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भारतीय संस्कृति

आंख मूंदकर चल पड़ो एक अनोखी राह

विनम्रता

अपने से ज्ञान श्रेष्ठ , बल श्रेष्ठ और आयुश्रेष्ठ किसी भी व्यक्ति , माता – पिता , गुरु -आचार्य से यदि हमको कोई शिक्षा प्राप्त करनी है तो उसके लिए जिज्ञासा भाव के साथ – साथ हमारा विनम्र होना भी अनिवार्य है । क्योंकि विद्या जहां विनम्रता प्रदान करती हैं , वहीं बिना श्रद्धा के वह प्राप्त नहीं हो सकती । वैसे भी जिस व्यक्ति को जिस चीज की आवश्यकता होती है उसके लिए अनिवार्य है कि वह विनम्र भाव लेकर उस व्यक्ति के पास जाए , जिससे वह चीज उसे मिल सकती है । तभी वह सद्भाव के साथ उसे वह चीज दे सकता है और उसके प्रति पूर्ण सहयोगी दृष्टिकोण भी अपना सकता है ।

शरण बड़ों की जाइए चरण पकड़ लो सीख ।
भाव विनम्र बनाइए , तभी मिलेगी भीख ।।

यदि विनम्रता नहीं होगी तो वह व्यक्ति सीख नहीं पाता अर्थात शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। क्योंकि उसकी मनोवृति उतने स्तर की नहीं होती। महाप्रज्ञ और स्थित प्रज्ञ बनने के लिए विनम्रता अति आवश्यक है । तभी आप शिक्षा को ग्रहण कर पाएंगे। रामचंद्र जी ने रावण को युद्ध में परास्त कर दिया तो उसके पश्चात भी उससे राजनीति का ज्ञान प्राप्त किया। जब वह ऐसा कार्य कर रहे थे तो उन्होंने अपने आपको शिष्य भाव से रावण के समक्ष प्रस्तुत किया और उससे विशेष रूप से यह निवेदन किया कि आप राजनीति के अनेकों उतार-चढ़ाव देख चुके हैं । इसलिए मुझे भी राजनीति के विशेष गुर दीजिए ।इसके पश्चात रावण ने जितना संभव था , अपना अनुभवजन्य ज्ञान रामचंद्र जी को दिया । रावण जैसे व्यक्ति के द्वारा राम को इस प्रकार उपदेश दिया जाना तभी संभव हो पाया जब रामचंद्र जी स्वयं शिष्य भाव से विनम्र होकर उसके सामने नतमस्तक होकर खड़े हो गए।

परस्पर सम्मान

मनुष्य को परस्पर एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए। इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सम्मान प्राप्त करना चाहता है यदि उसे अपेक्षित सम्मान आगे से मिल रहा है तो वह अपने जीवन को सार्थक समझता है इतना ही नहीं यदि वह आपके पास आया है तो आपके द्वारा उसका सम्मान होने पर ही वह अपने आने को सार्थक मानता है । यदि आप की ओर से उसे अपेक्षित सम्मान प्राप्त न हो तो वह अपने आने को भी निरर्थक मानेगा । इसी प्रकार जो व्यक्ति संसार में आया है यदि उसको दर-दर की ठोकरें खानी पड़े या अपमानों का जहर हर दरवाजे पर पीना पड़े तो वह अपने जीवन को और इस संसार में आने को भी निरर्थक मानने लगता है । जिससे एक व्यक्ति की आह संपूर्ण मानव समाज को प्राप्त होती हैं। अतः किसी व्यक्ति का सम्मान करने का अभिप्राय होता है कि एक जीवन का आप सार्थक सम्मान कर रहे हैं। इस प्रकार उस को सम्मान देकर आप ईश्वर की उस सृजनशीलता को सम्मान दे रहे हैं जिसके अंतर्गत उसे बनाकर ईश्वर ने यहां भेजा है । इसीलिए नर में नारायण देखने की बात कही जाती है।
यही कारण है कि संसार के समझदार लोग न केवल बड़ों का सम्मान करते हैं अपितु अपने से छोटों का भी उचित आदर सत्कार करते हैं यह इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि आने वाला हो सकता है कि हमसे आयु में छोटा हो परंतु आयु में छोटे होने का अभिप्राय यह नहीं कि वह हमसे ज्ञान और प्रतिभा में भी छोटा हो । हो सकता है कि वह भी हमें कुछ शिक्षा दे जाए , इसलिए उसके अमूर्त व्यक्तित्व का सम्मान करना हमारा नैतिक दायित्व है।
धर्म ,अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के परम साधन यही है। आदर सम्मान में जीवन के सारे सद्गुण समाहित हैं।दया, क्षमा, करुणा ,सहनशीलता, परोपकार ,अहिंसा, सत्य, प्रेम और सौहार्द आदि गुणों के प्रेरणा स्रोत सम्मान ही है।

