प्राचीन समय में भारत और पश्चिमी दुनिया के बीच व्यापार संबंध
व्यापार तथा वाणिज्य भारत के आर्थिक जीवन का प्रमुख तत्व रहा है । वस्तुतः यह यहाँ के निवासियों की समृद्धि का प्रधान कारण था । अत्यन्त प्राचीन काल से ही यहाँ के निवासियों ने व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में गहरी दिलचस्पी दिखाई । राज्य की ओर से भी व्यापारियों को पर्याप्त प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान किया गया ।
परिणामस्वरूप यहाँ का आन्तरिक एवं बाह्य दोनों, ही व्यापार विकसित हुआ । जहाँ विश्व के अन्य देशों के साथ भारत का सम्बन्ध सांस्कृतिक एवं राजनीतिक था, वहाँ पश्चिमी विश्व के साथ यह प्रधानतः व्यापार-परक था ।
भारत के पश्चिमी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्धों की प्राचीनता प्रागैतिहासिक युग तक जाती है । ज्ञात होता है कि सिन्धु सभ्यता के निवासियों का मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता के निवासियों के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था ।
उर, किश, लगश, निमुर, तेल अस्मर, टेपे, गावरा, हमा आटि मेसोपोटामियन नगरों से लगभग एक दर्जन सैन्धव मुहरें प्राप्त होती हैं जो व्यापारिक प्रसंग में वर्हो पहुंचायी गयी थीं । मुहरों के अतिरिक्त सोने, चाँदी तथा ताँबे के आभूषण, करकेतन के मनके, मोती, हाथी दात के कच्चे, मिट्टी के विभिन्न प्रकार के वर्तन, लकड़ी की वस्तुयें आदि भी मेसोपोटामियन नगरों से मिलती है ।
ये वहाँ की वाजारों में विक्री के निमित्त व्यापारियों द्वारा ले जाई जाती थीं तथा वहाँ सं मिस, अनातोलिया, कीट आदि देशों को जाती थीं । चेहरीन द्वीप की खुदाई में मिले सैन्धव सभ्यता के कुछ अवशेषों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ के व्यापारी सिन्धु तथा मेसोपोटामिया के व्यापारियों के मध्य बिचौलियों का काम किया करते थे ।
दूसरी और सुमेरियन उत्पत्ति की अनेक वस्तुयें जैसे सफेद सगमरमर की मुहर, रेखित कार्लेनियन एका, हथौड़ा, भेड का खिलौना, मिटटी की मुहरें आदि सिन्धु घाटी के विभित्र स्थलों से भी प्राप्त होती है । मोहेनजोदड़ो से सुमेरियन मुहर प्राप्त होती है ।
सुमेरियन शासक सारगोन (2371-2316 ई॰ पू॰) के समय के कुछ लेखों से पता चलता है कि उर तथा अन्य नगरों के व्यापारियों का ‘मेलुहा’ के व्यापारियों के साथ सम्बन्ध था तथा वे वहाँ से आबनूस तथा अन्य इमारती लकड़ियों, सोना, चाँदी, ताँवा, लाजावर्द, माणिक्य के मनके, हाथी दाँत की बनी रंगीन कंघी, पशु-पक्षी, आभूषण अंजन, मोती आदि वस्तुयें मँगाते थे ।
‘मेलुहा’ का समीकरण सिन्ध प्रदेश अथवा इसमें स्थित मोहेनजोदडो से किया जाता है । इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि सैन्धव सभ्यता के समय में ही भारत का पश्चिमी जगन् के साथ व्यापारिक सम्बन्ध न केवल स्थापित हो चुका था अपितु यह अत्यन्त विकसित भी था । यह व्यापार मुख्यतः जल-मार्ग से होता था ।
लोथल उस काल का प्रसिद्ध समुद्री बन्दरगाह था, जैसाकि वहाँ से प्राप्त गोदीबाड़ा से स्पष्ट होता है । वैदिक युग में भी पश्चिमी जगत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध चलता रहा । भारत के व्यापारी फारस की खाड़ी तक जाते थे तथा वहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया करते थे । इस काल में सिन्धु प्रदेश में उत्तम कोटि के वस्त्रों का निर्माण होता था ।
ऋग्वेद से सूचित होता है कि सिन्धु प्रदेश के पानीदार घोड़े, शक्तिशाली रथ तथा ऊनी वस्त्र पूरे विश्व में प्रसिद्ध थे । इसी प्रकार गन्धार प्रदेश चिकने तथा सुन्दर ऊन के लिये प्रसिद्ध था । ऊनी वस्त्र, हाथी-दांत की वस्तुयें, रत्न तथा – द्रव्य भारत से पश्चिमी देशों को भेजे जाते थे । ये वस्तुयें वहाँ काफी लोकप्रिय थी ।
बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था । पश्चिमी भारत में इस समय सोपारा तथा भूगुकच्छ प्रसिद्ध वन्दरगाह थे जहाँ विभिन्न देशों के व्यापारी अपनी जहाजों में माल भरकर लाते तथा ले जाते थे ।
