अपने अहंकार में रावण और दुर्योधन ने पाप कर्म और अनैतिक कर्म किए , जिनका फल उन्हें शर्मनाक के रूप में भुगतना पड़ा । इसी प्रकार से जो भी मनुष्य पाप कर्म और अनैतिक कर्म करता है उसका प्रतिफल उसे जन्म जन्मांतर तक भोगना पड़ता है। अहंकार के कारण मनुष्य राक्षस हो जाता है और इसी एक दुर्गुण के कारण अनेक अन्य दुर्गुण पैदा हो जाते हैं । मनुष्य और राक्षस दोनों के शरीर एक जैसे होते हैं , परंतु मनुष्य अपने सद्गुणों के कारण मनुष्य कहलाता है जबकि राक्षस अपने दुर्गुणों के कारण राक्षस हो जाता है । राक्षसों के सिर पर सींग नहीं होते परंतु उनके भीतर जो दुर्गुण पाए जाते हैं उन्हीं को सींग का प्रतीक माना जाता है । प्रकृति ने मनुष्य को बिना सींग का बनाया है , इसका अभिप्राय है कि उसकी दुष्ट प्रवृतियां कोई बाहरी स्वरूप नहीं बनाएंगी अर्थात बाहर निकलकर सींग के रूप में विनाश नहीं मचाएंगी , बल्कि भीतर शांत रहकर बाहरी संसार को भी भीतर के शांत संसार जैसा ही बनाएंगी ।
राक्षसी प्रवृत्ति सतयुग त्रेता द्वापर कलयुग में निरंतर पाई जाती रही है , इसलिए देवासुर संग्राम भी हमेशा होता रहा है। वास्तव में मनुष्य की दिव्य सदप्रवृत्तियों और दुष्ट दुष्प्रवृत्तियों के मध्य होने वाले संघर्ष का ही नाम देवासुर संग्राम है ।
राक्षसी मनुष्य अपने अहंकार के कारण ईश्वर के विधान पर विश्वास न करके स्वयं को स्वयंभू समझ कर अपने निर्णय को सर्वोपरि मानकर दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं जैसा दुर्योधन ने किया। उसने भीष्म पितामह , गुरु द्रोणाचार्य , कुलगुरु कृपाचार्य आदि सभी का अपमान करते हुए उन पर अपने निर्णय को थोप दिया । राक्षसी प्रवृत्ति के कारण नीति और नियम का अनुपालन न करके यह नैतिक को अनैतिक मानते हैं । जिससे वह अपने चारों तरफ का वातावरण पूर्णतया नकारात्मक सृजित कर लेते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने दुर्गुण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता ।
दुर्योधन जैसी प्रवृत्ति से बचने के लिए मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह अपना अंतरावलोकन आत्मावलोकन अवश्य करता रहे । इसी को स्वाध्याय कहते हैं । सद ग्रंथों का अध्ययन भी करे और अपने आप का भी अध्ययन करे । मनुष्य को चाहिए कि वह भूसूर बने ना कि भस्मासुर । विवेक से मनुष्य अपने दुर्गुणों को छोड़कर धीरे धीरे अपना आचरण शुद्ध कर सकता है।
कर्मफल का सिद्धांतअत्यंत कठोर है ।अच्छे कर्म का अच्छा फल मिलता है तो बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है अच्छे कर्म से उर्ध्व गति ,बुरे कर्म से अधोगति निश्चित है।अनेक जन्मों में किए हुए कर्म हमारे अंतःकरण में संग्रहीत रहते हैं, वह संचित कर्म कहलाते हैं ,और उनसे ही प्रारब्ध बनता है । यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण ने कर्म को प्रधानता दी है। इसलिए योग: कर्मसु कौशलम् की बात कही गई है । इसका अभिप्राय है कि मनुष्य को अपना कर्म पूर्ण कौशलता के साथ करना चाहिए , अर्थात उसमें अपनी सारी बौद्धिक क्षमताओं को डाल दे। जितना भी उसके पास सर्जनात्मक ज्ञान है उसके अनुसार उस कार्य को करने का प्रयास करे , जब उसमें इस प्रकार का ज्ञान जुड़ जाता है तो मनोयोग से किया गया वह कार्य योग ही बन जाता है ।