मिथ्या सम्मान

जितने हम सम्मान की इच्छा रखते हैं उतना ही मान लीजिए कि हम अपने लिए परेशानी भी बुलाते हैं। क्योंकि जहां सम्मान नहीं मिलेगा वहां आपको कष्ट होगा । इसलिए सम्मान की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। वास्तव में यह एक नकारात्मक सोच है । मेरा दबदबा हो ,मेरा रुतबा हो, मुझे सब सम्मान करें ,यह अच्छी आदत नहीं है , इनको छोड़ देना चाहिए। क्योंकि इससे मनुष्य के अंदर अहंकार पैदा होता है और अहंकार से विनाश होता है। मनुष्य को चाहिए कि प्रेम , अपनत्व और सहयोग से सम्मान प्राप्त करें , उसी में स्थायित्व है।

लोकैषणा त्यागिये , त्यागो पद की चाह ।
आंख मूंदकर चल पड़ो एक अनोखी राह ।।

राष्ट्रभक्ति

राष्ट्रभक्ति व राष्ट्र धर्म भी मनुष्य के अंदर अवश्य होने चाहिए। अपने राष्ट्र की बलिवेदी पर बलिदान करने वाले होना चाहिए उसी से राष्ट्र सुरक्षित होता है ।वेदों में भी इसी प्रकार की प्रार्थना की गई है कि ऐ राष्ट्र ! हम तुम पर स्वयं को बलिदान करने वाले बनें ।
इसी भावना से ओतप्रोत होकर अनेकों वीर और महापुरुषों ने अपने प्राणों की बलि देकर राष्ट्र की रक्षा की है। जिस देश का अन्न खाया है , जिस देश की भूमि से पैदा कपास के कपड़े पहने हैं , जिस भूमि का जल पिया है , जिस भूमि पर हमने जन्म लिया है और जिस देश की भूमि को अपने मल मूत्र से हमने गंदा किया है उसके लिए बलिदान करना राष्ट्र धर्म का निर्वाह करना होता है। इसीलिए मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है :-

