अपने जीवन में धर्म को धारण कर उसका आदर्श रूप प्रस्तुत किया था। उनके अनुयायी उनके बतायें मार्ग का अनुसरण करते हुए वेदाध्ययन, सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन सहित ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र आदि कर्मों को करते वह देश व समाज के लिये हितकारी कार्य करते हैं। देश व धर्म दोनों पूरक हैं। धर्म और देश अपनी अपनी जगह दोनों ही बड़े हैं। इन दोनों में परस्पर कोई स्पर्धा है। देशभक्ति व देश की सेवा भी मनुष्य का धर्म है। अतः जो लोग देश को धर्म व मत की तुलना में गौण मानते हैं वह गलती करते हैं। संसार के सभी मनुष्यों को ईश्वर के बताये वेद मार्ग को अपनाना चाहिये व उस पर ही चलना चाहिये।
ऋषि दयानन्द ने अपने समय में संसार को वेदों का महत्व बताया। वेद सभी मनुष्यों के लिए सर्वोपरि धर्म ग्रन्थ हैं। वेदों के अनुसार आचरण करना ही सभी मनुष्यों का कर्तव्य है। वेदों को समझने के लिये सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य, आर्याभिविनय सहित उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। सबको वैदिक विधि से सन्ध्या एवं अग्निहोत्र यज्ञ करने चाहिये। अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं का त्याग करना चाहिये। प्रत्येक कार्य सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिये। ऋषि दयानन्द ने बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, वेदज्ञान का दाता, जीवात्माओं के कर्मानुसार जन्म व सुख-दुख प्रदान करने वाला और सृष्टिकर्ता है। वही सब मनुष्यों के द्वारा स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करने के योग्य है।
ऋषि दयानन्द के समय में विश्व ईश्वर तथा धर्माधर्म के सत्यस्वरूप से वंचित था। ऋषि दयानन्द ने वेदप्रचार तथा सतयार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का प्रणयन कर विश्व से अविद्या को दूर करने का महनीय कार्य किया। उनको सादर नमन हैं। जिन्हें ईश्वर की न्यायव्यवस्था का डर हो तथा जो अपना वर्तमान, भविष्य व परजन्म सुधारना चाहते हों, उनके लिये एकमात्र आश्रय स्थान ऋषि दयानन्द का साहित्य का अध्ययन, वैदिक धर्म का पालन और आर्यसमाज ही है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य