भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन और क्रांतिकारियों के जज्बे के बारे में यही कहा जा सकता है कि :—
बदल देते हैं हम मौजे हवादिश को अपनी जुरअत से। कि हमने अंधेरों में भी चिराग अक्सर जलाए हैं ।।
तूफान की दिशा मोड़ने में सक्षम और संगीनों के सामने भी सीना चौड़ा कर खड़े होने का जज्बा हमारे क्रांतिकारियों को विश्व इतिहास का ऐसा बेजोड़ और शौर्य संपन्न देशभक्त सिद्ध करता हैं जिसका इतिहास विश्व इतिहास में कई उदाहरण नहीं मिलता।
कोतवाल धनसिंह ने इन आजादी के दीवानों की सेना का रामराम करके स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या चाहते हो? उसने अपनी ओर से लोगों से कहा कि-‘मारो फिरंगी को और देश को आजाद कराओ।’ हनुमान की जय बोलकर इन सिरफिरे देशभक्तों की सेना कोतवाल धनसिंह के घोड़े के पीछे-2 चल दी, वह पुलिस जो इनके विशाल दल को रोकने के लिए तैनात थी, वह भी अपने कोतवाल के पीछे पीछे चल पड़ी। इन्होंने पहला धावा मेरठ की नई जेल पर बोल दिया। इन्होंने जेल से 839 कैदियों को मुक्त कराया और वे भी मुक्त होकर स्वतंत्रता सेनानियों के इस दल के साथ मिल गए और अंग्रेेजों की मेरठ जेल तोड़ दी । वहां से यह भीड़ मेरठ शहर और सिविल लाइन में घुस गई और अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों को आग लगाना और उन्हें मारना शुरू कर दिया।
1857 की क्रान्ति मेरठ छावनी से 10 मई को शुरू हुई थी, वास्तव में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बिहार केसरी कंवर सिंह, नाना साहब पेशव हजरत महल, अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर, बस्तखान , अहमदुल्ला, शाह गुलाम गोसखां तथा अजी मुल्ला खान आदि ने 31 मई 1857 की तारीख उस महान क्रान्ति के लिए निश्चित की थी। लेकिन समय से पूर्व मेरठ की छावनी में 10 मई को ही क्रान्ति का विस्फोट हो गया था। अंग्रेजी इतिहासकार व्हाइट ने अपनी पुस्तक ‘महान सिपाही विद्रोह का सम्पूर्ण इतिहास’ के पृष्ठ 17 पर लिखा है, कि-”मेरठ के इस भयानक विद्रोह से हमें एक महान लाभ अवश्य हुआ और वह यह था कि समूचे भारत के सैनिकों के विद्रोह का कार्यक्रम 31 मई 1857 के निश्चित दिन क्रियान्वित होना था। किन्तु समय से पूर्व भडक़े उभार ने हमें जागृत कर दिया।”
मंगल पाण्डे की तरह मेरठ छावनी स्थित रिसाले के 90 सिपाहियों ने चर्बी वाले कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। रिसाले का कर्नल कारमाइल बड़ा अहंकारी एवं हठी स्वभाव का अधिकारी था। उसने 90 सिपाहियों की वर्दी उतरवा कर और लोहारों द्वारा उन देशभक्त सिपाहियों को हथकड़ी और बेडिय़ों में जकड़वाकर मेरठ सिविल जेल में भिजवा दिया था। शाम के लगभग 5 बजे रोष के रूप में स्वाधीनता की चिंगारी शोला बनकर उभरी और ज्वालामुखी विस्फोट का रूप धारण कर गई, मेरठ के समीप चपराने गुर्जरों का पांचली गांव है। वहां का निवासी चौधरी धन सिंह गुर्जर मेरठ शहर का कोतवाल (संस्कृत का कोटपाल) था। वह बड़ा देशभक्त तथा स्वाधीनता प्रेमी पुलिस अधिकारी था। वह ऐसे अवसर की खोज में था-जिसमें