जिसमें न निज गौरव न निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है ।।

जीवन ध्येय

प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का ध्येय सुनिश्चित करना चाहिए ।मन की साधना के माध्यम से हम इस पवित्र कार्य को संपन्न कर सकते हैं इसी को पूर्ण मनोयोग से कार्य का किया जाना भी कहा जाता है। मन के भटकाव से भटकना नहीं चाहिए , बल्कि परमात्मा की सुंदर सृष्टि में रहते हुए असली आनंद को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए । परमधाम परमानंद को प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए । जीवन में चाहे कोई भी बाधा आ जाए हमें अपने लक्ष्य से भटकना नहीं चाहिए बल्कि लक्ष्य को पूरी शक्ति के साथ प्राप्त करना चाहिए। यदि हम अपने लक्ष्य से निष्ठा पूर्वक जुड़े हों तो लाख बाधाओं के बावजूद हमें कोई उससे दूर नहीं कर सकता ।
मानव मानव के प्रति समर्पित हो यही उसकी मानवता है और प्रत्येक जीव या प्राणी के प्रति भी वह अपना दृष्टिकोण सहयोगी रखे ,यह उसका देवत्व को प्राप्त करना है। यही मानव धर्म है। ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ एवं ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का सिद्धांत जो वेद में प्रतिपादित किया गया है , उसके अनुसार मनुष्य को आचरण करना चाहिए।
संसार में आने के पश्चात यह समझनाव सोचना चाहिए कि हम सभी एक ही पिता की संतान होने से एक ही परिवार के सदस्य हैं । इसलिए किसी के प्रति भी ना तो वैमनस्य रखेंगे ना वैर विरोध का भाव रखेंगे। सभी को जीने के समान अवसर ही उपलब्ध नहीं करेंगे बल्कि एक दूसरे के जीने में और मरने में साथ रहेंगे । अपना दृष्टिकोण इस प्रकार का होना चाहिए कि हम स्वयं तो उन्नति करेंगे ही दूसरों को उन्नति करने में सहायता भी प्रदान करेंगे । जब ऐसा परिवेश सृजित और निर्मित होता है तो मानवता मुखरित होती है ।
सभी मनुष्यों को परस्पर प्रेम पूर्वक व्यवहार करना चाहिए अपना परिवार मानकर। मनुष्य को भेदभाव नहीं करना चाहिए। मानव को अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं छोड़ना चाहिए , क्योंकि सभ्यता और संस्कृति के बिना मानव का विकास असंभव है। मानव धर्म की वास्तविकता और उपादेयता इसी में है कि मनुष्य के विकास के साथ ही साथ विश्व भर के लोग सुख शांति और प्रेम के साथ रहें। मनुष्य को प्रत्येक दूसरे मनुष्य में और सभी प्राणियों में एक ही जगत नियंता परमात्मा का ज्योति को देखना चाहिए। ऐसा मनुष्य ही राजनीतिक , आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक विकास करता है। मानव धर्म का पालन करने से आध्यात्मिकता और नैतिकता स्वयमेव ऐसे मनुष्य के पास डेरा डाल देती हैं। मनुष्य के अंदर नैतिक आदर्श उच्च कोटि का होना चाहिए। मनुष्य का ईश्वरीय सत्ता में विश्वास होना चाहिए।

पुरातन सनातन मूल्य

प्राचीन भारतवर्ष को गौरवपूर्ण स्थान विश्व में प्राप्त रहा है। सदियों तक भारतवर्ष की संस्कृति का डंका विश्व में बजता रहा है , क्योंकि इसकी संस्कृति बहुत महान है और संस्कृति महान होने के कारण ही भारत महान रहा है। मर्यादा बहुत उच्च कोटि की रही हैं और यह मर्यादाएं , संस्कृति और सभ्यता हमारे लिए बहुत ही पुरातन एवं सनातन हैं ।इनका शाश्वत मूल्य है। हमारी संस्कृति ने ही मनुष्य को प्रत्येक प्रकार से आदर्श प्रदान करके उच्च कोटि का मानव बनाया है , जिसने विश्व में सम्मान पाया है। केवल हमारी सनातन संस्कृति में ही ऋषि-मुनियों ने वह सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं जिनसे इंसान को स्वर्ग का प्रतिनिधि होना बताया गया है। हमें अपने शाश्वत मूल्यों को सनातन और पुरातन संस्कृति को बचाने का अभियान चला कर भारत को पुनः विश्वगुरु के पद पर पदस्थापित कराना होगा।
हमारे पड़ोस में बिसरख ग्राम हैं। जो पुलस्त्य मुनि के पुत्र विश्वश्रवा का जन्म स्थान है। यह घटना त्रेता युग की है। विश्व भर के लोग जिस ऋषि को सुनने के लिए, अपनी शंकाओं के समाधान करने के लिए, अपने दुखों को दूर करने के लिए दूर-दूर से आते थे। उस ऋषि को विश्व श्रवा की उपाधि दी गई थी ।विश्व का तात्पर्य दुनिया और श्रवा का तात्पर्य जिसको सुना जाए।
इस ऋषि के यहां रावण पैदा हुआ था। विश्व जिसका श्रवण करता था और विश्व जिसके पास आकर के अपनी शंकाओं का समाधान करता था उसको लोग उड़ समय विश्व रक्षक नामक स्थान से पुकारते थे। उसी का अपभ्रंश होकर अब बिसरख कहा जाता है। इस एकमात्र उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि हमारी संस्कृति कितनी शाश्वत है, कितनी प्राचीन हैं, कितनी पुरातन हैं, और कितनी सनातन है।

