महर्षि दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ को बनाने में कितनी मेहनत की होगी सोचो, उन्होंने प्रश्नोत्तर के माध्यम से सत्य ज्ञान को हम तक पहुंचाने में एक बार अपनी सामान्य बुद्धि की होगी प्रश्न पूछने, तो दूसरी बार सैद्धांतिक बुद्धि से उत्तर दे समझाने का भरपूर प्रयास, अनेकानेक आर्ष ग्रन्थों के प्रमाण व तर्कों के साथ।
इस तरह शंका समाधान के द्वारा सत्य ज्ञान को हम तक अपनी अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश के द्वारा कितनी सरलता से समझाने का प्रयास किया है हृदय बार बार श्रद्धा से उस महान ऋषि के लिए झुक जाता है जिसका अपने लिए कुछ नहीं सब कुछ उस परमात्मा को समर्पित होकर परोपकारार्थ करते रहे। वास्तव में जो औरों के हित जीता है वही उस परम अमृत को पीता है।
हम सब अपने परिवारी जनों के साथ उस परम सत्य ज्ञान का बोध पढ़ गुन कर अवश्य करें जो हमारे अपने घर में अब आसानी से उपलब्ध है।।
शंका समाधान की अगली कड़ी
और आगे कुछ तर्क और दे,
पूर्वपक्ष को ऋषि समझाते।
जिस कारण से जीव रचे प्रभु,
वह तो फिर यूँ ही चुक जाते।
चाहे जितना बड़ा खजाना,
यदि उसका व्यय, आय न आना।
फिर क्या बिना लाभ हानि के,
निकल दिवाला न रहे खजाना।
अतः व्यवस्था ठीक यही,
मुक्ति में जाना लौट के आना।
बचे हुए कर्मानुसार फल,
पाना और मुक्ति में जाना।।
और तर्क एक फिर देते हैं,
कौन सी सजा भली है बताओ।
जन्म-कारागार, काला-पानी,
फाँसी हो, क्या ठीक जनाओ।।
जब वहां से आना ही नहीं हो,
तो ब्रह्म में लय, (समुद्र में डूब)ऊब कर मरना।
अंतर केवल इतना ही है,
नहीं वहां (मोक्ष में)किसी श्रम का करना।।
कहने का अभिप्राय है मेरा,
सामर्थ्यानुसार हो जीव को
खुशी।
जेल अपेक्षा फांसी बुरी है,
पाकर व्यक्ति हो जाये बहु दुःखी।।
प्रश्न:
तो क्या हुआ ईश की भांति,
जीव भी नित्य मुक्त हो सुखी।
कोई दोष इसमें न आवे,
कभी न होगा जीव फिर दुःखी।।
ठीक न बात तुम्हारी है ये,
दोनों के गुण कर्म पृथक भिन्न।
ईश्वर अनंत, सामर्थ्य, शक्ति, गुण,
जीव अल्प सामर्थ्य औऱ परिछिन्न।।
प्रश्न:
जब ऐसा है तो मुक्ति भी,
जन्म मरण के सदृश हुई।
फिर श्रम करने का क्या फायदा,
मेहनत सारी व्यर्थ गयी।।
उत्तर:
छत्तीस हजार बार उत्पत्ति,
छत्तीस हजार बार हो प्रलय।
क्या यह इतना समय कोई कम,
जिसमें जीव आनंद अभय।।
एक बात बताओ प्यारे,
भूख प्यास भी लगे पुनः पुनः।
इसके लिए क्यों करते हो श्रम।
(राज्य, प्रतिष्ठा, स्त्री, सन्तति,)
ये तो क्षणिक दें शांति और शम।
मुक्ति में तो लम्बा सुख है,
फिर क्यों वह उपाय नहीं करना।
आना जाना आवागमन ही,
अतिआवश्यक जीव का वरना।।