बाहर के किवाड़ लगाकर भीतर के खोल दो

सुख

ऊपर हमने स्पष्ट किया कि सुख और दुख दोनों इंद्रियों के विषय हैं। इंद्रियों को जो अच्छा लगे वह सुख है और जो बुरा लगे वह दुख है । इंद्रिया जिन विषयों में सुख खोजती हैं वह अंततः हमारे शरीर और आत्मा का पतन करते हैं । जिससे शरीर रुग्ण होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और आत्मा अपने उस मार्ग से वंचित हो जाता है , जिस पर चलकर अपनी उन्नति करने के लिए वह इस संसार में आया था । यह इंद्रियां जब मन पर हावी हो जाती हैं तो उसे कभी चैन से नहीं बैठने देती । मन बेचैन रहता है , वह उद्विग्न रहता है , कभी उदास होता है , कभी हताश होता है तो कभी निराश होता है ।
मन के इन आवेगों और स्थितियों का यह इंद्रियां अपने हित में भरपूर उपयोग और प्रयोग करती हैं । वह जितना ही अधिक हताश , उदास , निराश और दुखी होता है उतना ही यह उसे और अधिक भ्रमित कर विकल्पों में फंसा डालती हैं । जिससे वह कभी उभर नहीं पाता।
हम सुख के अक्षय स्रोत की खोज में इंद्रियों के फैलाए हुए जाल में नीचे उतरते चले जाते हैं और मालूम पड़ता है कि जितना नीचे उतरते गए उतना ही हम धँसते चले गए । विषयों की दलदल से बाहर निकलने का जब हमने प्रयास करना आरंभ किया तो पता चला कि अब बहुत देर हो चुकी है । पथिक ढलते हुए सूर्य को देखकर थका थका सा , निराश और उदास सा हुआ कभी सूर्य की ओर देखता है तो कभी अपने दल – दल की ओर देखता है । पता चलता है कि उसी हताशा की अवस्था में वह प्राण त्याग देता है ।

यदि अक्षय सुख की चाह रखते हो तो काम , क्रोध, मद , मोह , लोभ , ईर्ष्या , घृणा और द्वेष से अपने आपको मुक्त करना ही होगा । उस प्यारे की शरण में जाकर उसके यजन , भजन और नमन में अपने आप को लगाना होगा । जब तक बाहर के किवाड़ नहीं लगाओगे तब तक भीतर के किवाड़ नहीं खुलेंगे और जब भीतर के पट खुल जाते हैं तो फिर बाहर निकलने को मन नहीं करता । ऋषि-मुनियों ने मुक्ति का यही छोटा सा उपाय बताया है । यदि उस प्यारे की शरण में जाना चाहते हो और जीवन मुक्त रहना चाहते हो तो बस बाहर के किवाड़ लगाकर भीतर के किवाड़ खोल लो।
यह निश्चित है कि इंद्रियों के विषयों से सुख की अनुभूति होती है लेकिन तृप्ति नहीं होती। इसलिए ज्ञानी मनुष्य भीतरी शांति का उपाय खोजने के लिए इंद्रियों की विषय आसक्ति की ओर से अपने आपको मोड़ने के लिए प्रयासरत रहता है। ऐसा ज्ञानी पुरुष विषयों के क्षणिक सुख को लात मारकर आत्मज्ञान की प्राप्ति में रत हो जाता है । वह अक्षय सुख को प्राप्त करने अर्थात स्थायी सुख या परमानन्द या मोक्ष को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत होता है।