कर्म की प्रधानता में गीता में यहां तक कहा गया है कि मनुष्य की यात्रा जहां से छूटती है अगले जन्म में आगे के लिए वहीं से शुरु हो जाती है। हमको यह मानना चाहिए कि हमारे पास जो भी कुछ है वह उसी परमपिता परमात्मा का दिया हुआ है। हम केवल इसमें निमित्त मात्र हैं।
इसलिए बुरे कर्मों का परित्याग और अच्छे कर्मों को ग्रहण करना हमेशा प्रयास करना चाहिए और अपने कर्मों के प्रति सजग और सतर्क रहना चाहिए । इसी से शांति प्रसन्नता और उल्लास प्राप्त होता है । सारा खेल ही कर्मों का यदि अच्छा फल चाहते हैं तो अच्छे कार्य करने होंगे ।
महत्वाकांक्षा
मनुष्य ने अपनी महत्वाकांक्षा में बहुत बढ़ा ली है जिसके लिए वह किसी भी पाप को करने के लिए आमादा है । पहले जब बड़ा परिवार होता था तो इस प्रकार की बातें देखने को नहीं मिलती थीं । लेकिन आज छोटे परिवार होते हुए भी मनुष्य सुखी दिखाई नहीं पड़ता। यह हमारी बदली हुई मानसिकता का परिणाम है। परिवार में गिनती में आज माता-पिता भाई-बहन नहीं आते । बुआ , चाची – चाचा , ताऊ -ताई यह तो बहुत दूर के हो गए । यह अब सगे नहीं रह गए।
आज के दौर में संयुक्त परिवार की संस्कृति समाप्त होती जा रही है । माता पिता और उनके दो छोटे बड़े बच्चे एक साथ रहते हैं तो उनमें भी अनुबंध रहती है और एक दूसरे के प्रति क्रोध और तनाव लिए घूमते हैं। यह सब महत्वाकांक्षा के कारण और सुखी जीवन की मृगतृष्णा के कारण हो रहा है। इसीलिए महत्वाकांक्षा छोड़ देनी चाहिए।
एक भवन में सब रहें पर मिले नहीं एक बार ।
कुंठा और तनाव से नित टूट रहे परिवार ।।
करुणा
ऐसा नहीं किस संसार की इस स्थिति के लिए हम किसी एक व्यक्ति को जिम्मेदार ठहरा दें बल्कि इसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। निश्चित रूप से इससे मानवता को क्षति पहुंची है और मानवता इससे आहत हुई है । हम इस पर गंभीरता पूर्वक चिन्तन करें, तभी हम एक दूसरे के प्रति और स्वयं के प्रति करुणा का भाव जागृत कर पाएंगे । क्योंकि करुणा के बिना जीवन में प्रेम का साम्राज्य स्थापित होना असंभव है।
गौतमबुद्ध के अंदर जब करुणा जागी तो उनका जीने का ढंग ही बदल गया। उनकी करुणा का विस्तार इतना था कि प्रत्येक जीव के प्रति वह सहृदयी थे , उनका निर्मल, विमल , धवल , पवित्र ह्रदय सबके कल्याण से ओतप्रोत था । अपने इन्हीं दिव्य गुणों को वह संसार में फैलाना चाहते थे । जिससे सभी प्राणियों के प्रति सभी मनुष्य ऐसे ही सहृदय हो जाएं ।करुणा से विश्व कल्याण एवं विश्व बंधुत्व आबद्ध है। करुणा के इस झरने से प्रेम की धारा निकलती है । जो दूसरों के हृदय को प्रभावित करती है , शीतल करती है और इससे सृजन होता है एक ऐसे अदृश्य जगत का जिसमें सब एक दूसरे से प्रेम के धागों से बन्ध जाते हैं ।इसलिए प्रेम और करुणा दोनों को हमारे यहां पर एक समान सम्मान दिया गया है। इन दोनों के मिलन से ही मनुष्य के भीतर अहिंसा का भाव उत्पन्न होता है यह अहिंसा प्रत्येक प्राणी को उसके जीवन का सुरक्षा कवच प्रदान कर देती है।
