सोच सकारात्मक कीजिए करे सदा कल्याण।
भवसागर से यह तारती और करती है परित्राण ।।
सकारात्मक सोच सार्थक जीवन जीने की सबसे उत्तम कला है । सकारात्मक सोच का व्यक्ति सदैव भीतर से प्रसन्न चित्त रहता है । उसके मन का मोर कभी थकता नहीं , प्रत्येक परिस्थिति में नाचता रहता है । जो लोग यह कहते हैं कि ‘मेरा हंस रो रहा है’ – सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति का हंस कभी रोता नहीं बल्कि खिलखिला कर हंसता रहता है । क्योंकि वह अपने किसी भी ऐसे आचरण या दुराचरण में नहीं फंसता जो उसके लिए कष्ट कर हो । सकारात्मक सोच से ही सदैव सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है । हमको नकारात्मक सोच को हावी नहीं होने देना चाहिए । क्योंकि सकारात्मक सोच में सृजनशीलता छिपी होती है । जिससे विकास का मार्ग प्रशस्त होता है । सकारात्मक सोच के व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक शक्तियों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है । वे सब सकारात्मक दिशा में सही चिंतन प्रस्तुत करती रहती हैं । जिससे हमारे भीतर का तंत्र भी सुव्यवस्थित होकर कार्य करता रहता है । जो लोग नकारात्मक सोच रखते हैं उनके चेहरे मोहरे पर और स्वास्थ्य पर उनके ऐसे नकारात्मक चिंतन का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है । जबकि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति का चेहरा मोहरा कुछ अधिक ही सात्विक भाव लिए होता है ।
सकारात्मक सोच से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है और आत्मविश्वास से लबालब व्यक्ति और समाज अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। भारत की सदियों पुरानी सकारात्मक सोच के कारण ही भारत विश्व गुरु रहा है । आज का समय सकारात्मकता के प्रवाह और नकारात्मकता के पराभव का है।
नकारात्मक सोच
विश्व के ज्ञात इतिहास में जितने युद्ध – महायुद्ध या नरसंहार आयोजित किए गए हैं , वह सारे के सारे नकारात्मक चिंतन से प्रभावित होकर किए गए । जब व्यक्ति किसी मजहब के प्रति नकारात्मक चिंतन रखता है तो उसके नरसंहार का आयोजन कर डालता है और विपरीत मजहब के लोगों की धार्मिक आस्था तक को कुचल कर उन पर अमानवीय अत्याचार तक करता है । इसी प्रकार जब किसी के धन को हड़पने के लिए उसके प्रति व्यक्ति के भीतर नकारात्मक सोच बलवती होती है तो उसके साथ में वह अमानवीय अत्याचार तो करता ही है कभी-कभी उसकी हत्या तक भी कर देता है । समाज में जितना भी अपराध हमको दिखाई देता है वह सारा का सारा नकारात्मक सोच से प्रेरित होकर ही किया जाता है ।
सकारात्मक सोच जहां व्यक्ति के और समाज के और राष्ट्र के उन्नति में साधक है वही नकारात्मक सोच व्यक्ति और समाज की उन्नति में बाधक है। नकारात्मक सोच से मनुष्य की कल्पना शक्ति और सकारात्मक सोच नष्ट हो जाती है और ऐसा व्यक्ति डिप्रेशन या निराशा का और हताशा का शिकार बन जाता है । नकारात्मक सोच हावी होने से मनुष्य का जीवन दुख में खो जाता है । शीघ्र नष्ट होने वाला होता है नकारात्मक सोच का व्यक्ति हर समय चिड़चिड़ा हठीला और गुस्से में भरा रहता है । क्योंकि उसके अंतर्मन में क्रोध का ज्वालामुखी सदा धधकता रहता है। नकारात्मक सोच से उन्नति में अवरोध पैदा होता है। इसलिए नकारात्मक सोच को अपने जीवन में आने नहीं देना चाहिए।
पूजा
पूजा संस्कृत का शब्द है । वैदिक पद्धति से पूजा अनादि काल से होती चली आई है । जिसके विषय में ऋषियों ने समझाया है कि पूजा का अर्थ सत्कार से है। सेवा करने से है । विद्वानों को सुनने से भी है। ऐसा ‘उपदेश मंजरी’ में दिया गया है । लेकिन पूजा जड़ की नहीं होती क्योंकि जड़ की पूजा संभव नहीं है । पूजा चेतन की ही संभव है। पूजा के लिए तीन तत्व होने बहुत आवश्यक है ,—