वाबेरू जातक से पता चलता है कि भारतीय व्यापारी वेवीलोन में कौवे तथा मोर की विक्री करते थे । जातक ग्रन्थों में कई स्थानों पर व्यापारियों द्वारा समुद्री यात्रा करने तथा कभी-कभी जहाजों के दुर्घटनाग्रस्त होने के उल्लेख है ।
क्लासिकल लेखकों के विवरण भी भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक सम्बन्धों की पुष्टि करते है । ईसा पूर्व छठा शती के मध्य साइरस महान के नेतृत्व में ईरान में हखामनी साम्राज्य की स्थापना हुई । उसके उत्तराधिकारी दारा प्रथम (522-486 ई॰ पू॰) ने सिन्धु तथा पंजाब को जीतकर भारत को अपने साम्राज्य का एक प्रान्त बना लिया ।
इस समय भारत का पश्चिमी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ा । दारा के नौसेनाध्यक्ष स्काइलैक्स ने दोनों देशों के बीच एक नये समुद्री मार्ग का पता लगाया । यह लाल सागर से होकर गुजरता था । इससे होकर भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों में गये तथा उन्होंने काफी धन कमाया ।
पश्चिमोत्तर सीमा से कुछ ईरानी सिक्के मिलते हैं । इनसे भी ईरान के साथ भारतीय व्यापार की पुष्टि हो जाती है । भारतीय व्यापारी ईरान होते हुए मिस तथा यूनान तक जाते और व्यापार करते थे । सिकन्दर के आक्रमण के बाद भारत तथा यूनान के बीच व्यापारिक सम्बन्ध तेज गया ।
क्लासिकल विवरणों से पता चलता है कि भारत में नौकाओं तथा पोतों का निर्माण प्रचुर रूप में होता था जिनसे होकर व्यापारी पश्चिमी देशों को जाते थे । टालमी के अनुसार- भारत के पश्चिमी प्रदेशों से दो हजार नौकाओं में लादकर अश्व तथा अन्य पदार्थ नियार्कस भेजे गये थे ।
मौर्य युग में भारत ने अभूतपूर्व राजनैतिक एकता का साक्षात्कार किया । इस काल की सुदृढ़ राजनीतिक परिस्थितियों ने व्यापार-वाणिज्य की प्रगति में महान् योगदान दिया । इस समय भारत का व्यापार सीरिया, मिस्र तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ स्थापित हुआ । यूनानी-रोमन लेखक भारत के समुद्री व्यापार का वर्णन करते है ।
एरियन लिखता है कि भारतीय व्यापारी मुक्ता वेचने के लिये यूनान के बाजारों में जाते थे । व्यापारिक पोतों का निर्माण इस काल का एक प्रमुख उद्योग था । अर्थशास्त्र से पता चलता है कि इस समय व्यापारी विदेश जाते थे । नवाध्यक्ष तथा पण्याध्यक्ष नामक अधिकारी विदेश जाने वाले व्यापारियों की देख-रेख किया करते थे ।
विदेशी सार्थवाहों का भी उल्लेख मिलता है जो उत्तरी-पश्चिमी भारत के स्थल मार्गों से व्यापार के लिए आते थे । मौर्य युग में भारत तथा मिस्र के बीच व्यापार उन्नत दशा में था । मिस्र के राजा टालमी ने इस व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिये लाल सागर के तट पर ‘बरनिस’ नामक एक बन्दरगाह बनवाया था । यहाँ से मिस के प्रसिद्ध बन्दरगाह सिकन्दरिया के लिये तीन स्थल मार्ग जाते थे ।
अशोक के लेखों से पता चलता है कि सीरिया, एशिया माइनर, यूनान, मिस्र आदि देशों के साथ उसके सम्पर्क थे । इन देशों में उसने अपने धर्म प्रचारक भेजे थे । कहा जा सकता है कि धर्म प्रचार के साथ ही साथ इनके साथ व्यापारिक सम्बन्ध भी स्थापित हुए होंगे । अर्थशास्त्र से पता चलता है कि मौर्यों की राजधानी में विदेशी नागरिकों की देख-रेख के लिये एक अलग समिति थी ।
मौर्य साम्राज्य के पतनोपरान्त दकन में सातवाहनों तथा उत्तर-पश्चिम में कुषाणों का मजबूत शासन स्थापित हुआ इस काल में भारत का मध्य एशिया तथा पश्चिमी देशों, विशेषकर रोम के साथ व्यापारिक सम्बन्ध काफी बढ गया ।
भारत-रोम सम्बन्ध:
यद्यपि भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच सम्पर्क के प्राचीनतम संदर्भ मिलते है, तथापि इस बात के स्पष्ट प्रमाण है कि भारत का पाश्चात्य जगत विशेषकर रोम के साथ घनिष्ठ वाणिज्यिक सम्बन्ध ईस्वी सन् के प्रारम्भ के लगभग आरम्भ हुआ ।
