देश देशांतर में वेदों के व्यापक प्रचार-प्रसार से ही वेद की रक्षा संभव
ओ३म्
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संसार में मनुष्य के लिये सबसे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी वस्तु सद्ज्ञान है। सद्ज्ञान का पुस्तक केवल वेद ही है। वेद सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों के कल्याण के लिये परमात्मा से प्राप्त अत्यावश्यक सर्वांगीण ज्ञान है। मानव जाति का सौभाग्य है कि वेद आज भी सृष्टि के आदि स्वरूप में पूर्णतः सुरक्षित हैं। वेदज्ञान विश्व की सर्वोत्तम भाषा संस्कृत में प्राप्त हुआ है। संस्कृत के समान विश्व की कोई भाषा नहीं है। संस्कृत प्राचीनतम, अलौकिक वा ईश्वरीय भाषा है। अन्य सब भाषायें वेदभाषा के अपभ्रंस से बनी हैं। भाषा की शुद्धता व सर्वोपरि महत्ता संस्कृत में ही दृष्टिगोचर होती है। वेदज्ञान ही संसार के सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ व उत्तम है। समस्त मनुष्य जाति के लिए संसार का कोई ग्रन्थ वेदों के समान महत्वपूर्ण एवं उपादेय नहीं है। वेदों में ईश्वर का सत्यस्वरूप पूर्णता से प्राप्त होता है। जीवात्मा सहित प्रकृति का सत्य ज्ञान भी वेद व ऋषियों द्वारा वेदों के आधार पर प्रणीत दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थों में मिलता है। यदि परमात्मा ने वेद ज्ञान न दिया होता तो मनुष्य बोलना भी न सीख पाता। मनुष्य प्रथम व आदि भाषा का निर्माण नहीं कर सकता। हमारे वैज्ञानिक व चिकित्सक हमारे शरीर में विकृतियों व रोगों का ईश्वर प्रदत्त ओषधियों से ही उपचार तो कर सकते हैं परन्तु वह मानव शरीर व उसके किसी एक साधारण अंग का भी निर्माण नहीं कर सकते। इसी प्रकार से मानव के लिये आवश्यक मुख्य भाषा भी परमात्मा की ही दी हुई है। वह भाषा में वेदों की भाषा संस्कृत है। संसार के सभी मनुष्यों के आदिकालीन पूर्वज वेदों के अनुयायी व वैदिक धर्मी थे। कालान्तर में ज्ञान के उतार चढ़ाव, ह्रास व अवनति के कारण नाना प्रकार की भाषायें व मत-मतान्तर उत्पन्न हुए हैं।
संसार में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों तथा भाषाओं में अविद्या, अपूर्णतायें व अनेक दोष पाये जाते हैं। अंग्रेजी भाषा में पी, यू, टी पुट तथा बी, यू, टी बट का विवाद आज तक हल नहीं हो सका है। ऐसी समस्यायें मनुष्यकृत मत व भाषाओं में सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैं। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों की अविद्या का प्रकाश अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में किया है। यह विश्व का आश्चर्य है कि विश्व के लोगों ने सत्य के अर्थ का यथार्थ प्रकाश करने वाले ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की शिक्षाओं से लाभ नहीं उठाया और वह अविद्यायुक्त विषसम्पृक्त अन्न के समान मतों की शिक्षाओं पर ही स्वयं को ढाले हुए हैं व उसी पर चल रहे हैं। बच्चा छोटी कक्षा की परीक्षा देता है तो वह उससे अधिक ज्ञान प्राप्ति के लिये बड़ी कक्षा में जाते हुए प्रसन्नता अनुभव करता है। इसके विपरीत मत-मतान्तर व उनके आचार्य अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये यथोचित अनुसंधान कर अपने ग्रन्थों से अधिक ज्ञानयुक्त संसार में उपलब्ध ग्रन्थों का न तो अध्ययन ही करते हैं और न उनमें विद्यमान सत्य का ग्रहण करते हैं। वह अपने मतों में विद्यमान असत्य को छोड़ने का मनुष्यों की उन्नति के लिये सर्वाधिक आवश्यक सिद्धान्त का पालन भी नहीं करते। व्यवहार में भी वह अज्ञानता मध्यकालीन युग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए दिखाई देते हैं जिससे मनुष्य जाति की उन्नति व दुःखों की निवृत्ति होना दुष्कर प्रतीत होता है।
