तारिक फतह पर जावेद अख्तर के हमले के बाद अनेक लोग भारतीय इतिहास में मुस्लिम शासन के गीत गा रहे हैं। यह यहाँ लंबे समय से इतिहास के व्यवस्थित मिथ्याकरण का ही कुफल है। जिन से यह सुधारने की अपेक्षा थी, वे खुद वैचारिक खस्ताहाल हैं। वरना मुस्लिम सत्ताओं का इतिहास दिखाकर मुसलमानों के मानवतावादी वर्ग को मुख्यधारा में रखा जा सकता था। उसी से कम्युनिज्म जैसे मतवादों में फँसे हिन्दू युवाओं को भी भटकने से रोका जा सकता था।
वस्तुतः जो बात जावेद कह रहे हैं, उसे चार दशक पहले बाकायदा आदेश देकर पढ़ाने का निर्देश दिया गया था। उसी की आलोचना में सीताराम गोयल ने ‘‘भारत में इस्लामी साम्राज्यवाद का इतिहास’’ लिखी थी, जो आज भी सामयिक है। बहरहाल, मुस्लिम शासन की लीपापोती में दी गई दलीलों में एक यह है कि यहाँ लोग स्वेच्छा से मुसलमान बने थे। जबकि मूल स्त्रोतों में इस का एक भी उल्लेख नहीं मिलता। इसे बस एक घोषणा के रूप में रख कर सत्ता बल से प्रचारित कराया गया है। इसे न मानने वालों को बुरा-भला कहा जाता है। दूसरा दावा है कि पहले भारत के लोग ‘हिन्दू’ थे ही नहीं; यह संज्ञा तो इस्लामी हमले के बाद प्रचलित हुई। लेकिन उस से बड़ा तथ्य है कि मुसलमानों के पहले भारत एक महान सभ्यता-संस्कृति थी। सनातन धर्म द्वारा पोषित संस्कृति। मुस्लिम हमलों ने हमें एक समुदाय में बदल दिया, जिस से अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए आवाहन किया गया। अतः हमें ‘हिन्दू’ संज्ञा इसलिए स्वीकार करनी पड़ी क्योंकि अब ऐसे लोग भी यहाँ आ जमे थे जो सनातन धर्म के शत्रु थे। सो हमें अपनी कोई पहचान रखनी ही है, चाहे उस के लिए चुनी गई, या परिस्थितिवश लादी गई संज्ञा कितनी भी दोषपूर्ण हो। फिर, अब यह संज्ञा असंख्य हिन्दू योद्धाओं और महान नायकों से गरिमामय बन चुकी है। उन्होंने धर्म और देश के लिए अपना बलिदान दिया।
तीसरी दलील है कि मुगलों ने भारत को एक किया। जबकि भारतवर्ष के ‘चक्रवर्ती-क्षेत्र’ होने की धारणा महाभारत एवं पुराणों से चलती आई है। यह परंपरा सम्राट समुद्रगुप्त तक स्पष्ट मिलती है। फिर आदि शंकराचार्य ने संपूर्ण भारत में चार दिशाओं में चार धाम और संपूर्ण भारत में चुन कर 108 मंदिर बनाए। वे हिमालय से लेकर केरल तक फैले हुए हैं। यह भी इस्लाम से पहले हो चुका था। अतः एक भारतवर्ष की धारणा काल-गति में कमजोर जरूर हुई, पर वह 1947 ई. तक जीवित थी, जब हमारे नेताओं ने देश-विभाजन मान लिया। इस्लामी हमलावरों को हमलों का ईनाम देना स्वीकार कर लिया। पर जैसा पाकिस्तान के हश्र से भी दिखता है, इस्लाम हमेशा अपना गुलाम, एक समरूप, सैनिक राज्य चाहता है, जबकि साम्राज्य की भारतीय धारणा सनातन धर्म से अनुप्राणित थी। उस में स्वधर्म, स्थानीय परंपरा, संस्कृति के आधार पर स्वायत्तता, स्वराज का सुख लेते बड़े-बड़े जनपदों का संघ होता था। सो इस्लाम ने एकता में कोई योगदान नहीं दिया। इस ने तो हमारी एकता के तंतुओं को गंभीर क्षति पहुँचाई। उसी ने हमें काट कर अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश, जैसे टुकड़े किए।
संपूर्ण भारत का ‘साझा बाजार’ बनने की बात तो पूँजीवादी-साम्राज्यवादी दलील है। जिस का अर्थ है कि देश के अंदरूनी भागों में रहने वाले सामान्य जन जो पैदा करते हैं, उस का उपभोग उन्हें करने की अनुमति नहीं। उन के श्रम, अध्यवसाय, और कौशल का फल हथिया कर महानगरों में रहने वाली परजीवी आबादी तक पहुँचाया जाता है। जबकि भारतीय संस्कृति में ऐसी अधिरचनाएं (इन्फ्रास्ट्रक्चर) थीं जिस में स्थानीय वस्तु, तकनीक, श्रम के उपयोग से स्थानीय जरूरतों की पूर्ति होती थी। उस से जो बचता था वही अन्य उपयोगी वस्तुओं के बदले बाहर भेजा जाता था। इस अधिरचना को मुस्लिम शासन ने अपनी सैन्य जरूरतों और परजीवी दरबार के कारण कुछ हानि पहुँचाई। पर कुल मिलाकर वह बची रही। उसे तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अंदर तक घुसकर लगभग खत्म कर डाला। अतः मुस्लिम शासन ने साझा बाजार नहीं बनाया, न इस ने पारंपरिक अधिरचना को बड़ी हानि पहुँचाई। कारण यह भी था कि इस्लामी किताबों व इतिहास में लूट-पाट, उस की आपसी बाँट और भोग के सिवा किसी तंत्र की जानकारी नहीं है। इसलिए यहाँ पारंपरिक आर्थिकी को नुकसान न पहुँचाना ही मुगलों के लिए फायदेमंद था।
