प्रगति की दौड़ में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति को विकास से परिचित कराना और उसे विकास का लाभ पहुँचाना लोकतन्त्र का मूल उद्देश्य है। भारत के लोकतन्त्र ने विकास की किरण से अछूते व्यक्ति को छला-संविधान द्वारा वयस्क मताधिकार को प्रदान करके। आप विचार करें, जो व्यक्ति ‘अधिकार’ शब्द से ही परिचित ना हो उसे ‘मत’ के मूल्य का क्या ज्ञान होगा? जिस देश में मतदान से पूर्व लोग शराब की थैलियों में बिक जाते हों उन्हें लोकतन्त्र का क्या ज्ञान होगा? शराब की थैली देश का भविष्य तय करती है। नशे में धुत्त ऐसे व्यक्ति जिन्हें नहीं पता कि वो क्या करने जा रहे हैं, देश का भविष्य तय करते हैं-और ज्ञान-विज्ञान में निपुण व्यक्ति जिन्हें पता है कि उन्हें देश का भविष्य तय करना है- वो मतदान के दिन अपने ‘ड्राइंग रूम’ में गप्पें मारते हैं और मतदान करने के लिए नहीं जाते। हमें ऐसी परिस्थितियां बनानी चाहिये कि जिन्हें मताधिकार का महत्व ज्ञात हो वो उस दिन स्वेच्छा से मतदान के लिए निकलने लगें, और जिन्हें मताधिकार का ज्ञान नहीं उन्हें उसका ज्ञान हो। वयस्क मताधिकार देकर हमने नशेबाजों के हाथों में देश का भविष्य दे दिया। जिन्हें गाड़ी की दिशा का भी ज्ञान नहीं वो मंजिल का रास्ता बता रहे हैं। अत: गाड़ी कहाँ जायेगी? आप अनुमान लगा सकते हैं। बड़ी सावधानी से ‘शिक्षित-शिखंडियों’ को मतदान से दूर रखने का प्रबंध् किया जाता है। ऐसा करने वालों की आशाओं के अनुकूल ही परिणाम आता है। ‘शिक्षित-शिखंडी दूर रह जाते हैं और नशेबाज किसी ‘छलिया’ को ‘तिलक’ कर जाते हैं। जिस देश के शासकों का राजतिलक कभी वेदों के प्रकाण्ड पंडित ऋषि लोग किया करते थे, उसके वर्तमान की यह स्थिति देखकर दु:ख होता है। तब ‘फ्रेंचकट’ दाढ़ी रखने वाले कुछ ‘शिखण्डी बुद्घिजीवी’ हमें टी.वी.पर समीक्षा करते नजर आते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? जाति-समीकरण, कुछ चुनावी नारे, कुछ जीतने वाले दल की उपलब्ध्यिां, धर्म के नाम पर धु्रवीकरण,और किसी खास नेता की अपनी छवि ये ऐसी बातें हैं जो इन ‘फ्रेंचकट दाढ़ीबाजों’ के लिए चुनाव की समीक्षा का विषय बन जाती हैं। ये कोई नहीं कहता कि ‘शिक्षित शिखंडी’ मताधिकार का प्रयोग नहीं कर पाये, विकास की किरण से अछूते ‘इतने’ लोगों को छलियों ने छला, इतनों का तुष्टिकरण किया गया, इतनों को आरक्षण के सब्जबाग दिखाये गये, इतनी शराब बांटी गयी, मतदान के दिन इतने प्रतिशत लोग शराब पीकर मतदान करने आये, इतने लोग अमुक नेता के कार्यकत्र्ताओं की शराब पीकर आये एवं उन्होंने यह तथ्य स्वीकार किया।…और इस प्रकार सत्ता की सुन्दरी सुरा की सुन्दरी के बदले खरीद ली गयी। तब पांच साल तक लोकतन्त्र के छलिया सत्ता की सुन्दरी के नशे में रहते हैं और भारत का वयस्क मतदाता नशा उतरते ही अनुभव करता है कि सुरा की सुन्दरी उनसे पल्ला झाड़ गयी है। वो वहीं चली गयी जहाँ उसका निवास स्थान था-अर्थात सत्ता वालों के पास। इस प्रकार ‘सुरा और सुन्दरी’ दोनों गंवाकर बेचारा मतदाता प्रतीक्षा करता है अगले चुनाव की। जिस देश के युवा और सत्ताधीशों की ऐसी मानसिकता बन चुकी है वो देश का क्या भला करेंगे? सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। विकास की किरण से अछूता व्यक्ति घुप्प अंधेरे में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते-लड़ते स्वयं के अस्तित्व को मिटा रहा है। उसे नहीं पता कि विकास किस चिडिय़ा का नाम है? इसलिए आज संविधान द्वारा प्रदत्त वयस्क मताधिकार को सही लोगों को देने और इसका सही उपयोग कराने के लिए व्यवस्था में भारी परिवर्तन करने की आवश्यकता है। इस प्रकार के मताधिकार को कुछ लोगों ने खरीद लिया है और भारत में इस मताधिकार का खुला दुरूपयोग हो रहा है। लोकतंत्र में आई कमियों के लिए मताधिकार के दुरूपयोग का प्रश्न बहुत बड़ा है। इसलिए इस पर बहस की आवश्यकता है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।