वेदों की शिक्षायें सार्वभौमिक शिक्षायें हैं जिनसे मनुष्य व मनुष्य जाति की उन्नति व कल्याण होता है। वेद मनुष्य जाति को ईश्वर से उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर उत्पन्न एक जाति मानते हैं। पूर्व किये हुए कर्मों के फलों का भोग करना और नये शुभ कर्मों को करने के साथ योग व समाधि के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना ही मनुष्य का कर्तव्य व धर्म सिद्ध होता है। इसका व्यवहार व प्राप्ति वैदिक धर्म के वट वृक्ष के नीचे बैठकर ही सम्भव होता है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि ज्ञानी व बुद्धिमान मनुष्य वेदों के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते आये हैं और ईश्वर साक्षात्कार के लिये समाधि अवस्था को प्राप्त होकर लाभान्वित व कृतकार्य होते रहे हैं। हमारे सभी ऋषि व विद्वानों सहित हमारे आदर्श व महान मनुष्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगेश्वर कृष्ण सहित ऋषि दयानन्द वेदों के ही सच्चे व आदर्श अनुयायी थे। इन ऋषियों व महापुरुषों के जीवन पर दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट होता है कि किसी विद्वान ऋषि ने अपने शिष्यों को अध्यापन द्वारा, किसी ने अपने आदर्श चरित्र के द्वारा तो किसी ने वेदों का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार, ग्रन्थ लेखन, शास्त्रार्थ आदि के माध्यम से वेद प्रचार ही किया है। वेदों का प्रचार वेदों का ज्ञान प्राप्त कर ही किया जा सकता है। हमारे गुरुकुल वेदों की भाषा संस्कृत व उसके व्याकरण का अध्ययन कराते हैं जिससे विद्याथियों में वेदों को पढ़ने, समझने व उनका वेदार्थ करने की योग्यता उत्पन्न होती है। वह वेदार्थ को जान हैं और वेद प्रचार कर दूसरे अज्ञानी व सद्ज्ञान की दृष्टि से भ्रमित मनुष्यों को सन्मार्ग दिखा सकते हैं।
जो मनुष्य संस्कृत भाषा नहीं जानते वह वेदों के हिन्दी व अंग्रेजी भाष्यों तथा वैदिक साहित्य का अध्ययन कर वेद प्रचारक बन सकते हैं। वेद प्रचारक विद्वान अज्ञानी व मूर्ख लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें सन्मार्ग बताता है तथा उन्हें उनकी आत्मा सहित परमात्मा व सृष्टि के सत्यस्वरूप से परिचित कराता है। अतः वह समाज में सबसे अधिक सम्माननीय व पूजनीय होता है। संसार में जब तक वेद विद्यमान हैं और उनका न्यूनाधिक प्रचार प्रसार हो रहा है तभी तक मानवता विद्यमान है। जिस दिन वेद व वैदिक ज्ञान का लोप हो जायेगा, जिसके अनेक प्रकार से प्रयत्न किये जा रहे हैं, ऐसा होने पर संसार से मानवता समाप्त हो जायेगी। तब वेदेतर अविद्यायुक्त विचारधाराओं में आपस में संघर्ष हो सकता है जिससे लोगों को नानाविध दुःख व कष्ट भोगने पड़ेगे। आजकल भी इस प्रकार के संघर्ष देखने को मिलते ही रहते हैं। संसार में एक सर्वमान्य धार्मिक जीवन शैली की विचारधारा नहीं है। सब विचारधाराओं के लोग अपनी विचारधारा व मान्यताओं को ही उत्तम मानते हैं तथा उसे दूसरों को मनवाने के लिये प्रयत्न करते रहते हैं। इसी कारण समाज में अशान्ति व दो देशों के बीच युद्ध भी होते देखे गये हैं। एक ही मत को मानने वाले दो फिरके आपस में लड़ पड़ते हैं जिसका कारण उनकी अज्ञानता ही सिद्ध होती है। यदि वह वेद व सत्य को स्वीकार करते तो इस प्रकार के संघर्षों से बचा जा सकता था। अतः विश्व में वेदों का प्रचार एवं उसका आचरण किया जाना सदैव प्रासंगिक एवं आवश्यक है।
देश व विश्व में सभी प्रकार के दुःख व कष्टों की समाप्ति हो, इसी भावना से युक्त होकर इस कार्य के सर्वथा योग्य व सक्षम महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने वेदों के सत्यस्वरूप का प्रकाश सत्य वेदार्थ को प्रस्तुत कर किया था। उन्होंने वैदिक जीवन विषयक अनेक ग्रन्थों के अन्तर्गत पंचमहायज्ञविधि का भी प्रणयन किया जिसमें ईश्वर उपासना सहित देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृ-यज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञों पर भी प्रकाश डाला गया है। उनके बनाये सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय सहित वेदभाष्य व अन्य ग्रन्थों में भी वैदिक जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। वेद ज्ञान व विज्ञान के पोषक हैं। महर्षि दयानन्द ने सिद्धान्त दिया है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों का परम धर्म है। यह भी एक तथ्य है कि वेदों की कोई मान्यता विज्ञान के विरुद्ध नहीं है। वेद विश्व को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का सन्देश देते हैं। वेद व हमारे सभी ऋषि सत्य के आधार पर विश्व के सभी मनुष्यों के लिए एक ही सत्य विचारधारा के व्यवहार व पालन के समर्थक व पोषक थे। मत-मतान्तरों व अनेक राजनीतिक विचारधारों के रहते हुए वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना चरितार्थ व साकार नहीं हो सकती। इसके लिये सत्य पर आधारित एक यूनिवर्सल धर्म का अनुसंधान किया जाना आवश्यक है। जो सत्य मान्यताओं से युक्त मत प्राप्त हो उसे यूएनओ जैसी संस्था के माध्यम से प्रचारित कर उसका पालन कराया जा सकता है। आर्यसमाज के विद्वानों का भी कर्तव्य है कि वह वेदों को सरल रूप में प्रस्तुत करें तथा उसके पालन से होने लाभों का भी देश देशान्तर में प्रचार करें।
वेदों का जितना अधिक देश देशान्तर में प्रचार होगा उतनी ही वेदों की रक्षा हो सकेगी। वर्तमान में वेदों को वेद विचारधारा के विरोधी मतों व संगठनों से भय है। वह भीतर ही भीतर इसको समाप्त करने के षडयन्त्र कर रहे हैं। विद्वान इस बात को जानते भी हैं परन्तु सुदृण संगठन के न होने के कारण इसका प्रतिकार नहीं किया जा सक रहा है। सनातन धर्म की एक दुर्बलता यह भी है कि यह अपने अनुयायियों का तो मत परिवर्तन होने देते हैं परन्तु वसुर्धव कुटुम्बकम् को मानने हुए अपने इतर मतावलम्बी बन्धुओं को अपने समाज व परिवार का अंग नहीं बनाते। इस कारण से महाभारत युद्ध के बाद से इस मत की संख्या निरन्तर कम होती गई और वेद भी विलुप्ति के कगार पर पहुंच गये थे। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने वेदों का पुनरुद्धार किया। इसमें ईश्वर की भी विशेष कृपा रही प्रतीत होती है। आर्य हिन्दू जाति ऐसी है कि जो वेद प्रचार के श्रेष्ठ यज्ञ को न तो स्वयं ही कर पा रही है और न दूसरे मतों के प्रचार से कोई शिक्षा ही ग्रहण कर रही है। अतः वेद, वैदिक धर्म तथा संस्कृति की रक्षा के लिये वेदाध्ययन, वेदप्रचार, वेदेतर मतावलम्बियों का वैदिक धर्म में स्वागत व सम्मान करने का यज्ञ किया जाना चाहिये। यही कार्य वेद व वैदिक धर्म की रक्षा में सहायक हो सकता है।
मनुष्य मनुष्य तभी बनता है कि जब वह अपने कर्तव्यों का पालन करे। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। ईश्वर ने यह ज्ञान हमारे कल्याण के लिये दिया था। ऋषि के आरम्भ से ही ऋषियों व विद्वानों ने इसे हम तक पहुंचाया है। हमारा भी कर्तव्य है कि हम इसे अपनी भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखें और प्रलय तक हमारी सन्ततियां वेद ज्ञान से वंचित न हो। वेद को जो भय इतर मतों व विचारधाराओं से है वह सब जानते ही हैं। अतः आर्यसमाज व वैदिक विद्वानों को अपने अन्य सभी कार्यों को सीमित कर वेद रक्षा पर ही मुख्य ध्यान केन्द्रित करना चाहिये। वेद रहेंगे तो मानवता रहेगी और यदि वेद न रहे तो मानवता भी समाप्त हो जायेगी। तब जो संकट आयेगा उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वर्तमान स्थिति को देखकर नहीं कहा जा सकता कि आर्यसमाज इस चुनौती पर विजय प्राप्त कर सकेगा। ईश्वर से ही प्रार्थना है कि वह ऋषि दयानन्द के अनुयायियों को वेद रक्षा व उसके साधनों की प्रेरणा करें। सब बन्धु अपने सभी मतभेद भुला दें और वेदरक्षा में बाधक नेताओं व लोगों को समाज में सहयोग न करें। सनातन मत के बन्धु भी वेद रक्षा में आगे आयें। यह जितना आर्यसमाज के लिये आवश्यक है उतना ही सनातन व पौराणिक मत की रक्षा के लिये भी आवश्यक है। वेद पर चलने से ही हमारे सनातनी बन्धुओं की भी रक्षा व कल्याण होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य