जावेद जैसे लोग मुगलकाल के दिल्ली-आगरा को लंदन-पेरिस से चमकदार बताते हैं। वे भूल जाते हैं कि 18वीं सदी के अंत तक भारत की तुलना में पूरा यूरोप कुछ था ही नहीं! वह तो एक निर्धन महाद्वीप था जो क्रिश्चियेनिटी के झंडे तले अपने बेकार लोगों, रफियनों की फौज बाहर लूट के लिए भेजता था। अतः तुलना करनी हो, तो मुगल आगरा-दिल्ली की तुलना पहले के तंजौर, मदुरा, कांचीपुरम, कन्नौज, उज्जैन, वाराणसी, और पाटलिपुत्र से करें। ये सब मुस्लिम राज से पहले के नगर थे। बल्कि समकालीन विजयनगर की बनिस्पत भी आगरा-दिल्ली छोटे लगेंगे। सो मुगल राजधानियाँ भारत के अनेक नगरों की तुलना में बड़ी क्षुद्र थीं।
फिर, सभी मुस्लिम शहर घनी आबादी वाली गंदी बस्तियों का जाल थे। उसे देख कर पारंपरिक भारत के नगर-शिल्पियों के क्लासिक सौंदर्य-बोध को धक्का लगता। मोहेनजोदारो की नगर रूप-रेखा सब से प्राचीन, और जयपुर सब से निकट के हिन्दू नमूने हैं। उस से देखें कि यहाँ नागर संस्कृति की कल्पना में कितने विस्तृत स्थल हुआ करते थे! उस के निर्माता अपने आंतर भाव के असीम से प्रेरणा पाते थे। जबकि दुनिया भर में मुस्लिम शहर प्रायः संकरी गंदी बस्तियों (घेट्टो) से लगते हैं। इस्लाम की संकीर्ण भावात्मकता, अलगाव, और आक्रामकता के ही भौतिक प्रतिरूप।
कुछ लोग सूफियों को भारतीय सस्कृति में मुस्लिम योगदान बताते हैं, पर अधिकांश सूफी कोई सज्जन-संत नहीं थे। जो सच्चे संत थे, उन पर पक्के इस्लामी आज भी त्यौरी चढ़ाते हैं। वैसे सूफियों को अल्लामा इकबाल ने बुरा-भला कहा है। ज्यादातर सूफी इस्लामी साम्राज्यवाद की आँख-कान थे। कबीर, नानक, तुलसी, सूर और मीरा जैसे संतों के उदय का भी मुस्लिम शासन से कोई सरोकार नहीं है। वे इस्लाम के बावजूद हुए, क्योंकि कई कारणों से उन्हें इस्लाम खत्म न कर सका। कबीर और नानक ने साफ शब्दों में इस्लाम की बुराइयाँ बताई हैं। तुलसी, मीरा और सूरदास ने तो इस्लाम का उल्लेख तक नहीं किया। इसे उन्होंने इस लायक नहीं समझा था।
फिर, रहीम एवं तुलसी अकबर के परवर्ती दौर में बढ़े जिस ने भारत में इस्लामी राज्य का ढाँचा समेट दिया था। उस ने हिन्दुओं से संधि कर ली। धीरे-धीरे खुद भी इस्लाम से किनारा करना शुरू किया। उस के द्वारा नया धर्म ‘दीने-इलाही’ चलाना वही चीज थी। यह ‘दीने-मुहम्मद’ को ठुकराने जैसा ही था। इसीलिए भारत में जावेद जैसे प्रगतिशील अकबर के गीत गाते हैं, पर पाकिस्तान में अकबर से घृणा की जाती है। फिर, छः सौ साल में दर्जनों मुस्लिम शासकों में बस एक अकबर का नाम लेकर ‘सामासिक संस्कृति’ की नारेबाजी भी असलियत दर्शाती है कि बाकी मुस्लिमों ने जो किया, उस में दिखाने लायक कुछ नहीं है!
यहाँ विभिन्न मुस्लिम शासकों का शासन मुख्यतः इस्लामी ‘कानून’ से चलता था। लेकिन वह भारत को कभी स्वीकार्य न हुआ। इसीलिए मुगल राज में भी तमाम उपलब्धियाँ मुख्यतः हिन्दू देन थी। उद्योग-व्यापार, कला-संगीत, साहित्य। इस का प्रमाण यह भी है कि जिन असंख्य देशों में इस्लामी ‘कानून’ सार्वभौम बन गया, वहाँ कितने यहूदी, क्रिश्चियन, बौद्ध कवि, संत फले-फूले? कौन से तानसेन, रहीम, मीर, गालिब या रफी, नौशाद अरब के इस्लामी इतिहास में मिलते हैं? अतः भारत में महान मुस्लिम कवि, कलाकार विशुद्ध हिन्दू प्रभाव की देन हैं। यही आज भी सच है। वरना जावेद अख्तर जैसे लोग पाकिस्तान में बच नहीं सकते। उन्हें तारिक फतेह की तरह बाहर शरण लेनी पड़ती है। फिर भी, जावेद सीनाजोरी पर आमादा हैं। उन्हें विवेक की आँखों से सचाई देखनी चाहिए।
– डॉ. शंकर शरण (७ मई २०२०)