तेजवानी गिरधर
भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी के हालिया बयान पर बड़ा बवाल हो रहा है। कांग्रेसी तो उन पर हमला बोल ही रहे हैं, भाजपा में भी आग लग गई है। हालत ये हो गई कि गडकरी को खेद जताना पड़ा। असल में उन्होंने कहा ये था कि स्वामी विवेकानंद और दाऊद इब्राहिम का आईक्यू लेवल एक जैसा है। एक ने उसका उपयोग समाज के लिए किया तो दूसरे गुनाह के लिए। सबसे पहले इसे लपका इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने। जैसी कि उसकी आदत है, किसी के भी बयान को सनसनीखेज बना कर पेश करने की, वैसा ही उसने किया। ऐसे में भला कांग्रेस पीछे क्यों रहती। उसने मौका पा कर बयानबाजी शुरू कर दी। इस बीच गडकरी से पहले से तपे हुए भाजपा सांसद राम जेठमलानी ने भी फायदा उठाया। उनके बेटे महेश जेठमलानी ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति से इस्तीफा दे दिया। दोनो पिता-पुत्र ये चाहते हैं कि गडकरी इस्तीफा दें। जेठमलानी तो पहले भी मांग कर चुके हैं, जब गडकरी पर आर्थिक गडबड़ी करने का आरोप लगा। वे यहां तक बोले थे कि उनके पास भी गडकरी के खिलाफ सबूत हैं। सबको पता है कि जेठमलानी जिसके पीछे पड़ जाते हैं तो हाथ धो कर। ऐसे में भला वे ताजा बयान को क्यों नहीं लपकते। मगर असल सवाल ये है कि गडकरी ने आखिर इतना गलत क्या कह दिया।
बेशक उन्होंने विवेकानंद व दाऊद की तुलना की, मगर मात्र इस मामले में कि दोनों दिमागी तौर पर तेज हैं। भला इसमें गलत क्या है? दाऊद का दिमाग तेज है, तभी तो माफिया डॉन बना हुआ है। उन्होंने ये तो नहीं कहा कि दाऊद विवेकानंद की तरह ही महान है। या दाऊद को भी विवेकानंद की तरह सम्मान से देखा जाना चाहिए। असल में हमारी मानसिकता ये है कि किसी भी मामले में ही सही, दोनों की तुलना कैसे की जा सकती है। सारा जोर इस पर है कि सर्वथा विपरीत ध्रुवों की एक दूसरे से तुलना कैसे की जा सकती है, इसी कारण बवाल मचा हुआ है। रहा सवाल गडकरी की मंशा का तो वह बयान के दूसरे हिस्से से ही स्पष्ट है कि एक ने समाज के लिए आईक्यू का इस्तेमाल किया तो दूसरे ने गुनाह की खातिर। इसमें गलत क्या है? यह ठीक इसी तरह से है, जैसे हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान का अवतार मानते हैं, मगर साथ ही रावण को प्रकांड विद्वान भी मानते हैं, जिसने कि अपनी विद्वता का दुरुपयोग किया। मगर हमारे यहां इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में तथ्यों तो अलग ढ़ंग से उभारने की प्रवृत्ति बढ़ी हुई है।
थोड़ी सी भी गुंजाइश हो तो बाल की खाल उतारना शुरू कर दिया जाता है, भावनाएं भड़काना शुरू कर दिया जाता है, जिसका कि गडकरी को ख्याल नहीं रहा। एक जिम्मेदार राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष के नाते उन्हें अंदाजा होना चाहिए था कि उनके बयान से विवाद हो सकता है। भले ही उनकी मंशा पूरी तरह से साफ हो, मगर इतना तो उन्हें पता होना ही चाहिए कि हमारे यहां मीडिया किसी प्रकार काम करता है और आम लोगों की मानसिकता कैसी है, जिसे कि आसानी से भुना लिया जाता है।
सच ये भी है कि गडकरी इससे पहले भी इस तरह के बयान दे चुके हैं, जो कि उनकी मर्यादा के सर्वथा विपरीत थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जब वे बोलते हैं तो कुछ का कुछ निकल जाता है, जो कि उनके लिए परेशानी का सबब बन जाता है। ताजा मामले में भी ऐसा ही हुआ। मगर निष्पक्ष विवेचना की जाए तो उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा, मगर लोकतंत्र में अगर सही को गलत कहने वालों की संख्या ज्यादा हो तो उसे मानना ही पड़ता है। गडकरी ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने खेद जता दिया, हालांकि उन्होंने अपने बयान का खंडन नहीं किया है।
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