आर्य समाज के महान भजन उपदेशक कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर
कुँवर सुखलाल आर्य मुसाफिर अरनियां बुलंदशहर (उ0 प्रदेश)
प्रस्तुति : आचार्य ज्ञान प्रकाश वैदिक
तू ही इष्ट मेरा तू ही देवता है। तू ही बंधु मेरा, तू माता पिता है। जहालत से हम तुझको देखे न देखे। मगर तू हमें देखता है। पता पत्ता – पत्ता तेरा दे रहा है। सरासर गलत है कि तू लापता है। “मुसाफ़िर” जरा इस मुसाफिर से पूछो। कहां से चला ओर कहां जा रहा है।।
गंगा और यमुना के मध्य जिला बुलंदशहर में जी. टी. रोड़ पर बुलंदशहर से 20 और खुर्जा से 9 मील पूर्व, अलीगढ़ से 21 मील पश्चिम में एक छोटा सा गांव अरनियां है। भारत के अंतिम सम्राट पृथ्वी सिंह चौहान (राय पिथौरा) के वंशज इस ग्राम में निवास करते हैं।
ग्राम पर अंग्रेजों की क्रूर दृष्टि
सन् 1857 के गद्दर के समय इस गांव के लोगों ने दो अंग्रेजों को मार कर भूमि में दबा दिया था। इस गांव से बाहर एक फर्लांग की दूरी पर अंग्रेजों का बंगला था। उसी बंगले में स्त्रियों और बच्चों सहित वह रहते थे तथा गांव अरनियां के लोगों तथा आसपास के वासियों को अंग्रेज भक्त बने रहने का उपदेश देते रहते थे। साथ में डराते धमकाते थे। गांव अरनियां वासियों ने उन दोनों अंग्रेजों को मारकर दबा दिया तथा उनके बच्चों को अपनी सवारी में बैठाकर मेरठ छावनी में पहुंचा दिया। छावनी के कमांडर ने उन्हें वफादारी का परवाना लिखकर दे दिया।
दो अंग्रेजों के मरने की सूचना पाकर अंग्रेजों ने अरनियां के पास दो तोपें लगा दी। गांव को तोपों से उड़ाया जाना था। यह सूचना पाकर दूसरी अरनियां के जमींदार ठाकुर पदमसिंह जी जो 28 गांव के मालिक थे, इस अरनियां में आये और इस गांव को उड़ाये जाने से बचा लिया। वो अंग्रेजो के वफादार माने जाते थे। गांव तो बच गया, किंतु गांव पर गोरों की क्रूर दृष्टि बनी रही।
🏵जन्म🏵
कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर जी का जन्म इसी ग्राम में सन् 1890 ई0 में हुआ। इनके पिता जी ठाकुर भीमसिंह तथा माता जी धर्म देवी था। मुसाफिर जी दो भाई थे। बड़े भाई स्वर्ण सिंह जी तथा छोटे थे कुंवर सुखलाल जी।
🏵शिक्षा🏵
अरनियां से एक मील की दूरी पर गांव कैरोला में प्राइमरी स्कूल था, उसमें मास्टर सरदार खां थे, जो मुसलमान होते भी रहन सहन व्यवहार से हिंदु थे। कुँवर साहब उनके श्रेष्ठतम शिष्यों में से थे।
🏵गायन 🏵
कंठ बहुत ही सुरीला था ठाकुर नारायण सिंह जी जो संबंध से इनके चाचा थे। वह गायक थे स्वयं ही गीत बनाते जाते थे, साथ ही गाते जाते थे। उनके साथ ही कुँवर साहब गाने लगे।
🏵आर्य समाज में प्रवेश🏵
चान्दौख जिला – बुलंदशहर के ठाकुर महावीर सिंह जी और ठाकुर गिरवर सिंह जी महर्षि दयानंद जी के शिष्य थे। उनके प्रभाव से अरनियां गांव में 20वीं शताब्दी के आरंभ में आर्य समाज की स्थापना हुई। ठाकुर बलवंत सिंह, और मुंशीराम सांवल सिंह जी यहां आर्य समाज के कर्णधार थे।