सुख का रहस्य

जिसे हम वास्तविक सुख कहते हैं वह परमपिता परमात्मा की शरण में जाने पर अनुभव होता है । जिसे एक ज्ञानी पुरुष स्थायी बनाए रखने के लिए सचेष्ट रहता है । तब वह संसार के लोगों से और संसार के रोगों से मुक्त होकर केवल एक उस सच्चिदानंद की शरण को ही अपना परम आश्रय स्वीकार कर लेता है । संसार के लोग उसके बारे में क्या कह रहे हैं और क्या कर रहे हैं ? – इसका अब उसे अधिक ध्यान नहीं रहता । वह सोच लेता है कि संसार के लोग सचमुच नादान हैं और इतना ही नहीं वे बेवफा भी हैं , जो केवल और केवल तंज मारकर या व्यंग्य कसकर कष्ट देने के सिवाय कुछ नहीं करेंगे ।सुख का रहस्य आत्म संतोष में छिपा हुआ है। सुख दूसरों के प्रति सहानुभूति पूर्वक एवं सदाशयता और सहचर्य का भाव रखने से प्राप्त होता है। सुख को प्राप्त करने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि सुख – शांति और आनंद को यदि प्राप्त करना चाहते हैं तो मनुष्य स्वयं ऐसा कर सकने में सक्षम है।सुख प्राप्त करने के लिए भी सकारात्मक सोच का होना बहुत आवश्यक है।

सहजता

सहजता, सादगी, सरलता, सदाशयता, सद्भाव ,सहचर्य ,समभाव, बहुत सारे गुणों से मिलकर एक सफल व्यक्तित्व बनता है। सहजता भी एक बहुत महत्वपूर्ण गुण है ।सहजता से जीवन यापन करना भी सुख पूर्वक जीवन यापन करना कहा जाता है। सहजता में मनुष्य आनंद की अनुभूति करता है। बिना किसी पुरस्कार या तिरस्कार की भावना के मनुष्य मान – अपमान , हानि या लाभ से ऊपर उठकर समभाव में रहने लगता है । यही सहजता है । ऐसा मनुष्य नाटक , आडंबर या अति रंजना से दूर रहता है । सांसारिक कार्यों को करते हुए भी आनन्द का अनुभव करता है। छुद्र भावनाओं से और तुच्छ कार्यों से वह ऊपर उठ जाता है । ऐसा मनुष्य सहज भाव से भावनाओं के जंजाल का प्रतिरोध कर देता है और क्षुद्र मानवीय इच्छाओं पर विजय पाता है। भावनाओं की श्रेष्ठता सहजता से ही प्राप्त हो सकती है।

एकाग्रता

एकाग्रता की प्राप्ति के लिए ध्यान , धारणा और समाधि की व्यवस्था हमारे ऋषियों ने की है ।धारणा के पश्चात जब मन एक बिन्दु पर एकाग्र हो जाए , तब उसको ध्यान कहते हैं और इस स्थिति को अर्थात एक बिंदु पर ध्यान के केंद्रित होने को हम एकाग्रता कहते हैं।
लेकिन आज व्यस्तता के कारण जीवन को फास्ट बनाने वाले व्यक्ति के पास एकाग्रता तो कहीं खो गई है ।भोजन, भजन और विद्या एकांत में ग्रहण करने की व्यवस्था की गई है । क्योंकि इन्हें एकांत में ग्रहण करने से उनका उचित लाभ हमको मिल सकता है । इस प्रकार हमारी एकाग्रता में वृद्धि होती है।
भजन करते समय भी मन यदि अपने साध्य में एकाग्र नहीं है अर्थात पूजा में भी मन अपने ध्येय में एकाग्र नहीं है तो यह एकाग्रता नहीं कही जा सकती। भोजन करते समय एकाग्रता न होने के कारण भोजन से सम्पूर्ण रस शरीर को प्राप्त नहीं हो पाता। इसी प्रकार भक्ति में ,पूजा में भी जब मन अपने ध्येय में एकाग्र नहीं रह पाता तो समझ लीजिए कि भक्ति भी अलाभकारी,निरर्थक ,निष्फल, निष्प्रयोज्य, अपरिवर्तनीय, निस्सार एवं शून्य हो जाती है और व्यक्ति ऐसी भक्ति का लाभ नहीं उठा पाता।
एकाग्रता के कारण ही एकलव्य बिना गुरु के ज्ञान के श्रेष्ठ धनुर्धर बना । इसलिए एकाग्रता एक सर्वोत्कृष्ट साधना है। एकाग्रता से ही अर्जुन ने घूमती हुई मछली की आंख में तीर मारकर स्वयंवर को जीता।
एकाग्रता के कारण ही गुरु द्रोणाचार्य के द्वारा यह पूछे जाने पर कि आपको वृक्ष पर क्या दिखाई दे रहा है ? अर्जुन के द्वारा उत्तर दिया गया कि केवल चिड़िया की आंख दिखाई दे रही है । इसके अलावा न पेड़ दिखाई दे रहा है और न कोई व्यक्ति दिखाई पड़ रहा है और न चिड़िया का अन्य शरीर का भाग दिखाई पड़ रहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि एकाग्रता से व्यक्ति की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है और तनाव दूर होता है।
एकाग्रता से मन की चंचलता दूर होती है और मन की कल्पनाओं को अनावश्यक उड़ानों को रोका जा सकता है। क्योंकि मन की चंचलता मस्तिष्क की दिव्य शक्तियों का ह्रास कर देती है। मन की स्थिरता का अति महत्व है। मन यदि स्थिर रहे तो साधक अपनी साधना की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है ।
वास्तव में एकाग्रता की उत्कृष्ट अवस्था ही ध्यान है ।मानसिक स्थिरता से मन को विश्राम मिलता है ।आंतरिक थकान दूर होती है ।परमात्मा के प्रति आत्मसमर्पण करना और उस परम ब्रह्म को आत्म सत्ता में देखना ही ध्यान का मुख्य प्रयोजन होता है।
चित् का किसी ध्येय में बंधा रहना अथवा बांधना, एकाग्र करना, एक जगह पर लगाए रखना ही धारणा कहलाता है।
जब यह स्थिति देर तक एक सी बनी रहे तो इसे ध्यान कहा जाता है अर्थात जब ध्याता देर तक अपने ध्येय में एक जैसा अनुभव करता रहे , वह ध्यान है। इस स्थिति में ध्याता को ध्येय और ध्यान का ज्ञान रहता है।
लेकिन जब ध्याता उसी ध्यान में केवल ध्येय मात्र का आभास करता है और अपने रूप से पृथक सा हो जाता है तो उसे समाधि कहते हैं । समाधि कितने समय की हो सकती है ? यह ध्याता के ऊपर ही निर्भर करता है इसका समय घंटे, 2 घंटे, दिन ,दो दिन, वर्ष ,शताब्दी, सहस्राब्दी हो सकता है।
समाधि में ध्याता व्यक्ति को पूर्णता प्राप्त होती है। समाधि परमात्मा के द्वार खोलती है । समाधि से सत्य और स्वयं का ज्ञान होता है।
समाधि से संसार की नश्वरता एवं क्षणभंगुरता का ज्ञान होता है। जैसे ही संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान ध्याता को होता है , तुरंत उसका ध्यान परमात्मा में लग जाता है । वह परमात्मा को और आत्मा का साक्षात मिलन कराता है। इस प्रकार समाधि फल है अर्थात परिणाम है। समाधि से प्रत्येक प्रकार की निर्मलता ,शुचिता एवं शुद्धता मनसा ,वाचा ,कर्मणा प्राप्त होती है। समाधि के काल में मनुष्य स्वयं को मूर्च्छित सा अनुभव करता है उसके ज्ञान-चक्षु खुले रहते हैं और चर्म चक्षु-बंद होते हैं । वैदिक सिद्धांत के अनुसार मनुष्य का परम लक्ष्य समाधि है। योग के आठ अंगों में समाधि सबसे अंत में आठवें अंग के रूप में दी गई है । जिस व्यक्ति को सत्य की और अमृत तत्व की प्राप्ति करनी होती है वह समाधि के द्वारा ही संभव है।
समस्त आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियों का प्रयोग यदि ध्यानपूर्वक किया जाए तो समाधि निश्चित प्राप्त होती है । एक ही स्वरुप का , एक ही स्थिति का यदि बार-बार चिंतन किया जाए और मन को एकाग्र वहीं पर किया जाए तो उससे मन की चंचलता दूर होती है और मन निर्मल होता है । इसी ध्यान की परिपक्व अवस्था को ही समाधि कहते हैं । चेतन में इसे जीवनमुक्ति कहा गया है । क्योंकि समाधि स्थल को जीते जी मुक्ति का आनंद लंबे समय तक इसी से प्राप्त होता है । समाधि स्थल में व्यक्ति यह जान चुका होता है कि वह शरीर नहीं बल्कि आत्मा है । वह मन नहीं बल्कि आत्मा है । समाधि एक साधक के जीवन की अंतिम अवस्था है । जिसे प्रभु की अनंत कृपा और शुभकर्मों से ही पाया जा सकता है।
जब योगी अष्टांग योग का अभ्यास करता है तब योग से उसका चित्त स्थिर रीति से एकाग्र हो जाता है और इसकी चित् की एकाग्रता से उसे संप्रज्ञात योग की सिद्धि हो जाती है। यह सिद्धि दो प्रकार की होती है।
संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात। संप्रज्ञात को सबीज और असंप्रज्ञात को निर्बीज समाधि भी कहते हैं।
समाधि का सीधा – सीधा अर्थ यह भी होता है कि पूर्णता को प्राप्त कर लेना और प्रभु से मिलना। जब मनुष्य प्रभु से मिलता है तो इसका मतलब सत्य से जुड़ना है। समाधि तत्वज्ञान को पाने के लिए कठोर साधना है , तप है। समाधि नि:शब्द है ।समाधि शांत और मौन होने की स्थिति है। समाधि में शब्दों का अहंकार समाप्त हो जाता है । जैसे शांत तालाब के पानी में नीचे पड़ी हुई वस्तु बिल्कुल साफ दिखाई पड़ती है उसी प्रकार समाधि की स्थिति होती है और जब पानी में तरंग उठती रहती हैं तो वही वस्तु दिखाई नहीं पड़ती । इसी प्रकार मनुष्य के मन में जब तक तरंगें उठती हैं , वह चलायमान होता है। तब तक उसको ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता । मन की तरंगे जैसे ही समाप्त हुईं और समाधि में मनुष्य गया तो ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं ।

प्रकृति का नियम

,अवश्यमेव भोक्तव्यम कर्त्तम कर्म शुभाशुभम, — नियम प्राकृतिक है अर्थात इसमें क्षमा का प्रावधान नहीं है । जो जैसा कर्म करता है उसका फल अवश्य प्राप्त करता है । यह स्वयमेव नियमानुसार होता रहता है , जो व्यक्ति इस नियम का पालन करता है , इस नियम का ध्यान करता है , वह इससे लाभ लेता है और जो इसके विपरीत चलता है उसको हानि होती है ,दंड मिलता है । जैसे खेत में जिस प्रकार का बीज बोया जाता है उसी प्रकार की फसल पैदा होती है ।ऐसे ही इस संसार रूपी खेत में अथवा इस शरीर रूपी खेत में मंन द्वारा जिस प्रकार का भी बीज (कार्य रूप में) बोया जाएगा उसी प्रकार की सुख – दुख ,आनंद, मान – अपमान की फसल काटोगे। आसक्ति वश,मोहवश, कामनावश,क्रोधवश किया गया कार्य हमें जन्म व मृत्यु के बंधन में बांधता है ।इसी कारण से हमारी मृत्यु बार-बार होती है और बार-बार हमें जन्म लेना पड़ता है ।यह सब इसी का परिणाम है ।

जीवन और मृत्यु

प्रकृति के इस नियम को ध्यान में रखते हुए कार्य करना चाहिए कि किए हुए कार्य का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। मनुष्य की योनि योग योनि व भोग योनि दोनों प्रकार की है । इसमें भोग भी है और योग भी है। इच्छा आपकी है कोई चुन लो। भव बंधन से ,आवागमन से ,उत्पत्ति और विनाश से छूटना चाहते हो, गर्भ के नरक से और मृत्यु के समय सौ – सौ बिच्छुओं के डंक के दर्द से बचना चाहते हो कर्म पर ध्यान दो।
मनुष्य को समझना चाहिए कि छोटी सी त्रुटि भी प्रकृति के भयंकर दंड के रूप में सामने आती है। सतत सत्कर्म का बीज डालते रहना चाहिए। जिसके कारण पुण्य के फल उगें तथा उनसे जीवन सुखी और संपन्न हो।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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