सफलता

जीवन में प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक प्रकार से सफलता प्राप्त करना चाहता है।जिस उद्देश्य की प्राप्ति करना चाहते हैं अर्थात जिसमें आप सफलता प्राप्त करना चाहते हैं , पहले उसमें आपको समर्पण करना होगा। आप के समर्पण , निष्ठा और लगन के फलस्वरूप ही आप अपने लक्ष्य को प्राप्त करके सफलता को प्राप्त करोगे। इसके लिए 24 घंटे मेहनत करनी पड़ती है और एक सकारात्मक ऊर्जा पैदा करनी होती है । यह सकारात्मक ऊर्जा ही मनुष्य के जीवन की दिशा बदल देती है । मनुष्य की कर्तव्य परायणता , उसका चरित्र बल , उसका आचार विचार , उसकी सामाजिक व्यावहारिकता यह सब मिलकर व्यक्ति को सफल बनाते हैं । चाहे आपको किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करनी है , उसके लिए आपको उद्देश्य बनाकर उसी के प्रति समर्पण करना होगा।

व्यस्तता की सार्थकता

यदि मनुष्य चाहे कि वह प्रतिक्षण अच्छी सोच में व्यस्त रहे तो इसी को सार्थक व्यस्तता कहते हैं। यदि मनुष्य के अंदर सार्थक सोच होगी तो उसकी व्यस्तता भी सार्थक होगी। सार्थक सोच के रहते हुए नकारात्मक शक्तियां एवं सोच मनुष्य पर प्रभावी नहीं होती। कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर होता है । इसलिए दिमाग को खाली मत रहने दो। उसको सार्थक सोच में लगाया जाए अर्थात उसको सकारात्मक सोच में व्यस्त रखो । यदि मनुष्य को दुस्वप्नों से बचना है तो शाम को सोते समय गायत्री का जाप करते हुए सोना चाहिए। हमारे वेदों में शयनकालीन मंत्रों का भी विधान किया गया है। जिनकी संख्या ऋषि दयानंद ने 6 रखी है।

प्रार्थना का स्वरूप

प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की आराधना और प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। प्रार्थना का तात्पर्य है परमात्मा के करीब होना और उससे करीबी रिश्ता जोड़ कर अपने कार्यों की और अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु ईश्वर से मांगना। जब हम ईश्वर के अति निकट होते हैं तो वह हमारे अंतर्मन के भाव को समझता है। वह हमारे अंतर्मन में क्या चल रहा है , इसको भी जानता है अर्थात उसके सामने शब्दों की आवश्यकता नहीं रहती , वह हमारे मौन को भी सुनता है। प्रार्थना तो मनुष्य को अंदर से बलवान बनाती है और जब मनुष्य मन से प्रार्थना करता है तो ईश्वर उसको अवश्य सुनते हैं।
प्रार्थना के समय भावों की पवित्रता एवं पूर्ण निष्ठा होनी चाहिए प्रार्थना में शब्द और भाषा का कोई स्थान नहीं है। प्रार्थना ईश्वर केवल उन्हीं की सुनते हैं जिनका मन पवित्र होता है। प्रार्थना से ही विनम्रता भी आती है । प्रार्थना से ही मनुष्य के अंदर निर्भयता आती है। सद्विचारों से ही प्रार्थना को बल मिलता है।