मुंशी सांवल जी आदि प्रति मास शुक्ल पक्ष में अपनी बैलगाड़ी जोड़कर निकट के गांवों में रात्री प्रचार के लिए जाया करते थे। प्रचार में ठाकुर नारायण, कुं. साहब तथा सरदार सिंह जी के भजन तथा व्याख्यान होते थे। सुखलाल जी की आवाज अच्छी होने केे कारण इनके भजन सुने जाते थे। उन दिनों खड़ताल बजाकर चौधरी तेजसिंह जी के ये भजन गाया करते थे। कुछ ही दिन में कुंवर साहब इस क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हो गए। कुछ समय बाद कुँवर साहब गुरुकुल सिकंदाराबाद से जा जुड़े। वहीं पर कुंवर साहब ने हारमोनियम बजाना सीख लिया। फिर हारमोनियम पर गाने बजाने लगे धीरे धीरे कुंवर साहब बाहर जिलो में भी प्रसिद्ध हो गए।
🏵आर्य मुसाफ़िर मिशन से जुड़ाव 🏵
आर्य मुसाफिर पंडित लेखराम जी के निधन के पश्चात पंडित भोजदत्त (जानसठ – मुजफ्फरनगर) ने आगरे में ” आर्य मुसाफिर मिशन की स्थापना” करके प्रचार कार्य आरंभ कर दिया ” श्री पंडित लेखराम जी यादगार रुप – “आर्य मुसाफिर उपदेशक विद्यालय खोल दिया” ।
श्री पंडित भोजदत्त जी आर्य मुसाफिर, जो बड़े रत्न पारखी थे। उन्होने कुंवर सुखलाल जी को ढूंढ लिया। उनके सुयोग्य पुत्र थे डॉक्टर लक्ष्मीदत्त जी ओर पंडित ताराचंद आर्य मुसाफिर, श्री पं. भोजदत्त जी ने कुंवर साहब को आर्य मुसाफिर नाम देकर अपना तीसरा पुत्र बना लिया। इनके दोनों बेटों ने कुंवर साहब को अपना भाई मान लिया। कुंवर साहब ने स्वंय परिश्रम करके अंग्रेजी सीख ली, उर्दू, फारसी, और कुरान भी पढ़ लिया। थोड़े ही समय बाद श्री कुंवर साहब पुरे देश में प्रसिद्ध हो गए।
सन् 1914 में कुंवर साहब आगरा से प्राचार्थ पेशावर गये थे। अपने व्याख्यानों में आर्य समाज के सिद्धांतों का तो प्रचार करते ही थे पर हिंदु संगठन ,पतितों की शुद्धि और अछूतोद्धार पर सदा अधिक बल देते थे।
पेशावर में इनके भाषण में से सी. आई डी वालों ने यह वाक्य शिकायत के रुप में लिखा की —–
हिंदु लोग कुत्तों और बिल्लियों से तो प्यार करते हैं पर अपने भाइयों को अछूत बताते और उनसे घृणा करते हैं। रिपोर्ट देने वालों ने मूर्खता या धूर्तता से कुत्तों, बिल्लियों इन शब्दों का अर्थ ईसाई व मुसलमानों के लिए अपशब्द बोलने और नफरत फैलाने का दोष लगाया।
🏵गिरफ्तारी🏵
पुलिस ने कुंवर साहब को गिरफ्तार कर लिया और तौहिन मजहब कर अभियोग बनाकर अंग्रेज डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश कर दिया। पेशावर में इनकी पैरवी करने के लिए कोई वकील तैयार नहीं हुआ। कुंवर साहब ने कहा मैं खुद जिरह करूंगा। जब एक गवाह ने कहा कि – मेरे सामने इन्होने यह कहा था कि हिंदु लोग, कुत्तें और बिल्ली से मोहब्बत करते हैं,”” कुत्ता बिल्ली””, इन्होने मुसलमानों और ईसाईयों को कहा था।
कुंवर साहब ने गवाह से पूछा की – जब मैने यह कहा की हिंदु लोग कुत्तों और बिल्लियों से मोहब्बत करते हैं, तब इस फिकरे के साथ मैं हारमोनियम बजा रहा था कि नहीं ? गवाह ने बोला हां! आप हारमोनियम बजा रहे थे। और ढ़ोलकवादक ढो़लक बजा रहा था।
कुंवर साहब ने कहा कि – जनाब मजिस्ट्रेट साहब! यह फिकरा जो मेरे नाम पर लगाया गया है, यह लेक्चर में कहा जा सकता है। म्यूजिक में नहीं और हारमोनियम ढोलक म्यूजिक में बजते हैं लेक्चर में नहीं। इससे साफ होता है मैं निर्दोष हूं।
अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने कहा – मिस्टर सुखलाल हम तुमको बरी करता है
पर यह पूछता है की आगरा यहां से सैंकड़ो मील दूर है। तूम यहां इतनी दूर क्यों आया है ??
कुंवर साहब बोले मजिस्ट्रेट साहिब। पेशावर ओर आगरा हिंदुस्तान में हैं! आपके ईसाई पादरी तो समुद्रों को पार करके गैर मुल्कों से हिंदुस्तान में प्रचार करने आते हैं। मैं तो अपने ही देश में गाता बजाता हूं। तब मजिस्ट्रेट ने कुंवर साहब को पुलिस द्वारा घर पहुंचा दिया। ऐसे ही कुंवर साहब की दुसरी गिरफ्तारी 1914 में मुल्तान में हुई। वहां भी इनके प्रचार को आपत्तिजनक समझा गया। वहां से भी इनको प्रचार करके सुरक्षित आगरा पहुंचा दिया।
🏵मुसलमानों द्वारा घातक आक्रमण 🏵
कोंच जिला जालोन उ0.प्र0 में एक मुसलमान प्रचारक ब्रह्मचारी कुतुबुद्दीन नामी आर्य समाज तथा हिंदुवो के विरुद्ध प्रचार करता था, पैरों में खड़ाऊ पहनता, गेरुवो कपड़े पहनता और शिर पर जटाएं रखता था।
कोंच आर्य समाज के उत्सव में कुंवर साहब का अति प्रभावशाली भाषण हुआ। रात्रि को 12 बजे उत्सव समाप्त हुआ। सब उपदेशक आर्य समाज के अधिकारियों के साथ अपने निवास स्थान को जा रहे थे। कुछ मुसलमानों ने उसी ब्रह्मचारी कुतुबुद्दीन के भड़काने से इन लोगों पर भंयकर आक्रमण कर दिया। मुसाफिर अखबार आगरा के मैनेजर बहादुर सिंह का चेहरा लोहे का पंजा मारकर बिगाड़ दिया, कुंवर साहिब का सिर फाड़ दिया। कुंवर साहब बेहोश होकर गिर पड़े। मुसलमानों ने सोचा की मर गए। गिरफ्तारी के भय से उनको पड़ा छोड़कर भाग गए। आर्य समाज के अधिकारी भी भाग गए। कुंवर साहिब अकेले पड़े रह गए। इस आक्रमण की सूचना पाकर डॉ लक्ष्मीदत्त जी आर्य मुसाफिर भी आगरा से कोंच पहुंचे। कुछ दिनों इलाज होने के पीछे सिर पर पट्टी बांधे कुंवर साहिब ने बड़ी सभा में बैठकर वीरतायुक्त भाषण दिया और गीत गाया —-
“शीष जिनके धर्म पै चढ़े हैं, झंडे दुनियां में उनके गडे हैं। एक लड़का हकीकत था नामी, सार जिसने धर्म की थी जानी। जगमें अब तक है उसकी निशानी, शीश कटवाने को खुश जो खड़े हैं “”।
उस सभा में कोंच का हिंदु बच्चा बच्चा उपस्थित था।। कुंवर साहिब का भाषण सुनकर सैंकड़ो लोगों से अश्रु धारा बह रही थी।
🏵हैदराबाद सत्याग्रह🏵
सन् 1939 में हैदराबाद सत्याग्रह हुआ। श्री अमर स्वामी परिव्राजक जी अमुक तिथि को लाहौर से जत्था लेकर हैदराबाद सत्याग्रह के लिए जा रहे थे। ऐसा उनको समाचार पत्रों द्वारा ज्ञात हुआ। उनको विदाई देने पहुंच गए ओर रो पड़े। कहा कि मैं इस सत्याग्रह के पक्ष में नहीं था पर भाई साहब जा रहे हैं तो मैं भी नहीं रुकुंगा!! हे पाठकों ये होती है मित्रता। आज किसी किसी आर्य जन में बची है। कुंवर साहब बोले भाई साहब में भी चलुंगा। आप चलिये! मैं भी आ रहा हूं। स्वामी जी लाहौर रेलमार्ग से 30 सत्याग्रहियों के साथ मुम्बई पहुंच गए। कुंवर साहब कराची गए। और वहां से जत्था बनाकर जलमार्ग से मुम्बई पहुंच गए। दोनों जत्थे मिलकर एक जत्था हो गया।
शोलापुर पहुंचकर पं. धीरेन्द्र जी शास्त्री सर्वाधिकारी के साथ 528 सत्याग्रहियों सहित शोलापुर से गुलवर्गा तक स्पेशल ट्रेन द्वारा पहुंचे। और वहां सत्याग्रह करके जेल में गए। इस जेल में रहते हुवे कुंवर साहब ने कई गजले बनाई। जिनमें से एक इस प्रकार थी —-
यह कैसा फसाना है, यह कैसी कहानी है
सुनकर जिसे महफिल की हर आंख में पानी है
इसका आखिरी मिसरा यह था –
क्या खाक लिखे, जबकि – महबस में मुसाफिर को
दो ज्वार की रोटी हैं और दाल का पानी है।
निजाम की जेलों में ज्वार की दो दो रोटियां और बहुत पतली दाल सबको मिलती थी। दाल रोटी के टुकड़े पर चढ़ नहीं सकती थी। इस कारण सभी सत्याग्रही रोटी को मोड़कर मिलाते ओर खाते थे।
कुंवर साहब को भाषण में हंसाना ओर रुलाना सर्वथा उनके वश में था।
🏵एक कुशल वक्ता 🏵
संगीतज्ञ, निष्णात गायक तो थे ही, उत्कृष्ट कोटि के कवि भी थे। उनकी कविता सरल हिंदी तथा सरल उर्दू दोनों भाषाओं में उपलब्ध होती है। प्राचीन भक्त कवियों की पद शैली का प्रयोग करते हुए उन्होने अनेक भजन लिखे हैं। सुखलाल जी के कवित्तो में यत्र तत्र ब्रज भाषा का माधुर्य तो है ही, सुहावरेदानी तथा वाग्विदग्धता भी कम नहीं है। भारत के प्रति दयादृष्टि करने की प्रार्थना करता हुआ कवि भगवान से विनय करता है —
दासता की किच बीच भारत निवासी फंसे
करुणा निधान दया दृष्टि सों निहारियो।
भक्त नहीं तो भक्तन के पूत हैं यह
नाती है निहारो नेह, नाती न बिसारियो।
सुना है कि सदा तुम निर्बलो के साथ रहे
हम हैं निर्बल अब हम हूं को तारिये ??
अर्जी हमारी आगे मर्जी तुम्हारी
एक बात की है बात, बात कीजिये कि हारिये
मुसाफिर की गजले आर्य समाज के उर्दू काव्य का श्रंगार है।
उठ खड़े हो हिंदुवो काफी जलालत हो चूकी।
बुजदिलों मरदानगी सीखो नजाकत हो चूकी।।
लाल लाखों कौम के गैरों को अब तक दे चूके।
क्या गजब करते हो रहने दो सखावत हो चूकी।।
इस कविता में कवि ने महात्मा गांधी जी को अपने व्यंग्य बाणों का निशाना बनाया। कारण स्पष्ट है। मुसलमान मौलवियों द्वारा की जाने वाले तबलीक का प्रतिरोध करने तथा जातियो को इस्लाम की दावत को कबूल करने का आग्रह करने वालों को शुद्धि का संखनाद कर, मुंह तोड़ उत्तर देने वाले आर्य समाज को भी महात्मा गांधी ने गलत ठहरा दिया।
निजाम चाहते थे की चूड़ी बेचने वाले, फेरी वाले, कुंजड़े और हर किस्म के लोग इस्लाम के प्रचार के ध्वजवाहक बन जाए। फिर भला वे मंगला मुखियो को यह पाक काम क्यों न सौंपते। तभी मुसाफिर जी को लिखना पड़ा।
रंडियो को काम जब सौंपा गया तबलीक का,
उड़ गई तौहिद हजरत की रसातल हो चूकी।
कुंवर साहब जैसे निर्भिक वैदिक मिशनरी उपदेशकों व कवियों ने आर्य समाज व वैदिक धर्म की ज्योति विश्व में गुंजायमान कर दी। 2 जनवरी 1981 को 92 वर्ष की आयु में कुंवर साहब का निधन हुआ। कुंवर सुखलाल जी के पुरे जीवन पर एक ग्रंथ तैयार हो जाए। जैसी जानकारी मिली वो प्रस्तुत हैं। कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर को शत शत नमन।
लेखक :- अमर स्वामी परिव्राजक
पुस्तक :- सिंह गर्जना (ऐतिहासिक भाषण एवं क्रांति गीत
सम्पादक :- ठाकुर विक्रम सिंह