विवेकशीलता
मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि और विवेक दिया । जो एक पशु के पास नहीं है।इसलिए पशु और मनुष्य में बहुत सारे अंतर हैं। पशु उसको कहते हैं जो पाश अर्थात रस्सी से बंधा हो ,जंजीर से बंधा हो । जबकि मनुष्य का अर्थ होता है जो मननशील हो अर्थात जो अच्छे और बुरे पर विचार करता हो । जो केवल विवेक से संभव है ।जिस प्रकार एक पशु को बांधकर रखा जा सकता है उस प्रकार मनुष्य को बांधकर नहीं रखा जा सकता ।मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार घूमता फिरता और आचरण करता है ।उसे कोई बंधन स्वीकार नहीं होता और न वह बंधन चाहता है क्योंकि उससे वह अपनी स्वतंत्रता पर कुठाराघात मानता है।
सभी प्राणियों में मनुष्य विवेकशील प्राणी है। अपनी बुद्धि विवेक से अच्छे और बुरे कार्यों में अंतर कर लेता है ।वह बहुत सुविधापूर्वक यह अंतर कर सकता है कि कौन कार्य करने के योग्य है और कौन सा कार्य करने के योग्य नहीं है ? विवेक मनुष्य की जागृत अवस्था का नाम है ।वही व्यक्ति विवेकी है जो पूर्ण तरह जागृत होता है। अपने अच्छे बुरे कार्यों के परिणामों के प्रति सजग और सतर्क रहता है। मनुष्य में ईश्वर ने यह समझ दी है कि वह अपने जीवन को किस प्रकार उर्धवरेत्ता बना सकता है ?
केवल परमात्मा ने मनुष्य को ही ऐसी बुद्धि दी है ।जिसमें वह यह सोच सकता है की अनेक जन्मों के पश्चात यह मानव शरीर प्राप्त हुआ है।यह मानव का चोला प्राप्त हुआ है। इसलिए यह परमात्मा की अमूल्य धरोहर है ,और हमें इसका उपयोग उसी प्रकार से करना चाहिए जिससे हम आत्म कल्याण और समाज कल्याण में सतत प्रयत्नशील रह सकते हैं। विवेकशील होने के नाते मनुष्य ही आत्म कल्याण ईश्वर भजन वंदन के प्रति रहता है तथा स्नेह एवं सम्मान रखते हुए अपने जीवन को उन्नत एवं सफल बना सकता है। वास्तव में जो नियम आत्मविकास , सामाजिक विकास और राष्ट्र को विकसित करने के लिए बनाए जाते हैं उन सभी विचारों ,कार्यों, नियमों और संस्कारों का पालन करते हुए अपने चरित्र को केवल मनुष्य ही इतना उत्कृष्ट बना सकता है , जिससे वह संसार में प्रशंसनीय परम आदरणीय व्यक्ति बन जाए ।इसलिए जीवन के एक-एक पल को नैतिक और प्रशंसनीय बनाने का प्रयास किया जाए।
मनुष्य को अपने अंदर संयमशीलता का भाव विकसित करना चाहिए और सहज होकर उन गुणों का विकास करना चाहिए जिनके द्वारा मनुष्य ईश्वर की साधना , आत्म चिंतन, आत्म परिष्कार आत्मिक विकास , आत्म नियंत्रण ,दृढ़ प्रतिज्ञ होने के साथ-साथ सदभावी समंभावी, सहज ,सरल बन जाता है। इसीलिए पूर्व में यह विवरण दिया जा चुका है कि सुख और दुख के समय भी संयम से ही कार्य लेना चाहिए और सहज रहना चाहिए । इसी से सफलता की सीढ़ी मनुष्य चढ़ सकता है। प्राथमिक तौर पर संयमित होना आवश्यक है जो हमे सहजता की सीढ़ी पर ले जाती है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत