राज्य की कार्यपालिका और मंत्रालय
भारत का राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 77 के उपधारा (3) के अंतर्गत प्रधानमंत्री की सलाह पर मंत्रालय की स्थापना करता है तथा प्रत्येक मंत्री को कार्य सौंपता है। भारत वर्ष में कार्यपालिका की अवधारण बहुत प्राचीन है। भारत के राजनीतिक इतिहास और वेदों की राजनीतिक व्यवस्थाओं से अनभिज्ञ लोगों ने भारत में मंत्रिमंडल के बारे में यह मिथ्या धारणा विकसित की है कि मंत्रिमंडल का बनाया जाना भारत ने अंग्रेजी काल से सीखा व समझा है।
प्रतियोगी परीक्षाओं में सम्मिलित होने वाले विद्यार्थियों के लिए एक ऐसी ही पुस्तक हम पढ़ रहे थे। जिसमें लिखा था कि (सर्वप्रथम) मई 1843 में ईष्ट इण्डिया कंपनी ने चार विभागों (मंत्रालयों) का गठन किया था, जिनमें से गृह विभाग भी एक प्रमुख मंत्रालय था। उस समय इसे नाम दिया गया गृह विभाग का। आजादी मिलने पर 1947 में इसका नाम गृहमंत्रालय कर दिया गया। भारत के विदेशमंत्री के विषय में हमें पढ़ाया जाता है कि 1783 से पहले भारत में विदेश विभाग नही था। 1783 में अलग से एक विदेश विभाग का गठन किया गया। 1843 में संयुक्त सचिवालय की व्यवस्था समाप्त की गयी। 1914 में इस विभाग का नाम विदेश और राजनीति विभाग कर दिया गया। 1946 में बनी अंतरिम सरकार में विदेश विभाग तथा राष्ट्रमंडलीय संबंधी विभाग को इस मंत्रालय में रखा गया। मार्च 1949 में इस मंत्रालय का नाम विदेश मंत्रालय रखा गया।
इसी प्रकार वित्त मंत्रालय के विषय में बताया जाता है कि इस मंत्रालय का उद्भव या विकास 1810 से प्रारंभ हुआ। 1860 में भारत सरकार ने एक नवीन योजना अंतर्गत वाणिज्य से संबंधित सभी विषय वित्ता विभाग को सौंप दिये। स्वतंत्रता के पश्चात इस विभाग को वित्त मंत्रालय का नाम दिया गया। वे आंकड़े विदेशी इतिहास लेखकों के हैं। जिन्हें यथावत हमारे देशी इतिहास लेखकों ने आंखें मूंदकर यथावत लिखा है। विदेशी इतिहास लेखकों का इन तथ्यों को लिखने का उद्देश्य अपने देश (ब्रिटेन) और जाति को भारतीयों के देश और जाति से उत्कृष्ट सिद्घ करना था, जबकि हमारे वर्तमान इतिहास लेखकों द्वारा इन तथ्यों पर अपनी स्वीकारोक्ति प्रकट करना उनके द्वारा अपने इतिहास के प्रति अरूचि और प्रमाद जनति इतिहास बोध के अभाव को स्पष्ट करता है।
भारत में प्राचीनकाल में कार्यपालिका : भारत में प्राचीन काल से ही राजनीतिक संस्थानों का अस्तित्व रहा है। हमें सदा स्मरण रखना चाहिए कि योजना सदा किसी ने किसी योजनाकार के द्वारा ही फलीभूत होती है। व्यवस्थापक के द्वारा नीति किसी नीतिकार के द्वारा और राष्ट्र किसी राष्ट्रचिंतक के द्वारा गतिशील होता है। योजना योजनाकार के बिना मर जाती है, व्यवस्था अपने व्यवस्थापक के बिना मर जाती है, नीति अपने नीतिकार के बिना तथा राष्ट्र अपने चिंतकों के अभाव में मर जाता है। राष्ट्र चिंतन के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रचिंतकों की अपनी भाषा हो, अपनी मेधा हो, अपना मस्तिष्क हो और अपनी मान्यताएं हों। उधारी मनीषा राष्ट्र का विकास नही विनाश किया करती है।
हमारे राष्ट्रचिंतक ऋषि लोग इस बात से भली प्रकार परीचित थे। इसलिए प्राचीन भारत में राजनीतिक संस्थानों का भली प्रकार विकास हुआ। डॉ उदयशंकर पाण्डेय लिखते हैं-आधुनिक व्यवस्था के प्राय: सभी कार्य वैदिक एवं स्मृतिकाल से चले आ रहे हैं। भले ही युग एवं काल क्रम से होने वाले परिवर्तनों के कारण उनके स्वरूप से पुरोहित अमात्य, मंत्री, ग्रामणी, सेनापति, विश्पति,दूत, पंडित, सुमंत, सचिव प्रधान, प्रतिनिधि, प्राडविवाक, इत्यादि महत्वपूर्ण थे। इनके अतिरिक्त प्रादेशिक, जनपदीय शासक एवं विभिन्न विभागों के प्रधान की भूमिका महत्वपूर्ण थी। सभी इकाईयों का एक प्रधान होता था, जो अपने से उच्च इकाई के प्रधान के प्रति उत्तरदायी होता था। इस प्रकार अंतिम इकाई राजा या राष्ट्राध्यक्ष होता था। अन्य सब सहयोगियों की मदद से व्यवस्थापिका द्वारा प्रतिपादित कानूनों एवं आदेशों का क्रियान्यन कराता था। यह व्यवस्था वैदिक काल में भी थी। उपरोक्त तथ्यों के रहते हुए यह कहना नितांत भ्रामक है कि भारत में मंत्रालयों के विभागों की स्थापना का क्रम अंग्रेजों के द्वारा अमुक समय पर अमुक प्रकार से चलाया गया।
हमें एक बात पर विचार करना चाहिए कि वैदिक धर्म से अलग संसार में अन्य जितने भी मत प्रचलित हैं उनमें से भी अधिकांश मत आस्तिकवादी हैं। वे सब भी मानते हैं कि विश्व की व्यवस्था को चलाने वाली कोई अदृश्य सत्ता है। जिसे वह अपना अपना नाम देते हैं। अब यदि ऐसी कोई अदृश्य सत्ता है, जो इस दृश्यमान जगत को चला रही है, तो उस अदृश्य सत्ता के विषय में यह मानना है कि उसकी सृष्टिï में क्रमिक विकास होता है, गलत है। जो शक्ति स्वयं में पूर्ण है, वह नही कह सकते कि उसकी व्यवस्था में पहले दिन यह दोष था, जो अगले दिन शुद्घ किया गया, फिर दूसरे दिन की अमुक अशुद्घि को तीसरे दिन इस प्रकार शुद्घ किया गया और तीसरे दिन की अमुक अशुद्घि को चौथे दिन इस प्रकार शुद्घ किया गया। ऐसा नही हो सकता है कि बंदर से विकसित होकर इंसान बन जाए। बंदर पहले दिन भी बंदर था और इंसान भी पहले दिन भी इंसान था और आज भी हैं तथा दोनों आज भी अपने अपने रूपों में है।
ऐसी परिस्थितियों में यह नही माना जा सकता है कि ईश्वर ने सृष्टिï बनायी और इस सृष्टिï की व्यवस्था के लिए मनुष्य के अंत:करण में कोई ज्ञान नही दिया। जंगल के लिए जाते अपने बच्चों को माता पिता भी समझाकर भेजते हैं कि वहां इस प्रकार से रहना है, और इस प्रकार से सफल मनोरथ होकर वापस लौटना है। इसी प्रकार की व्यवस्था का और दिशा निर्देशों का जो बच्चा अनुपालन करता है, वह सफल मनोरथ होकर ही जंगल से लौटता है। बस, यही व्यवस्था उस जगज्जनी जगन्नियंता ईश्वर की है। उसने भी संसार रूपी जंगल में भेजने से पूर्व मनुष्य को वेद ज्ञान दिया और उसे दिशा निर्देश दिये कि वहां जाकर अमुक अमुक प्रकार से व्यवस्था बनानी है फिर उस व्यवस्था में अपनी सहभागिता और उपयोगिता सिद्घ करनी है। यदि आप ऐसा नही कर पाते हैं तो निश्चय ही आपकी यात्रा में व्यवधान उत्पन्न होंगे। कष्ट आएंगे जो स्वयं तुम्हारे ही पतन का कारण बनेंगे। तुम रास्ता भटक जाओगे। और बीहड़ जंगल के नदी नालों में गड्ढों में और खंदकों में ही अटक भटक कर मर जाओगे। मेरे पास तुम्हारा लौटना तुम्हारा मोक्ष है और संसार के जंगल में भटक कर नदी नालों में मर जाना तुम्हारी मृत्यु है।
इतनी आदर्श व्यवस्था को और ज्ञान शैली को उस विधाता का विधान ही कहा जाता है। यही उसकी विधि है। अत: ज्ञात हुआ कि हमारे पास युगों पूर्व से विधि, विधान और विधाता सभी तो उपलब्ध रहे हैं। उसी विधि को उसी विधान को मनुष्य ने संसार में एक विधाता (राजा-मंत्री, जन प्रतिनिधि) बनाकर लागू कराना चाहा। इसलिए यह विधाता राजा ईश्वर का रूप माना गया। इस विधाता के लिए यह अनिवार्य था कि वह अपने विधि विधान को सृष्टि नियमों के अनुकूल बनाएगा, प्रकृति और ईश्वर प्रदत्त व्यवस्था को वह चलाने के लिए लोक की दी हुई शक्ति के माध्यम से चलाने का प्रयास करेगा। वह तानाशाह नही होगा, अपितु ईश्वर का न्यायप्रिय, लोकप्रिय और जनप्रिय प्रतिनिधि होगा। इसलिए वेदों ने राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना। यह वैदिक धारणा हमें कुछ प्रकार बतायी और समझायी गयी है कि जैसे वेदों ने एक मनुष्य की तानाशाही प्रवृत्ति को बढ़ावा देने का सिद्घांत प्रतिपादित किया और राजा को असीम अधिकारों से सुशोभित कर जनता पर अत्याचार करने के उसे असीम अधिकार प्रदान किये।
यह अवधारणा सिरे से ही गलत है। ईश्वर न्यायकारी है यह मत वेदों का है। ईश्वर कल्याणकारी है यह मत भी वेदों का है। ईश्वर दयालु है, सर्वरक्षक है, कृपालु है, सर्व व्यापक है, सर्वान्तर्यामी है। उसका दण्ड भी अपराधी को सुधारने के लिए मिलता है। वह हिंसक नही है, वह अत्याचारी नही है, वह दलन, शोषण और उत्पीडऩ करने वाला भी नही है। अब यदि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है, तो समझो कि उसके भीतर उपरोक्त गुणों का समावेश स्वभावत: समाहित होना चाहिए। उसे ईश्वर की भांति की न्यायप्रिय होना चाहिए, वह सर्वरक्षक हो, अपनी प्रजा पर सदा कृपालु रहे, दयालु रहे, अपने गुप्तचरों के माध्यम से जनता में सर्वव्यापक बना रहे।
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