पूज्य पुजारी चाहिए पूजा करने हेत ।
पूजा की सामग्री होती उसका खेत ।।
पूज्य,पुजारी और पूजा की सामग्री । जिस की पूजा करना चाहते हैं उसके प्रति श्रद्धा होनी चाहिए अर्थात बिना श्रद्धा के पूजा संभव नहीं है , लेकिन जो वस्तु जिसने दी उसी को भेंट नहीं करनी चाहिए । जैसे ईश्वर को ईश्वर कृत पुष्प भेंट नहीं करनी चाहिए जो ऐसा करते हैं वह अज्ञानी लोग हैं । भगवान अकायम अर्थात बिना शरीर का है । बिना काया का है । वह इसीलिए निराकार कहा जाता है ।उसकी पूजा के लिए सांसारिक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती है। वह सर्वव्यापक है ।
इस संदर्भ में हम को समझना चाहिए कि यज्ञ दो प्रकार के होते हैं , एक मनुष्य कृत , जिसको मनुष्य करता है । दूसरा देव अर्थात परमात्मा कृत जैसे प्रकृति ने फूल खिलाए हैं तो यह परमात्मा कृत है । परमात्मा निर्विकार है अर्थात उसके अंदर कोई विकार नहीं है । ईश्वर फूल चढ़ाने से कभी प्रसन्न नहीं होता है और न चढ़ाने से नाराज भी नहीं होता है । ईश्वर नाराज इसलिए नहीं होता कि नाराज होना एक विकार है । अगर ईश्वर नाराज होने लगे तो वह विकारी हो जाएगा , फिर उसको निर्विकार कहना अनुचित होगा ।
प्राचीन काल से पंचायतन पूजा होती आयी है अर्थात पांच देवताओं की पूजा होती चली आई है । उसमें पहली पूजा अमिका या माता की पूजा है । माता धरती से भारी है । जो मनुष्य माता की पूजा करता है उसका वही तीर्थ है । वैदिक धर्म पूजा की बात तो करता है परंतु मूर्ति पूजा की बात को मना करता है । दूसरा देवता विष्णु अर्थात जो विश्व के कण-कण में व्याप्त है अर्थात जो विश्व का भरण पोषण करता है वह पिता है । ऐसे पिता की पूजा करो । आकाश से भी पिता का स्थान ऊंचा बताया गया है । इसलिए पिता की पूजा भी उचित है । तीसरी पूजा गणेश की है । गणेश बुद्धि का देवता है । वह आचार्य है। आचार्य की पूजा करो । गणेश की पूजा आचार्य की पूजा मानी जाती है जो परमात्मा है । उसी का नाम गणेश है । शिव कल्याणकारी धातु से बनता है । जो जितेंद्रिय धर्मात्मा हो ।वह अतिथि जो अपना घर परिवार छोड़ कर संसार का कल्याण करता है वह भी शिव है ।
पांचवा देव सूर्य है , भौतिक यज्ञ से सूर्य की पूजा होती है सूर्य को अर्ध्य देना गलत है ।।सूर्य अग्नि का पुंज है । सूर्य ऊर्जा का स्रोत है । इसलिए सूर्य की पूजा अवश्य करो और पत्नी को अपने पति को ही सूर्य मानते हुए उसकी पूजा करनी चाहिए । पति-पत्नी में माधुर्य हो यह भी एक पूजा है । उपासना परमात्मा की होती है , लेकिन पूजा देवों की होती है। इसलिए उपासना में और पूजा में अंतर है । इस प्रकार से विद्वानों द्वारा बताया गया है कि जो विद्वान और विदुषी होते हैं वह पूजा के योग्य होते हैं । अवैदिक पूजा नहीं होनी चाहिए । जहां अपूज्य की पूजा होती हो और पूज्य की पूजा नहीं होती हो वहां अकाल , पड़ता है । कहा गया है —
अपूज्या; यत्र पूज्यन्ते पूज्यानाम् च निरादर
त्रीणि तत्र प्रविशन्ति,दुर्भिक्षँ,मरणँ भयम
अर्थात जहाँ पर अयोग्यों को पूजा जाता है और विद्वानो का निरादर किया जाता है , वहाँ तीन चीजे प्रवेश कर जाती हैं -1.भुखमरी 2. मृत्यु 3. भय।
तिरस्कार करने योग्य को हमेशा तिरस्कृत करो । अभिवादन करने से दूसरों को सम्मान देने से दूसरों के लिए झुकने से आयु विद्या , यश और बल बढ़ते हैं ।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।।
अर्थात जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते है ,तथा अपने बुजुर्गो की सेवा करने वाले होते हैं उनकी आयु ,विद्या ,कीर्ति और बल,ये चारों में सदैव वृद्धि होती है ।
पूजा का यथार्थ स्वरूप समझना चाहिए। परमात्मा की स्तुति और उपासना से संबंधित होने से साधारण बुद्धि लोग उसकी पूजा मन लेते हैं।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत