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भारतीय संस्कृति

कल्पना शक्ति एवं कर्म शक्ति का समन्वय

कल्पना शक्ति

जब मनुष्य की विचार शक्ति प्रबल हो जाती है और किसी भी समस्या के समाधान पर वह गहनता से मंथन करने में सक्षम हो जाती है तो चिन्तन की उस भूमि से कल्पना शक्ति का निर्माण होता है । यहाँ खड़ा होकर व्यक्ति न केवल समस्याओं के समाधान के विषय में सोचता है अपितु समस्याएं पैदा ही ना हों , ऐसी कल्पनाएं भी करता है । साथ ही अपने जीवन को उन्नत , समृद्ध , सुखी और प्रत्येक प्रकार से सुरक्षित बनाने के गहन विचारों में भी खो जाता है । वास्तव में उसका इस प्रकार के गहन विचारों में खो जाना ही कल्पना शक्ति को मजबूत करता है और उसे नई उड़ान देता है । जो लोग इस प्रकार की अवस्था को प्राप्त कर जाते हैं , वह नई – नई शोध ,अनुसंधान के वैज्ञानिक कार्य , समाज सेवा के कार्य और राजनीति जैसे क्षेत्र में रहकर भी जनहित के विकास कार्यों को बढ़ाने में सफलता प्राप्त करते हैं ।
वास्तव में कल्पना शक्ति का स्रोत जब फूटता है तो एक लेखक से वह एक लेख ही नहीं बल्कि एक महा ग्रंथ लिखवा देता है । यही स्रोत सरस और निर्मल होकर जब हृदय से रसधार के रूप में फूटता है तो किसी कवि को झंकृत कर उससे किसी कविता का ही नहीं बल्कि किसी कविता के महान ग्रंथ का निर्माण करवा देता है और जब निर्माण के रूप में यह किसी शिल्पकार को आंदोलित करता है तो उससे किसी लाल किले या ताजमहल का निर्माण करवा देता है। जबकि किसी नाटककार से किसी ऐसे महान नाटक का निर्माण करवा देता है जिसे लोग देखकर आंसू बहाने लगते हैं । इसी प्रकार किसी नृत्यकार के पैरों को नाचने के लिए इतना आंदोलित और व्यथित कर देते हैं कि सभागार में बैठे लोग ही उसके साथ झूम उठते हैं । जबकि किसी वक्ता को उसकी वाणी में ऐसा ओज और तेज प्रदान करता है कि लोग उसके साथ उसकी ऊंचाई पर जाकर उसी में लीन हो जाते हैं , झूम उठते हैं और तालियों की गड़गड़ाहट से सारे सभागार को गुंजायमान कर देते हैं। कुल मिलाकर विचार की इस पवित्र और ऊंची अवस्था की साधना में जब भक्त लीन हो जाता है तो एक कल्पना लोक से ऐसे – ऐसे नए-नए हीरे मोती चुन – चुन कर लाता है कि लोग देखकर हतप्रभ हो जाते हैं । इसीलिए कहा जाता है कि कल्पना शक्ति को जगाओ । विचार की शक्ति को पहचानिए और उसके अनुसार अपने आप को ढालने का प्रयास कीजिए । निश्चय ही आपकी शानदार भूमिका से यह संसार जगमगा उठेगा और यदि आप की शानदार भूमिका पर एक बार किसी ने करतल ध्वनि कर संसार को यह आभास करा दिया कि आप भी यहां पर हैं तो समझिए कि जीवन सफल हो

जाएगा।

कल्पना शक्ति एक अद्भुत शक्ति होती है और इसका उपयोग मनुष्य को करना आना चाहिए। अर्थात कल्पना शक्ति का उपयोग करने की विधा को हमें जानना चाहिए । जो लोग इस विधा को उचित प्रकार से समझते हैं वही अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग अपने विकास में और समाज के विकास में कर सकते हैं । प्रत्येक इंजीनियर कोई निर्माण करने से पूर्व एक कल्पना करता है कोई पुल बनाने से पहले कल्पनाओं में पुल बनाता है और फिर उसको धरातल पर यथार्थ स्वरूप में लेकर आता है ।
ऐसे ही मनुष्य को अपने जीवन के विषय में , अपने परिवार के जीवन के विषय में , अपने राष्ट्र के विषय में अपनी आत्मिक उन्नति के विषय में आदि बिंदुओं पर कल्पना करनी चाहिए । उन कल्पनाओं को धरातल पर निष्पादित व संपादित करना चाहिए। कल्पना ही जीवन को बहुविध रंगों में उत्कीर्ण करती है ।
कल्पना शक्ति एक उत्तम क्षमता है। हमारी कल्पना शक्ति का हमारे उत्साह से बड़ा गहरा संबंध है जब यह दोनों एक रस और एकाकार होकर कार्य करते हैं तो मनुष्य दिन प्रतिदिन उन्नति करता रहता है । जब कल्पना शक्ति ठहर जाती है तो जीवन निरर्थक व निराश हो जाता है । जब कल्पना शक्ति काम करती है तो उसमें नए-नए विचार आने से अधूरे कार्य को करने की नई ऊर्जा प्राप्त होती है। कल्पना शक्ति ही एकमात्र ऐसी शक्ति है जो भौतिक क्षमता को उड़ान भरने का कार्य करती है ।
कल्पना शक्ति एक शीतल छांव के सदृश होती है। कल्पना शक्ति से ही जीवन के समस्त रहस्य अनावृत होते हैं । कल्पना शक्ति ही हमारी प्रतिभा का विकास करती है । कल्पना शक्ति में सृजनशीलता छिपी है। सृजनशील कल्पना से ऊर्जा के इस अनंत भंडार को नई दिशा प्रदान करते हुए जीवन को सुफल और सफल बनाया जा सकता है।

कर्म

मनुष्य को कर्म अवश्य करने चाहिए गीता में श्री कृष्ण जी महाराज ने कहा है कि मैं भी कर्म करता हूं । क्योंकि मनुष्य को कर्मशील रहना चाहिए यदि मैं कर्म न करूं तो इससे कर्म शीलता नष्ट होगी कर्म शीलता के नष्ट होने से समाज और व्यक्ति का पतन होना निश्चित होता है अर्थात कर्म शक्ति के अभाव में अच्छे से अच्छा व्यक्ति भी मृतक के समान हो जाता है। निष्क्रिय बन जाता है ।संपूर्ण विश्व कर्म बंधन में बंधा है । सब कुछ कर्म के द्वारा ही विश्व में संचालित हो रहा है । इसलिए संसार में कर्म से बचकर न रहें बल्कि सर्वदा कर्मशील बने रहना चाहिए । विवेक से अपने कर्मों पर दृष्टिपात करना चाहिए कि हम सत्कर्म कर रहे हैं अथवा दुष्कर्म कर रहे हैं ? कर्म से ही शारीरिक और मानसिक श्रम का योग होता है जो हमारी आंतरिक शक्ति को सदैव जागृत रखता है। हम अपने राष्ट्र और समाज और स्वयं के प्रति और परिवार के प्रति जागृत रहते हैं। जीवन में यदि सफलता चाहते हो तो कर्मशील बने रहो।
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि कुछ मनीषियों का कथन है कि कर्म सदा दोषमुक्त होता है-उनका मानना है कि कर्म में दोष रहना ही है, उसे दोषमुक्त किया ही नहीं जा सकता । अत: दोषयुक्त कर्म का त्याग कर देना ही उचित है। जो लोग भक्ति के नाम पर निकम्मे और निठल्ले होकर बैठते हैं वे गलती ही करते हैं। इससे वह यज्ञ, दान, तप और कर्म का त्यागकर निकम्मे होकर बैठ जाते हैं। जबकि गीता की दृष्टि में यह निकम्मापन सर्वथा अक्षम्य है। श्रीकृष्ण जी का कहना है कि यज्ञ, दान, तप और कर्म का कभी भी और किसी भी स्थिति में त्याग नहीं करना चाहिए।
श्रीकृष्णजी की मान्यता है कि त्याग भी सत्व, रज और तम इन तीन प्रकार का होता है। यज्ञ, दान, तप और कर्म कभी भी त्याग करने योग्य नहीं होते हैं। अत: इनका त्याग करने के विषय में मनुष्य को सोचना भी नहीं चाहिए। इन्हें करने में किसी प्रकार के आलस्य या प्रमाद का सहारा नहीं लेना चाहिए। इन्हें तो करना ही चाहिए। क्योंकि यज्ञ, दान, तप और कर्म के करने से तो विद्वान भी पवित्र हो जाते हैं।
सभी कर्मों को फल की आशा से मुक्त होकर अर्थात अनासक्ति भाव से यदि किया जा सकता हो तो उन्हें अवश्य ही पूर्ण करना चाहिए। हे पार्थ यह मेरा निश्चित और अन्तिम मत है।
हमारे शास्त्रों ने ब्रह्मचारियों, गृहस्थियों, वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए जिन कर्मों को विहित कर दिया है अर्थात यह कह दिया है कि ये कर्म तो इन्हें करने ही चाहिएं-वे कर्म उन्हें त्यागने नहीं चाहिएं। यदि फिर भी उन्हें कोई व्यक्ति त्यागता है तो उसका यह कार्य तामस त्याग कहलाता है।
जो व्यक्ति किसी भी नियत कर्म का इसलिए त्याग करता है कि उसके करने से उसे मानसिक कष्ट होता है-या शारीरिक कष्ट होता है, या ऐसे किसी कष्ट के होने की सम्भावना है, भय है तो वह राजस त्याग कहलाता है। ऐसे व्यक्ति को त्याग का कोई लाभ नहीं मिलता है।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी ने कहा है कि हे पार्थ ! जो व्यक्ति अपने लिए शास्त्रविहित कर्म को इसलिए करता है कि ऐसा करना उसका कर्तव्य है और अपने कर्तव्य कर्म के करने में आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा को वह बाधा मानता ही नही है, कष्ट को कष्ट नहीं मानता, अपितु अपने कर्तव्य कर्म को फलाशा और आसक्ति से मुक्त होकर कर डालता है-उसका यह त्याग सात्विक त्याग कहलाता है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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