प्रस्तुति : आर्य सागर खारी
एक वाटिका के चार द्वार थे । एक पर दूध देनेवाली गाय बैठी थी । वाटिका के मालिक की आज्ञा थी कि जो इसके चार लात मारे , वही भीतर आये । दूसरे द्वार पर कबाब रक्खे हुए थे । उनके लिए आज्ञा थी कि जो मनुष्य कबाब खाये , वही भीतर जाए । तीसरे द्वार पर एक वेश्या उपस्थित थी । इस द्वार की आज्ञा थी कि जो मनुष्य इससे प्रेम करे वही भीतर जाए । चौथे द्वार पर मदिरा रखी थी । वहाँ प्रवेश के लिए आज्ञा थी कि जो इसको पिये , वहिउ भीतर जाये ।
एक बार एक वैष्णव ने उस वाटिका की प्रशंसा सुनकर जाने का विचार किया । जब वह पहले द्वार पर गया तो गाय और आज्ञा को देखकर कहा कि यह तो बड़ा भारी पाप है कि मैं अपने स्वाद के लिए गाय को , जिसको सारे संसार के लोग मानते हैं , लात मारूँ । यह सोचकर वह वहाँ से चलकर दूसरे द्वार पर गया । वहाँ कबाब देखकर कहा कि बड़े शोक की बात होगी , यदि मैं अपने पेट को पशुओं की समाधि बनाऊँ । क्योंकि जब कोई पशु मर जाता है तो हम उसे निकालकर घर से बाहर फेंक देते हैं और उसके सम्पर्क से भी घृणा करते हैं । मैं अपने स्वाद के कारण माँस जैसी अपवित्र वस्तु को जिसको लोग अपने घर में भी नहीं रखते , शरीर में कैसे रखूँ ? सब बातें सोचकर वह वहाँ से हट गया और तीसरे द्वार पर पहुँचा । वहाँ वेश्या को देखा तो सोचा कि यह तो समाज का नाश करनेवाली है ; मनुष्य की शत्रु है । इससे घृ्णा करना ही हितकर है । आगे चलकर वह चौथे द्वार पर गया तो वहाँ मदिरा को देखा । उसने सोचा कि ‘एक तो इससे किसी की हत्या का डर नहीं है और इसके अतिरिक्त आगे कोई द्वार भी बाकी नहीं है । सब द्वार इसकी अपेक्षा अधिक निकृष्ट हैं , अतः अब इसी द्वार से चलना चाहिए । ‘
सारांश यह कि वैष्णव जी ने मदिरा पी ली । मदिरा पीते ही धर्म और अधर्म जा ज्ञान जाता रहा और वह महाशय वेश्या के पास पहुँचे । वेश्या ने कहा कि मदिरा के साथ कबाब न हो तो जीवन का आनन्द ही क्या ? फिर क्या था ! वैष्णव जी ने कबाब भी खाया । जब कबाब भी खा लिया तो हत्या का विचार बिलकुल ही जाता रहा और गात के लात मारकर झट पहले द्वार से वाटिका के भीतर घुस गये ।
बच्चों ! संसार की सब बुराइयों की जड़ यह मदिरा है । इसे पीकर बुद्धि जाती रहती है और बुद्धि के जाने से मनुष्य कुकर्मी होकर संसार की सारी बुराइयाँ करने लगता है । जो लोग मदिरा पीते हैं , वे लोग बुद्धि-नाश होने पर मूत्र तक पी जाते हैं , नालियों में लोटते हैं , कुत्ते उनके मुँह पर मूतते हैं ।
शिक्षा – सब पापों की जड़ है मदिरा । ~ स्वामी दर्शनानन्द
( स्वामी दर्शनानन्द जी का यह कथा-संकलन ( कथा पच्चीसी ) उत्प्रेरक है , मर्म-स्पर्शी है । इसमें पौराणिक और लोक-कथाओं का रोचक वर्णन है । प्रत्येक कथा अंत में मार्मिक उपदेश दे जाती है । इसे सभी आयु के पाठक पढ़ें और ज्ञानार्जन करें , यही स्वामी दर्शनानन्द जी का ध्येय था और यही प्रकाशक ( विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द ) का उद्देश्य है । )
“मदिरा प्रेमियों” के द्वारा लाॅकडाउन की धज्जियाँ उड़ाते वीडियोज़ व् समाचारों के देख – सुनकर स्वामी जी की इस कथा की याद आ गयी । निःसन्देह मदिरा बुद्धि और विवेक को हर लेती है और मनुष्य अच्छा-बुरा , लाभ-हानि , धर्म-अधर्म सब भूल जाता है ।
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