पाम्पेई नगर की खुदाई में भारतीय शैली में निर्मित हाथीदाँत की बनी यक्षिणी की एक मूर्ति मिली है जिसका काल ईसा पूर्व दूसरी शती माना जाता है । उपलब्ध साहित्यिक एवं पुरातात्विक प्रमाणों से सूचित होता है कि आगस्टस काल (ई.पू. 27-14) में उत्तर पश्चिम तथा भारतीय उपमहाद्वीप के प्रायद्वीपीय क्षेत्रों, दोनों के साथ रोम का व्यापारिक सम्बन्ध विकसित हो गया था ।
ये आर्थिक गतिविधियाँ ईसा की प्रथम दो शताब्दियों तक तेज हो गयीं तथा आगामी शादियों में भी कुछ कम मात्रा में चलती रहीं, जबकि शक, पह्लव तथा कुषाणों के अधीन उत्तर भारत का व्यापार स्थल मार्ग से होता था तथा वाणिज्य मुख्यतः परिवहन व्यापार जैसा था ।
भारत के दक्षिणी क्षेत्रों तथा रोम के बीच व्यापार सीमान्त का था । इस व्यापार में रोमन प्रजा तथा भारतीय व्यापारियों दोनों ने गहरी अभिरुचि ली तथा उन्हें अपने शासकों से भी सहायता प्राप्त हुई क्योंकि उन्हें भी इससे प्रभूत लाभ मिलता था । पेरीप्लस प्लिनी के विवरण आदि से पता चलता है कि भारत के व्यापारी तथा नाविक अफ्रिका तथा अरबियन समुद्र तट पर उपस्थित रहते थे ।
क्लासिकल विवरण से यह भी सूचित होता है कि प्रिंसिपेट (आगस्टस) काल में भारत से दूतमण्डल रोम जाया करते थे । वरमिंगटन क्लासिकल विवरण के आधार पर चार ऐसे दूतमण्डलों का उल्लेख करता है जो भारत के विभिन्न भागों-उत्तर पश्चिम, भड़ौच (काठियावाड़ क्षेत्र) तथा दक्षिण के चेर और पाण्डच्य राज्यों से आगस्टस के शासनकाल में रोम गये थे ।
मार्क अन्तोनी से जस्टिनियन (ई.पू. 30 – ई॰ 550) तक भारत-रोम सम्बन्ध सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा । ट्रेजन के विषय में एक प्रसंग मिलता है जिसके अनुसार 116 ई. में भारत की ओर जाने वाले एक जहाज को देखकर उसने यह इच्छा व्यक्त करते हुए कहा था ‘यदि में युवा होता तो, अभी इस पर कूद कर बैठ जाता ।’ दक्षिण भारत में प्राप्त सिक्कों का अध्ययन करने के उपरान्त सेवेल का निष्कर्ष है कि इस व्यापार का चरमोत्कर्ष आगस्टस काल में हुआ तथा नीरो के समय (65 ई.) तक यह बना रहा ।
इसी समय भारत से विलासिता-सामग्री बहुत अधिक भेजी गयी । किन्तु वरमिंगटन ने इससे असहमति प्रकट करते हुए लिखा है कि इसका कोई प्रमाण नहीं है कि व्यापार में गिरावट आई, अपितु इसके प्रमाण है कि नीरो के बाद भी व्यापार अवाध गति से चलता रहा ।
ज्ञात होता है कि आगस्टस ने एक दूतमण्डल का स्वागत टर्रक्को (स्पेन) में ईसा पूर्व 26-25 तथा दूसरे का समोस में ई.पू. 21 में किया था । स्ट्रोवो लिखता है कि किसी भारतीय शासक ने आगस्टस के दरवार में अपना दूतमण्डल भेजा था । इस शासक की पहचान पोरस से की जाती है ।
मार्ग की कठिनाइयों के कारण मात्र तीन व्यक्ति ही वहाँ पहुँच सके । वे अपने साथ एरक भुजाहीन व्यक्ति, साँप तथा कछुआ ले गये थे । सुदूर दक्षिण के पाण्ड्य शासकों ने भी आगस्टस के दरबार में अपने दूत भेजे थे ।
आगस्टस के बाद भी भारतीय दूतमण्डलों का रोम जाना बना रहा । टर्जन (107 ई.) तथा हेडियन (117-118 ई.) ने भी भारतीय दूतमण्डलों का स्वागत किया था । स्पष्टतः ये दूतमण्डल वाणिज्यिक प्रकृति के थे जिनका उद्देश्य रोमन व्यापारियों को धा प्रदान करना था। इससे सूचित होता है कि भारत के लोग रोम के साथ बढ़ते हुए व्यापार में स्थायी रुचि रखने थे क्योंकि यह उनके लिये लाभकारी था ।
प्रथम शताब्दी (लगभग 45 ई.) में एक यूनानी नाविक हिप्पोलस ने भारतीयों को अरब सागर में चलने वाली मानसूनी हवाओं के विषय में जानकारी दी । इस खोज ने भारत-रोम व्यापार के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया । गहरे समुद्र में यात्रा करना संभव हुआ तथा भारतीय व्यापारी अरब सागर होकर पश्चिमी एशिया के बन्दरगाह पर पहुँचने लगे ।
बताया गया है कि हिप्पोलस की इस खोज के पूर्व जहाँ मिस के नगरों से पूर्व की ओर साल में लगभग बीस जहाज जाते थे, वहीं उसके बाद प्रतिदिन औसतन एक जहाज जाने लगा । इससे एक ओर समय की बचत हुई तो दूसरी ओर समुद्री डाकुओं से भी छुटकारा मिला जो पहले तटवर्ती जहाजों को लूटा करते थे । भारत-रोम व्यापार का दबाव प्रधानत दक्षिण तथा प्रायद्वीपीय क्षेत्रों पर ही था ।
पेरीप्लस से हमें पश्चिमी तथा पूर्वी समुद्र तट पर स्थित बन्दरगाहों एवं बाजारों के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है तथा आयात-निर्यात की वस्तुओं की भी सूचना दी गयी है । स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण दकन तथा तमिल देश इसमें शामिल था ।
पश्चिमी तट के बन्दरगाह बेरीगाजा (भड़ौच), सोपारा, कल्याण, मुजिरिसी, नेल्सिन्डा तथा पूर्वी तट के बन्दरगाह एवं मण्डियों कोल्वी, कमरा (कावेरीपत्तन) पोदुका, सोपत्मा आदि थे । भारत-रोम व्यापार का संतुलन हमेशा भारत के पक्ष में रहा । चूंकि रोम साम्राज्य भारतीय माल के बराबर माल नहीं दे पाता था, अतः बदले में उसे दुर्लभ सोने तथा चांदी के सिक्के देने पड़ते थे ।
प्लिनी लिखता है कि भारतीय माल रोम के बाजारों में अपनी मूल लागत के सौ गुने दाम पर बिकते थे । वह भारत को बहुमूल्य पत्थरों एवं रत्नों का प्रमुख उत्पादक बताता है । उसके अनुसार रोम प्रतिवर्ष भारत में विलासिता सामग्रियाँ खरीदने में दस करोड़ सेस्टर्स करता था । अपने देशवासियों की इस अपव्ययता के लिये वह निन्दा करता है ।
भारत के वस्त्र, प्रसाधन सामग्री, आभूषण आदि की रोम के बाजार में भारी खपत थी रोम की नारियाँ भारतीय वस्त्रों एवं प्रसाधन सामग्रियों की बड़ी शौकीन थी । भारतीय वस्त्रों एवं प्रसाधनों से सुसज्जित वे युवा वर्ग के आकर्षण का केस बनी तथा रोमन युवक विलासिता में निमग्न हो गये । चिन-शु इतिवृत्तियों से भी इसकी पुष्टि होती है जहाँ बताया गया है कि रोम साम्राज्य से व्यापार में पार्थियनों तथा भारतीयों को सौ गुना लाभ होता था ।
डायोन क्राइस्टीम भारतीयों की गणना उन लोगों में करता है जो रोमनों की मूर्खता के कारण उनसे कर प्राप्त करते थे तथा रोमनों की गणना उन लोगों में करता है जो अपनी विलासी इच्छाओं की पूर्ति के लिये जानबूझ कर ऐसे दूरस्थ एवं समुद्र के लोगों के पास धन भेजते है जो आसानी से उनकी भूमि पर कदम नहीं रख सकते । यह वस्तुतः एक एवं निर्लज्ज कार्य है ।
रोमन शासक टाइबेरियस ने इस प्रकार धन के बहिर्गमन पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए सीनेट में शिकायत दर्ज कराई थी । पेरीप्लस से भी पता चलता है कि भारत से मसाले, मोती, मलमल, हाथी-दाँत की वस्तुयें, औषधियाँ, चन्दन, इत्र आदि बहुतायत से रोम पहुँचते थे तथा बदले में रोम का सोना भारत आता था । पेरीप्लस के अनुसार- ‘शायद ही कोई वर्ष ऐसा हो जब भारतीय व्यापारी रोम से कम से कम, साढ़े पाँच करोड़ सेस्टर्स न प्राप्त करते ही ।’
पेरीप्लस में भी बेरीगाजा, मुजिरिसी तथा नेलसिन्डा के बन्दरगाहों पर आयातित होने वाले बड़ी मात्रा में रोमन स्वर्ण तथा रजत सिर्फों का विवरण मिलता है । यह स्थिति ईसा की प्रथम दो शताब्दियों में विद्यमान रही । उत्तरी भारत के रोम का व्यापार अपेक्षाकृत अप्रत्यक्ष था । तक्षशिला अधिकांशतः भिन्न-भिन्न भागों से आने वाले माल का संग्रह-स्थल था ।
रेशम मध्य एशिया होते हुए चीन से आता था । पार्थिया तथा रोम के संघर्ष के कारण वह चीनी माल को सीधे रास्ते रोम तक नहीं जाने देता था । चीन तथा रोम के बीच विलासिता सामग्रियों के व्यापार में भारतीय व्यापारी मध्यस्थता करने लगे जो एक लाभ का सौदा था ।
चीन को रोमन साम्राज्य के पश्चिमी प्रान्तों को जोडने वाला मार्ग मध्य एशिया से ही गुजरता था । इसे सिल्क मार्ग कहा जाता था क्योंकि चीन से होने वाले रेशम का समस्त व्यापार अधिकतर इसी मार्ग से होता था । कुषाणों ने इस पर अपना अधिकार कर रखा था ।
भारत रोम के बीच स्थल व्यापार कुषाणों के इस क्षेत्र पर आधिपत्य जमा लेने के कारण ही संभव हो सका । गान्धार तथा तक्षशिला के बाजारों में रोमन माल की काफी खपत थी लेकिन रोमन व्यापारियों को बदले में देने के लिये यहाँ बहुत कम माल होता था ।
अंत: सम्भवत यहाँ के व्यापारियों ने कुषाण शासकों से समान मूल्य एवं मान के सिक्के निर्गत करने के लिये प्रार्थना की होगी जिससे विनिमय संबंधी बाधा दूर की जा सके । कुषाणों ने यह मांग पूरी कर दी क्योंकि उनके स्वर्ण सिक्के रोमन व्यापारियों को आसानी से मान्य हो गये ।
तमिल क्षेत्र में काली मिर्च, हाथीदाँत, मोती, मलमल, रेशम आदि का प्रचुर उत्पादन होता था तथा इन वस्तुओं की रोम में बडी मांग थी । चूंकि उसके बदले में देने के लिये रोमनों के पास कोई उत्पाद नहीं था, अतः वे सिक्कों के रूप में स्वर्ण का निर्यात करते थे । 1775 से अब तक रोमन स्वर्ण रजत सिद्धों की 68 निधियां तमिल क्षेत्र से प्राप्त हो चुकी है । न केवल महाराष्ट्र, आन्ध्र, कर्नाटक तक के दक्षिणी क्षेत्र से अपितु उत्तर में विदर्भ तक के क्षेत्र से भी रोमन सिक्के मिले हैं ।
इनकी सौराष्ट्र क्षेत्र में काफी मांग थी जहाँ से रोम के साथ नियमित वाणिज्य सम्पर्क था । वरमिंगटन का विचार है कि दक्षिण में प्राप्त रोमन सिक्के उस विशाल मात्रा के छोटे भाग का प्रतिनिधित्व करते है, जो भारतीय व्यापारी अपने माल के बदले रोमनों से प्राप्त करते थे ।
स्वर्ण सिक्के विदेशी व्यापार में तथा चाँदी के सिक्के छोटी लेन-देन में प्रयुक्त होते थे । रोमन जानबूझकर अपनी मुद्रा का निर्यात करते थे ताकि भारत में वाणिज्यिक मुद्रा की कमी को पूरा करने के लिये रोमन मुद्रा का निर्माण किया जा सके । सातवाहन राजाओं गौतमीपुत्र, यज्ञश्री आदि के सीसे से कुछ सिक्कों पर दो मस्तूलों वाले जहाजी बेड़े का चित्रण मिलता है ।
यह सघन भारतीय-रोमन व्यापार का है जिसमें सातवाहनों के अधीन क्षेत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी । रोमन सिक्कों पर भी जहाज का अंकन मिलता ।संगम साहित्य से भी भारत-रोम के बीच घनिष्ठ वाणिज्यिक सम्पर्क सूचित होता है । तमिल देश के प्रसिद्ध बन्दरगाहों पुहार, कोर्कश्, शालियूर, बन्दर आदि का उल्लेख मिलता है जहाँ रोमन व्यापारियों के गोदाम रख कार्यालय थे ।
कोर्कई मोती खोजने का प्रमुख पत्तन था । मुशिरी, पुहार, तोण्डी आदि में यवन व्यापारियों की बस्तियां थी । ज्ञात होता है कि वे अपने जहाजों में सोना भरकर मुशिरी बन्दरगाह पर उतरते थे तथा उसके बदले में काली मिर्च एवं समुद्री रत्न ले जाते थे ।
साहित्यिक विवरण की पुष्टि पुरातात्विक प्रमाणों से भी हो जाती है । सुदूर दक्षिण के कई स्थानों से रोमन सम्राटों आगस्टस, नीरो, टाइबेरियस आदि के स्वर्ण सिक्के मिले है । कोरोमण्डल समुद्र तट पर पाण्डिचेरी के पास अरिकमेडु पुरास्थल की खुदाई से भारत-रोम संबंधों पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है ।
यहाँ एक विशाल रोमन बस्ती का पता चलता है जो व्यापारिक केन्द्र थी तथा इसी के पास एक बन्दरगाह भी था । ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ तक इसका उपयोग होता रहा । यहाँ से सबसे बड़ा मालगोदाम, दो छोटे-छोटे जलकुण्ड (रंगाई के हौज), रोमन दीप के टुकड़े, कांच के कटोरे, मनके, रत्न तथा बर्तन पाये गये हैं । एक मनके के ऊपर आगस्टस का चित्र बना हुआ है ।
इनसे सूचित होता है कि यहाँ एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था जहां देश के विभिन्न भागों से व्यापारिक वस्तुयें एकत्र की जाती थीं तथा फिर उन्हें रोम भेजा जाता था । मनके के निर्माण का यहाँ कारखाना भी था । यहां मलमल तथा अन्य वस्तुओं का निर्माण संभवत रोमन लोगों की पसन्द के अनुसार किया जाता था जो जहाजों में भरकर रोम भेजा जाता था ।
उत्तरी-पश्चिमी भारत में स्थित तक्षशिला से भी रोमन उत्पत्ति की कई वस्तुयें-मनके, रत्न, धातु के बर्तन, कांच के कटोरे, धूपदानी आदि-मिलती है । ऐसा प्रतीत होता है कि तक्षशिला स्थल मार्ग से रोम आने-जाने वाले व्यापारियों का प्रमुख स्थल था । सेवेल के मतानुसार भारत तथा रोम का यह व्यापारिक सम्बन्ध पहली शती ई. से तीसरी शती ई. तक अपने विकास की पराकाष्ठा पर था ।
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि कुषाण राजवंश के पतनोपरान्त भारत-रोम व्यापार संबंधों में गिरावट आई । प्रमाण स्वरूप मन्दसोर लेख (पाँचवीं शती) के उस संदर्भ की चर्चा की जाती है जिसके अनुसार रेशम का व्यापार करने वाली चुनकरों की एक श्रेणी (पट्टवाय श्रेणी) ने लाट प्रदेश से दशपुर में प्रवजन किया था । एस. के. मैती का विचार है कि इससे लगता है कि अब रोम के साथ व्यापार लाभप्रद नहीं रह गाया ।
लेकिन यह निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं है । उल्लेखनीय है कि रोम के साथ स्थल मार्ग से भी व्यापार होता था तथा यह चौथी शताब्दी में रतना विकसित हुआ कि सिल्क जो आर्लियन के काल (161-180 ई.) में सोने से तौलकर बेचा जाता था तथा धनी और कुलीन वर्ग की विलासिता की वस्तु था, वह जूलियन के काल (361-363 ई.) वैध में इतना भरता हो गया कि सामान्य मनुष्य भी उसे खरीद सकता था ।
अतः यह नहीं कहा जा सकता कि गुप्त युग में भारत-रोम व्यापार पतनोन्मुख रहा । रोमन इतिहास से पता चलता है कि 408 ई. में हूण आक्रान्ता एलरिक ने के रूप में तीन हजार पौण्ड गोल मिर्च तथा चार हजार थान रेशमी वस्त्र रोमन नरेश से लिया था । इससे सूचित होता है कि पाँचवीं शती में भी रोम में भारतीय माल की प्रचुरता बनी हुई थी ।
रोम के पतन के बाद उसका स्थान कान्स्टैनटिनीपुल अथवा बैजेन्टियम ने ग्रहण किया । कान्स्टेनटाइन महान् ने 330 ई. में उसे अपने शासन का केन्द्र बनाया । इस समय से भारत-रोम सम्बन्ध और प्रगाढ़ हुए । चिकित्सा प्रबन्धों में पता चलता है कि वहाँ के बाजारों में सभी प्रकार के भारतीय मसाले प्रचुरता में प्राप्त थे ।
जस्टिनियन लॉं डाइजेस्ट में आयातित वस्तुओं की जो सूची मिलती है उनमें अधिकतर भारतीय मूल की है । भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त बैजेन्टियम सिक्के भी दोनों देशों के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्धों की गवाही देते है ।
अतः साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से सूचित होता है कि भारत तथा रोम के बीच सम्बन्ध ईसा की प्रारम्भिक शती से प्रारंभ होकर पाँचवीं शती तक निरन्तर बना रहा । व्यापार की दो सबसे महत्वपूर्ण सामग्रियों थीं-रेशमी वस्त्र तथा गरम मसाला । इनके साथ-साथ मोती, शंख, चन्दन, इत्र, हाथी दाँत की वस्तुयें, जटामासी, जवाहरात आदि का भी रोमवासी भारत से आयात करते थे ।
इनके बदले में भारत पहुँचने वाली रोमन सामग्रियाँ थीं रत्न, मनके, मदिरा पात्र (एम्फोरे) ओपदार अरेटाइन मृदभाण्ड, दीप, कांच की वस्तुमें, स्वर्ण-रजत सिक्के, कांसे के वर्तन एवं मूर्तियाँ आदि । व्यापार सन्तुलन भारत के पक्ष में था । भारतीय वस्तुओं के बदले रोमन स्वर्ण मुद्राओं की धारा भारत की ओर वहती थी जो देश की अप्रत्याशित समृद्धि का कारण बनी ।
दक्षिण भारत में रोमन व्यापार का आर्थिक प्रभाव सुस्पष्ट था किन्तु उत्तर में रोम-यूनानी विचारों तथा कला-कौशल का प्रभाव ही अधिक देखने को मिलता है । पण्य-वस्तुओं के विनिमय के फलस्वरूप विचारों के आदान-प्रदान का प्रारम्भ हुआ तथा दोनों ओर से अधिकांशतः तकनीकी शब्दों का आदान-प्रदान इस विनिमय का प्रत्यक्ष परिणाम था ।
भारतीय लोक कथायें तथा आख्यायिकायें पश्चिम की ओर गई तथा उन्हें यूरोपीय साहित्य में स्थान दिया गया । क्लासिकल लेखकों स्ट्रेबों, एरियन, प्लिनी आदि ने भारत के विषय में काफी लिखा । सर्वाधिक पृत्यक्ष एवं दर्शनीय प्रभाव कला के क्षेत्र में पड़ा जबकि पश्चिमोत्तर भारत में गन्धार शैली का विकास हो गया । इस पर यवन-रोमीय (ग्रीको-रोमन) शैली का स्पष्ट प्रभाव था ।
धर्म के क्षेत्र में भारत तथा रोम की कुछ विचारधाराओं में समानता दिखाई देती है । रोम के देवता जूपिटर भारतीय देवता द्यौस के निकट है । रोमन दार्शनिक सिसरो पर भारतीय दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है । कुछ विद्वानों के मान्यता है कि ईसाई धर्म में समानता, भाईचारा, दया आदि का जा भाव दिखाई देता है, वह भारतीय बौद्ध धर्म का ही प्रभाव है । बौद्ध संघ के गठन के आधार पर ईसाई चर्च का गठन हुआ ।
इसी प्रकार बौद्ध चैत्य-गृहों का आकार ईसाई गिरजाघरों से बहुत कुछ मिलता है जिसमें नेव (मण्डप), आइल (प्रदक्षिणापथ) तथा एप्स (गर्भगृह) होते है । भारतीय भाषा के विभिन्न शब्द भी रोम की भाषा में मिलते है जैसे भारतीय शर्करा एवं कर्पूर के लिये रोम में सकरुम तथा कैम्पर शब्द प्रचलित थे ।
इसी प्रकार भारतीय ज्योतिष का रोमक सिद्धान्त रोम विचारों से ही प्रभावित लगता है । रोमन राजाओं के अनुकरण पर भारतीय कुषाण राजाओं ने भी मृत शासकों की स्मृति में मन्दिर तथा मूर्तियां (देवकुल) बनवाने की प्रथा प्रारम्भ किया था । गुप्त राजाओं ने अपने सिक्कों की तौल रोमन ‘डेनेरियस’ नामक स्वर्ण मुद्राओं के आधार पर निर्धारित किया । कुछ विद्वान् भारतीय स्वर्णमुद्रा दीनार की उत्पत्ति रोमन ‘डेनेरियस’ से ही मानते है।
गुप्त युग में भी भारत का व्यापार पश्चिमी जगत् के साथ अवाधगति से चलता रहा । कुमारस्वामी के अनुसार यह काल पोत निर्माण के लिये सर्वाधिक उल्लेखनीय है । इस काल के कुछ जहाजों में एक साथ 500 व्यक्ति यात्रा कर सकते थे । इस समय जल तथा थल दोनों ही मार्गों से पश्चिमी देशों के साथ व्यापार होता था ।
भारत से जहाज फारस तथा अरब के समुद्रतट से होते हुये लाल सागर तथा वहाँ से रोम को जाते थे । रोम के अतिरिक्त यूनान, मिस तथा पश्चिमी एशिया, ईरान आदि के साथ भी भारत का व्यापारिक सम्बन्ध था । पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित भृगुकच्छ इस समय भी प्रसिद्ध बन्दरगाह था जहाँ से भारतीय व्यापारी जहाजों में माल लादकर पश्चिमी देशों को ले जाते थे ।
हाथी-दाँत, गोमेद, लाल मलमल, मोटा वस्त्र, रेशम, सूत, लम्बी पीपल आदि वस्तुयें पश्चिमी बन्दरगाहों से विदेशों को जाती थी । हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि उत्तर-पश्चिम में कपिशा एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था । यहाँ भारत के विभिन्न भागों से वस्तुये आती थीं तथा उन्हें ईरान के मार्ग से यूरोप तक ले जाया जाता था ।
ए. के. मैती तथा आर. अस. शर्मा जैसे कुछ विद्वानों का विचार है कि गुप्तकाल में भारत तथा रोम के बीच व्यापारिक सम्बन्धों में गिरावट आई और इस प्रकार यह काल आर्थिक दृष्टि से पतन का काल रहा । किन्तु यह विचार तर्कसंगत नहीं है । इसकी विस्तृत समीक्षा हम गुप्त युगीन संस्कृति के अन्तर्गत कर चुके है ।
हर्ष काल (सातवीं शताब्दी) को विद्वानों ने आर्थिक दृष्टि से पतन का काल निरूपित किया है । हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि इस समय तक कई जार तथा शहर वीरान हो चुके थे । इस काल में मुद्रायों तथा मुहरों का घोर अभाव था । इससे सिद्ध होता है कि यह व्यापार-वाणिज्य के पतन का काल था तथा समाज उत्तरोत्तर कृषिमूलक होता जा रहा था ।
पूर्व मध्यकाल (650-1200 ई.) में भी भारतीय मालवाहक जहाज अरब, फारस, मिस्र आदि देशों को जाया करते थे । हेमचन्द्र के अनुसार अरब से भारत में घोड़े मँगाये जाते थे । परसिया से रंग भारत को आता था । इब्न-खुर्दद्वा के विवरण से पता चलता है कि चन्दन, कपूर, लौंग, जायफल, कबाब चीनी, नारियल, मखमली कपड़े, हाथीदाँत, मोती, बिल्लौर, कालीमिर्च, शीशा, बांस, बेंत आदि भारत से ईराक तथा अरब के देशों को जाते थे ।
किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस युग में अतिरिक्त उत्पादन के अभाव ने दूरवर्ती देशों के साथ व्यापार को प्रभावित किया तथा यह सीमित हो गया। राजपूत काल में सामन्तों के छोटे-छोटे राज्य स्थापित हुये जो अपनी शक्ति और प्रभाव बढ़ाने के लिये परस्पर संघर्ष में उलझ गये ।
सामन्तों ने व्यापार-वाणिज्य को हतोत्साहित किया तथा आत्म-निर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया । निरन्तर युद्धों के कारण भी व्यापार की प्रगति में बाधा पहुँची। विद्वानों ने आर्थिक विकास की दृष्टि से पूर्व मध्यकाल को दो भागों में विभाजित किया है । प्रथम भाग (650-1000 ई.) में व्यापार-वाणिज्य का हास हुआ ।
रोम साम्राज्य का इस समय तक पतन हो चुका था । इस कारण पश्चिमी देशों के साथ भारत का व्यापार बन्द हो गया । इस्लाम के उदय के कारण भी भारत के स्थल मार्ग से होने वाला व्यापार प्रभावित हुआ । इसी कारण इस काल में हमें स्वर्ण मुद्राओं तथा मुहरों का अभाव देखने को मिलता है ।
स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन बन्द हो गया तथा चाँदी एवं तांबे की मुद्रायें भी बहुत कम ढलवायी गयीं । नगरों के पतन के कारण व्यापारी गांवों की ओर उन्मुख हुये । किन्तु इस काल के दूसरे भाग (1000-2000 ईस्वी) में व्यापार-वाणिज्य की स्थिति में सुधार हुआ ।
इस समय कुछ बड़े राज्यों- चौहान, परमार, चन्देल आदि की स्थापना हुई तथा विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा । इन राजवंशों के सम्राटों ने व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन प्रदान किया । सिक्कों का प्रचलन पुन: प्रारम्भ हो गया ।
मुस्लिम सत्ता स्थापित हो जाने के बाद से मुसलमान व्यापारियों तथा सौदागरों की गतिविधियाँ तेज हो गयीं जिसके फलस्वरूप उत्तरी भारत में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति हुई । ग्यारहवीं शती तक आते-आते भारत का पश्चिमी देशों के साथ व्यापार पुन तेज हो गया तथा देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हुआ ।
यही कारण है कि इस काल के सिक्के तथा मुहरें बड़ी संख्या में मिलती उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत के चालुक्य, पल्लव, पाण्ड्य तथा चोल राजाओं के काल में भी भारत का पाश्चात्य जगत् के साथ व्यापार अत्यन्त विकसित रहा । चोलों के समय में फारस के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो गया ।
फारस की खाडी के पूर्वी तट पर स्थित सिरफ प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द था । आबूजैद के विवरण से पता चलता है कि भारत के व्यापारी बड़ी संख्या में वहाँ जाते थे तथा मुसलमान व्यापारियों के साथ सम्पर्क स्थापित करते थे । आबूजैद ने लिखा है कि सिरफ से व्यापारी जहाज लाल सागर होकर चीन नहीं जाते अपितु जेद्दा से लौटकर भारत चले आते थे ।
कारण कि भारत के समुद्र में मोती तथा अम्बर पाये जाते थे तथा यहीं के पहाडों में रत्नों और सोने की खानें थीं । दकन के राष्ट्रकूट शासकों ने अरब व्यापारियों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखा क्योंकि उनसे माल खरीदने में उन्हें लाभ होता था ।
दक्षिण भारत में इस समय कई प्रसिद्ध बन्दरगाह थे जिससे होकर पश्चिमी देशों को जाया जाता था । इनमें खम्भात, भडौंच, सोमनाथ, कोलम्, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । कोलम् सुदूर दक्षिण में पश्चिमी तट पर वसा हुआ था । सुदूर दक्षिण तथा समुद्र पार के पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक गतिविधियों का यह प्रमुख केन्द्र था । पश्चिमी देशों से आने वाले जहाज यहाँ रुकते थे । अरब जाने वाले चीनी जहाजों का भी यह विश्राम-स्थल था ।
भारत से पश्चिमी देशों को जाने के लिये तीन प्रमुख व्यापारिक मार्ग थे । पहला मार्ग सिन्धु नदी के मुहाने से समुद्रतट होते हुये फारस की खाड़ी में स्थित दजला-फरात तक जाता था । दूसरा थल मार्ग था जो हिन्दूकुश दरों से होकर बल्ख और ईरान होते हुये अन्तियोक तक पहुँचता था तथा तीसरा जल मार्ग फारस तथा अरब के तटवर्ती प्रदेशों से होते हुये लाल सागर को पार कर यूनान तथा मिस की ओर जाता था । भारतीय व्यापारियों ने अधिकांशतः जल मार्गों का ही उपयोग किया ।
इस प्रकार भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच व्यापारिक सम्बन्ध प्रागैतिहासिक युग से प्रारम्भ होकर बारहवीं शती तक निर्वाध रूप से चलता रहा । यह अधिकांशतः भारत के लिये ही लाभकारी सिद्ध हुआ तथा उसकी समृद्धि का एक महत्वपूर्ण साधन बना ।
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