सन्मार्ग

वास्तव में मनुष्य को जीवन की समझ उसके अनुभव के आधार पर पैदा होती है । ऐसे विरले ही उदाहरण हैं जिनको बचपन में समझ पैदा हो गई थी । वे ऐसे लोग प्रारब्ध के कर्म और संस्कारों के आधार पर बचपन में ही समझ जाते हैं और ऐसे लोग बचपन से ही अपनी क्षमताओं का समुचित आकलन और नियोजन करने लगते हैं । प्रायः यह अनुभव में आया है कि मनुष्य सन्यास की अवस्था में अधिक समझ रखता है , जोकि वह उस समय तक जीवन के अनेक अनुभवों से गुजर चुका होता है । इसलिए वह अनुभवों का न्यासी अर्थात सन्यासी बन जाता है। सन्यासी का अभिप्राय होता है सम्यक न्यास पूर्वक जीवन जीने वाला अर्थात संसार के राग और द्वेष से मुक्त होकर उनसे विचारपूर्वक दूरी बनाए रखकर जीवन जीने वाला ।
ऐसा मनुष्य ही सन्मार्ग को प्राप्त करता है । जीवन की वास्तविक राह पर अग्रसर होता है ।उसके अंदर जो क्षमताएं सुप्त रूप में पड़ी हुई होती है वे जागने लगती है। क्षमताएं असीम होती हैं , परंतु यह सोई हुई पड़ी रहती हैं । कोई भी मनुष्य संसार में ऐसा नहीं है जिनको ऐसी दिव्य विभूति से वंचित ईश्वर ने किया हो बल्कि दिव्य विभूतियां मनुष्य के अंदर छिपी पड़ी रहती है। इन्हीं क्षमताओं के सही समझ और परिस्थितियों के सही नियोजन से विकास की ऐसी अविरल धारा फूट पड़ती है जिसे हम प्रतिभा कहते हैं।

सद कर्तव्य

मानव का जीवन बहुत ही मुश्किल से प्राप्त होता है और इसको व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए , बल्कि मनुष्य को अपने जीवन में अच्छे कार्य करने चाहिए। निश्चित हो चुका है कि अच्छे कार्य करने से ही भाग्य और प्रारब्ध बनता है । अच्छे कार्य करने से ही मनुष्य को अच्छा परिणाम प्राप्त होता है , इसलिए सद कार्य, सद कर्तव्य करते रहना चाहिए। सत कार्यों के करने से मनुष्य के मन बुद्धि पवित्र होते हैं । जिनका प्रभाव चित्त और अहंकार पर भी पड़ता है । जब चित्त चतुष्टय पवित्र हो जाता है तो अंतःकरण पवित्र हो जाता है और जब अंतःकरण पवित्र हो जाता है तो भक्ति सार्थक हो उठती है।
शास्त्रोक्त कर्तव्यों का विधान पूर्वक पालन करना उनके अनुसार ही आचरण करना चाहिए।

उपेक्षा

उपेक्षा के भाव से मनुष्य में दूसरे मनुष्य के प्रति अनादर का भाव प्रतीत होता है। हमें एक दूसरे का अनादर और उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी उपेक्षा को कभी सहन नहीं कर सकता ।यह उसकी मानवीय कमजोरी है और यहीं से विवाद उत्पन्न होना प्रारंभ हो जाता है । इसलिए उस विवादास्पद स्थिति को उत्पन्न होने से बचाने के लिए उपेक्षा को हमें त्यागना चाहिए। उपेक्षा से जीवन विध्वंसात्मक बनता है । एक दूसरे को सम्मान करने से जीवन क्रियात्मक होता है। उपेक्षा से मनुष्य विद्रोही होता है , उससे समाज में अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि वह प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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