उसे देश भक्ति का परिचय देने का शुभ अवसर मिले। पुलिस कोतवाल होने के नाते उसका दायित्व था कि वह अंग्रेजी सरकार को सहयोग देता और विद्रोहियों का दमन करता लेकिन उसने विद्रोहियों का सहयोग दिया और उनका नेतृत्व किया। उसने मेरठ के आसपास के गुर्जरों के गांवों में संदेश भिजवा कर मेरठ जेल पर हमला करने की योजना बनाई। अंग्रेजी शासन को पता नहीं चला कि स्वाधीनता की चिंगारी उन के जिला प्रशासन पुलिस विभाग के कोतवाल के मस्तिष्क में भी घर कर गई है। 30000 गुर्जर, घाट पांचाली पांचाली के चपराने, सीकरी के चन्दीले, नंगला व भौपरा के कसाने गुर्जर व अन्य जातियों के ग्रामीण एकत्र होकर मेरठ पहुंचे। कोतवाल धनसिंह गुर्जर उनके स्वागत के लिए प्रतीक्षा कर रहा था ।
कोतवाल धनसिंह ने इन आजादी के दीवानों की सेना का रामराम करके स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या चाहते हो? उसने अपनी ओर से लोगों से कहा कि-‘मारो फिरंगी को और देश को आजाद कराओ।’ हनुमान की जय बोलकर इन सिरफिरे देशभक्तों की सेना कोतवाल धनसिंह के घोड़े के पीछे-2 चल दी, वह पुलिस जो इनके विशाल दल को रोकने के लिए तैनात थी, वह भी अपने कोतवाल के पीछे पीछे चल पड़ी। इन्होंने पहला धावा मेरठ की नई जेल पर बोल दिया। इन्होंने जेल से 839 कैदियों को मुक्त कराया और वे भी मुक्त होकर स्वतंत्रता सेनानियों के इस दल के साथ मिल गए और अंग्रेेजों की मेरठ जेल तोड़ दी । वहां से यह भीड़ मेरठ शहर और सिविल लाइन में घुस गई और अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों को आग लगाना और उन्हें मारना शुरू कर दिया।
उधर, तीसरे रिसाले का रिसालदार अपने सिपाहियों को लेकर 20 इन्फैक्टरी के शस्त्रागार पर पहुंचा और वहाँ से शस्त्र लेकर अपने 90 आदमियों को मुक्त कराने के लिए जेल पर पहुंचा । वहां पर उसने अपने साथियों की हथकड़ी व बेडिय़ां कटवाकर मुक्त कराया और धन सिंह कोतवाल की देश भक्त सेना में शामिल करा दिया । इस प्रकार नई और पुरानी दोनों जेलें तोड़ दी गईं, नगर का प्रशासन अब धनसिंह कोतवाल के हाथ में था। अंग्रेज अफसर मारे गये या उन्हें कैद कर दिया गया, या उन्हें अपने मित्रों के यहां जाकर छिपना पड़ा, मेरठ छावनी और शहर में अंग्रेजी राज का आतंक व सिक्का समाप्त करके क्रान्तिकारी मेरठ से दिल्ली के लिए चल पड़े और अगले दिन दिल्ली सम्राट बहादुरशाह जफर के दरबार में पहुंच गए । रास्ते में हिण्डन नदी पर गुर्जरों और अंग्रेंजो की डट कर लड़ाई हुई। दिल्ली खबर पहुंचने पर मेरठ के लिए अंग्रेज सेना हिन्डन नदी पर पहुंच गई थी। वहाँ बड़ी भारी संख्या में नरसंहार हुआ लेकिन ये वीर भारत माता को फिरंगी से मुक्त कराने के लिए शहीद हो गए।
