लेखक: रमेश तिवारी
राजा भोज ने लिखा है कि क्षत्रिय वर्ण की लकडी़ के बने जहाज -“क्षत्रियकाष्ठैर्घटिता भोजमते सुख संपदम नौका,”सुख संपदा देने वाले होते हैं”-विकट राजमार्गों पर काम दे सकते हैं। “अन्य लघुभिः सुद्दढैर्विदधति जलदुष्पदे नौकाम “। दूसरे प्रकार की लकड़ियों से जो नौकायें( जहाज )बनाई जाती हैं ,उनके गुण अच्छे नहीं होते। मैं आपको एक उदाहरण बताता हूं। नौका निर्माण की भारत की इसी प्राचीन विशेषता को पाश्चात्य लोगों की ईर्ष्या का शिकार होकर आज जहाज निर्माण की उच्चता से हाथ धोना पडा़। यह प्रकरण इतना रोचक और संदर्भित है कि, आपको जानना भी चाहिये। अंग्रेजों का जब भारत से संपर्क हुआ। तब वे यहां के जहाजों को देखकर चकित रह गये। युक्ति कल्पतरू में लिखे अनुसार भारतीय नौकाओं की लंबाई, चौडा़ई बहुत व्यापक और सुंदर होती थी। उनके प्रकार, उनकी सजावट, निर्माण की उत्कृष्टता तथा यात्रियों के मान से वर्गीकरण अनुपम था। उन्होंने देखा कि नावों में राज्य धन, स्त्रियों ,अश्व और स्वयं राजा के बैठने के लिए अलग अलग प्रकार की नावें कैसी होतीं, युद्ध के लिये किस प्रकार की नौकाओं का उपयोग किया जाता है। भारतीय जहाज किस तरह से मितव्ययी है। मजबूत और बेमिसाल भी। खासकर जब ज्यादा से ज्यादा 12 वर्ष में ही अंग्रेजों को अपने जहाज और नावों की मरम्मत करवाना पड़ती थी। सनातनी विज्ञान से बनी भारतीय नौकाओं और जहाजों को ,50 साल तक भी मरम्मत आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वे इस चमत्कार और उपलब्धि को बर्दाश्त नहीं कर सके। उनकी नावों,जहाजों के पैंदों में एकाध वर्ष में ,जल्दी ही छेद हो जाते थे। जबकि भारतीय नावों के पैंदे दस साल तो चलते ही हैं। हां अगर छेद होने भी लगें तो तत्काल तल्ला बदलने की अद्भुत कला उनको आती थी। ऐसे सक्षम जहाज और नौकायें जब पहली बार इंग्लैंड पहुंचे। अंग्रेजों के दिलों पर सांप लोटने लगे। मुंबई के कारखाने में 1736 से 1833 तक 300 जहाज बन चुके थे इनमें ऐशिया नामक जहाज तो 2289 टन भार को ढो़ने की क्षमता रखता था। और इसी जहाज में सुरक्षा के लिये 84 तोपें भी लगीं थी। भारतीय कुशल कारीगरों के धैर्य और लगन को देखकर भौचक्के अंग्रेज व्यापारी सोचने लगे कि अगर भारतीय नौका निर्माण उद्योग चलता रहा तो उनकी कौम तो बर्वाद हो जायेगी। भारतीय परिवहन तो सस्ता भी बहुत है उन्होंने चुपके से पहले तो यह कला सीखी। फिर हंगामा करने लगे। अपनी संसद पर दबाव बनाने लगे। तब ब्रिटिश संसद ने अततः भारतीय जहाजों से माल ढो़ने पर पाबंदी लगा दी। 1833 में कानून बना डाला। कोई भी भारतीय जहाज भारत और इंग्लैंड के बीच माल का परिवहन नहीं करेगा। और भी ऐसी शर्तें डाल दीं जिससे भारत का यह उद्योग ही बंद हो जाये। पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया। हालाकि वे 1814 में ही अपनी संसद में यह कानून पास कर चुके थे। कितु लागू 33 में हुआ। ।अब भारत में निर्मित और भारतीय मजदूरों वाला कोई भी जहाज इंग्लैंड नहीं जा सकता था। भारतीय नौका निर्माण की इस कला का अंग्रेज संसद ने गला घोंट दिया। प्राण निकाल लिये। और इस प्रकार से कालीकट, मुंबई ,ढाका, चटगांव और कलकत्ता का यह प्राचीन महान उद्योग समाप्त कर दिया गया। हालाकि सनातनी सत्य को बर्बाद करने वाले वे इस लायक हैं तो नहीं, किंतु उन्हीं अंग्रेजों को आप लोग सर, सर कहकर पुकारते थे, उन्हीं में से एक अंग्रेज सर विलियम डिगवी ने इस जहाज प्रकरण पर लिखा -“पाश्चात्य संसार की रानी ने इस तरह प्राच्य संसार की रानी का वध कर दिया। अब मैं आपको पुनः ले चलता हूं। जहाजरानी क्षेत्र के स्वर्णिम काल में-“न सिंधुगाद्याहर्ति लौहबंधं, तल्लौहकान्तैर्हियते च लौहम। जहाजों के पैंदों में कभी भी लोहे का उपयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि संभव है कि समुद्र की चट्टानों में कहीं चुम्बक हो। तो स्वाभाविक रूप से वह जहाज को अपनी ओर खींचेगा ,जिससे जहाजों को खतरा हो सकता है। भारतीय जहाजरानी उद्योग की इस व्यथा को कथा के रूप में हम आगे भी निरंतरित रखेंगे।
✍🏻रमेश तिवारी