साधना और आत्मज्ञान
(मधुकथा १८०५११)
जाने अनजाने विश्व में हम सब साधक हैं व सबके अपने अपने बहुमूल्य अनुभव व अनुभूतियाँ हैं।
सभी साधनाओं का समापन आत्मज्ञान में है । आत्मज्ञान के बाद विधि गौण हो जाती है एवं अध्यात्म के विषय में भी बात करने की इच्छा अनिच्छा नहीं रहती। कोई कुछ पूछते हैं तो सहज ही अनुभूति के अनुसार उत्तर अभिव्यक्त हो जाता है।
उस अवस्था में न कुछ बताने की आवश्यकता रहती है और न अधिक सुनने की ! अनुभवी जन हमारे एक एक शब्द से स्थिति समझ लेते हैं। ज़रूरत होने पर थोड़ा उत्तर दे देते हैं।
साधना एक विशिष्ट विज्ञान व कला है और उसमें गहरे पैठने के बाद कुछ छुपा कर रखने वाली बात भी नहीं है । हाँ उपयुक्त व योग्य व्यक्ति के साथ ही प्राय: सही वातावरण में व्यक्तिगत रूप से बात की जाती है।
जो आत्मा साधना पथ पर नई नवेली है वह कई वार ज्यादा बात करती भी नज़र आती है तो कई वार कुछ छुपाती छुपती लगती है पर जो आत्माएँ बहुत पहले इस दौर से गुज़र गईं हैं उन्हें उनकी यह दशा सहज आनन्दमयी ही लगती है!
हर आत्म परमात्म से मिलती मिलाती शर्माती अकुलाती सकुचाती, थिरकाती, पुलकाती और आल्ह्वादित व तरंगित होती चल रही है ! वे आनन्द ले रहे हैं व दे रहे हैं! संसार सरकता समाता चल रहा है!
गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा
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