‘मेरठ गजेटियर’ के कुछ अंश इस सम्बन्ध में इस प्रकार हैं-मेरठ छावनी के निकटवर्ती गुर्जरों के गांवों का साहस इतना बढ़ गया था कि उनके विरूद्ध कार्यवाही करना आवश्यक था। पुलिस अधिकारी मेजर विलियन व एक बोलिन्टयर कोर बनाई जिसमें सभी यूरोपियन थे । इसमें 45 घुड़सवार 11 फौजी, 8 प्लाटून, 38वीं इन्फेन्टरी, 2 सारजेंट व 2 तोपें और सैनिक विशेषज्ञ लेकर 4 जुलाई 1857 को सबसे पहले मेरठ के आसपास के गांवों पर अचानक हमला किया गया । इसमे मुख्य गांव घाट पाचंली और नंगला आदि थे । इन गांवों के निवासी उपद्रव के लिए विशेष प्रसिद्धि प्राप्त कर गए थे । प्रात: चार बजे तीन गांवों को घेर लिया गया, अधिकांश व्यक्ति मारे गए 46 कैद कर लिए गए । जिसमें से 40 को तुरन्त फांसी के फंदे पर लटका दिया गया । पशु व सामान छीन लिए गए और सभी गांवों को आग लगा दी गई, फिर दोबारा-तिबारा खाकी रिसाला इन्हीं गांवों में गया और उचित सजायें पुन: दी गईं। सीकरी गांव में भी यही भयानक कांड किया गया और गांव फूंक दिया गया । 30 आदमियों को फांसी दी गई और शेष की हत्या की गई । मेरठ जिले के अन्य गांवों के साथ भी यही व्यवहार किया गया।
वास्तविकता यह है कि पांचली गांव के 80 गुर्जरों को फांसी दी गई और 400 गुर्जरों को गोलियों से उड़ाया गया था। इन सबकी जमीन व जायदाद जब्त कर ली गईं। देश की स्वाधीनता के पश्चात जब प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी से मिल कर पांचली के नेता व सरपंच भूलेसिंह गुर्जर आदि ने पांचली गांव के बलिदानों की यशोगाथा सुनाई तो इन्दिरा गांधी जी ने उत्तर प्रदेश सरकार से पांचली की जमीन इसके वारिसों को वापिस दिलवाई। हरियाणा में फरीदाबाद के समीप फतेहपुर चंदीला गुर्जरों का गांव है-यहं का टूंडा चन्दीला गुर्जर उन दिनों सीकरी गांव मेरठ गया हुआ था वहां भी चंदीला गांव के गुर्जर आबाद हैं। जब दमन चक्र आरंभ हुआ तो उसे भी मेरठ में गोली से उड़वाया गया था। टूंडा गुर्जर बड़ा देश भक्त व्यक्ति था। वह जहां कहीं भी पंचायतें होतीं उनमें सम्मिलित होता था। उन दिनों भी वह किसी सार्वजनिक कार्य से अपने सगोत्र बन्धुओं से मिलने गया था और वहीं इस क्रान्ति में सम्मिलित हो गया था। 31 मई 1857 को एक बार पुन: गाजियाबाद में हिन्डन नदी के तट पर अंग्रेज सेना के साथ युद्ध हुआ था, जिसमें मिर्जा मुगल, वलीदाद खां पठान मालागढ़ तथा उसके सेनापति इन्द्र सिंह गुर्जर दादरी के भाटी व नागडी गुर्जरों ने भाग लिया था। इनके अतिरिक्त आसपास के गांवों के अन्य जातियों के देशभक्त लोग अपने हथियार लेकर सम्मिलित हुए और बड़ी संख्या में शहीद हुए थे। आज हम अपने उन सभी नाम अनाम शहीदों को नमन करते हैं जिनके कारण हमें स्वाधीनता के ये सुनहरे दिन देखने को मिले हैं।
इसे भारतीय इतिहास का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश को जो नेतृत्व प्राप्त हुआ उसने भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ अन्याय करते हुए कोतवाल धन सिंह गुर्जर जैसे अनेकों क्रांतिकारियों को इतिहास में उनका उचित स्थान नहीं दिया । जिससे अपने बलिदान के बहुत काल बाद तक भी इतिहास का यह स्वर्णिम पृष्ठ लोगों की नजरों से ओझल रहा। किसी कवि ने ठीक ही तो कहा है :-
उनकी तुरबत पर एक दिया भी नहीं
जिनके खून से जले थे चिराग ए वतन ।
आज दमकते हैं उनके मकबरे
जो चुराते थे शहीदों का कफन ।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
राष्ट्रीय अध्यक्ष : राष्ट्रीय प्रेस महासंघ