जब देश की आजादी का आंदोलन चल रहा था तो अक्सर राजाओं के बारे में यह प्रश्न हमारे मन मस्तिष्क में आता रहता है कि उस समय देशी राजाओं की स्थिति क्या थी ? वे देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहे थे या कहीं कुछ और कर रहे थे ? आज इसी तथ्य पर विचार करते हैं ।
भारत के विषय में या दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि यहां के राजा स्वतंत्रता आंदोलन के समय अपने विलासी पन का पूर्ण परिचय दे रहे थे । देश के स्वतंत्रता आंदोलन को उन्होंने जनता के लिए छोड़ दिया था। इसलिए जनता राजा विहीन होकर आंदोलन कर रही थी । अधिकांश राजा महाराजाओं की स्थिति ऐसी ही थी जैसी 1926 ई0 में श्रीयुत श्रीनिवास शास्त्री ने कोचीन में भाषण देते हुए व्यक्त की थी – ”अधिकतर देसी नरेश अपने महलों में नहीं मिलेंगे । यह कहीं ऐसे स्थान पर मिलेंगे जहां गरीब के धन से अय्याशी खरीदी जा सके । आप लंदन जाएं अथवा किसी भी अन्य फैशनेबल शहर में जाएं तो आपको कोई न कोई भारतीय राजा या अन्य रईस के लोगों की आंखों को अपनी शान शौकत से चौंधियाता और अपने समीप आने वालों को गिरावट के मार्ग पर घसीटता मिलेगा।”
बात साफ है कि जिस समय देश एक राजनीतिक आंदोलन लड़ रहा था और विदेशी सत्ताधारियों को यहां से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिए हुए अपने जीवन मरण का संघर्ष कर रहा था , उस समय हमारे राजा महाराजा यहां से सात समंदर पार अपने विलासी जीवन का परिचय दे रहे थे । उन्हें देश की आजादी से कोई लेना-देना नहीं था । यही कारण रहा कि जब देश आजाद हुआ तो किसी भी राजा ने यह नहीं कहा कि मुझे प्रधानमंत्री बना दो , या मुझे देश का गृहमंत्री या राष्ट्रपति बना दो ? क्योंकि उन निकम्मो ने देश की आजादी में भाग नहीं लिया था , इसलिए चुपचाप सत्ता हस्तांतरण के समय अपने घरों में बैठे रहे।
यदि यह लोग हमारे देश की आजादी की लड़ाई में भाग ले रहे होते तो निश्चय ही सत्ता में इनकी भागीदारी होती। जिस प्रकार श्रीनिवास शास्त्री ने अपने विचार प्रकट किए हैं , वैसे ही विचार पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देशी रियासतों के विषय में व्यक्त किए हैं । वह कहते हैं कि -” कुछ देसी नरेश अच्छे हैं , कुछ बुरे हैं । जो अच्छे हैं उनके मार्ग में भी पग-पग पर बाधाएं डाली और रोक-टोक की जाती है। सामान्यतः वे पिछड़े हुए हैं। उनका दृष्टिकोण सामंती है और उनके तौर-तरीके तानाशाहों जैसे हैं ।वे झुकते हैं तो केवल ब्रिटिश सरकार के सामने । शेलवंकर ने उनके विषय में ठीक ही कहा है कि वे भारत में ब्रिटेन का पांचवा दस्ता है।”
इन तथ्यों से पता चलता है कि आजादी से पहले देश के विदेशी शासक ही हमारा शोषण नहीं कर रहे थे बल्कि देसी नरेश उनसे भी कहीं अधिक शोषण कर रहे थे । यही कारण रहा कि जनता न केवल ब्रिटिश शासकों के विरोध में सड़कों पर उतर आई बल्कि देसी नरेशों से भी बगावत करके या चुपचाप इन से मुंह मोड़कर अपने क्रांतिकारियों के साथ लग गई। जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी क्रांति की होली में पूरी व्यवस्था के जलाकर भस्म करने की बात करते थे तो उसका अर्थ केवल यही नहीं था कि वह केवल ब्रिटिश शासकों के लिए ऐसा कह रहे थे बल्कि इसका अर्थ यह भी था कि वह भारत के राजा महाराजाओं और उनकी व्यवस्था को भी अंग्रेजों के साथ जला देना चाहते थे , जो भारत की होकर भी भारत के लोगों के साथ नहीं थी और उनका रक्त चूसने में विश्वास रखती थी । सरदार भगत सिंह ने पूरी व्यवस्था को परिवर्तित करने की अपनी इसी सोच को क्रांति का नाम दिया था।
जब देश आजाद होने लगा तो इन देशी रियासतों के तथाकथित राजा महाराजा क्योंकि आत्मिक रूप से पहले ही टूट चुके थे , इसलिए वह अपनी सत्ता को यथावत बनाए रखने के लिए सामने नहीं आए । थोड़ी बहुत उन्होंने ऐसी कोशिश की भी तो वह उनको प्रीवीपर्स आदि देकर बात समाप्त कर दी गई । रही सही कसर इंदिरा गांधी ने उस समय पूरी कि जब उन्होंने देश का रक्त चूसने वाले इन राजाओं के प्रिवीपर्स को अपने प्रधानमंत्रीत्व काल में यह कहकर बंद कर दिया कि यह देश के खजाने पर अनावश्यक बोझ है , जिसे झेलना उचित नहीं है । प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इस निर्णय का देश की जनता ने स्वागत किया ।देसी नरेशों ने यदि कुछ हाथापाई की भी तो कहीं भी देश की जनता ने उनका साथ नहीं दिया , क्योंकि लोग यह समझ चुके थे कि यह किस प्रकार हमारा रक्त चूसते रहे थे ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत