राजा ने उसके पास जाकर कहा-भाई! मैं बहुत भूखा प्यासा हूं। तुम्हारे पास कुछ खाने पीने को है क्या?
लकड़हारा बोला-हे, आओ बैठो! दूर उधर एक बावड़ी है, मैं वहां से पानी लाता हूं। तब तक तुम रोटी खाओ। पोटली से निकालकर एक मोटी सी रोटी राजा के आगे परोस दी। थोड़ा सा साग भी रोटी पर रख दिया। राजा ने रोटी खाई। लकड़हारा पानी लाया तो प्यास भी बुझाई। शांत और तृप्त होकर उसने कहा-मैं यहां का राजा हूं। घर का मार्ग भूल गया हूं।
लकड़हारे ने मार्ग बता दिया।
राजा बोला-मुसीबत में तुमने मेरी मदद की है। यदि तुम्हें कभी मेरी जरूरत पड़े तो मेरे पास आ जाना। मैं तुम्हारी सहायता करूंगा।
लकड़हारे ने हाथ जोड़कर बड़े प्रेम से विदा किया।
कुछ दिन इसी तरह निकल गये। धीरे धीरे वे सब पेड़ कट गये, जिनकी लकड़ी काटके लकड़हारा कोयला बनाता था। अब वह जीविका चलाए तो कैसे? लकड़ी कहां से काटे? बहुत दुखी हो गया। उसी हाल में राजा के पास पहुंचा। सेवकों ने सूचना दी कि कोई लकड़हारा मिलने आया है।
राजा ने सोचा तो याद आ गया कि उसने लकड़हारे को सहायता देने का वचन दिया था। राजा ने कहा-उसे अच्छे अच्छे कपड़े पहनाकर मेरे पास लाओ।
सेवकों ने लकड़हारे को स्नान कराया, नए वस्त्र पहनाए और राजा के सामने ले आए।
राजा ने पूछा-क्यों भाई, क्या बात है? उदास क्यों हो?
लकड़हारे ने बताया-महाराज जिस जंगल से लकडिय़ां काटता था, वहां पेड़ नही रहा। अब जीविका का मेरे पास कोई साधन नही। आपकी शरण में आया हूं कि कोई जंगल मिल जाए तो भूखा मरने से बच जाउं।
राजा बोला-हो जाएगा तुम्हारा काम। चिंता न करो।
उसके चले जाने पर राजा ने मंत्रियों को बुलाकर बात की। निर्णय हुआ कि नगर के दक्षिण में राजा का चंदन के वृक्षों का जो वन है, वह लकड़हारे को दे दिया जाए। तब वन विभाग के अधिकारी को बुलाया गया। चंदन वृक्षों का वन लकड़हारे के नाम हो गया। उसे सूचना भेज दी गयी।
इस बात को कई वर्ष बीत गये। एक दिन महल में बैठे राजा को लकड़हारे की याद आई। प्रसन्नता में उसने सोचा। अब तो लकड़हारा बहुत धनी हो गया होगा। उसने कई भवन और महल बनवा लिये होंगे। चलकर उसे देखना चाहिए। मंत्रियों को साथ लेकर वह उस वन में गया, जो लकड़हारे के नाम कर दिया था, वहां न कोई वन था, न कोई पेड़।
राजा ने अचरज से पूछा-अरे वह वन कहां है जो लकड़हारे को दिया था? तुम यह मुझे कहां ले आए? वह वन किसी और जगह होगा।
मंत्रियों ने वन विभाग के अधिकारियों को देखा। उन अधिकारियों ने कागजों की छानबीन करके कहा-महाराज वह जंगल तो इसी जगह था। राजा ने पूछा-यहां था तो कहां गया?
खोज करने के बाद कुछ दूरी पर चंदन के कुछ पेड़ दिखाई दिये। उनके पीछे बैठा लकड़हारा भी नजर आया। निराश, उदास और विचारमग्न।
राजा ने उसके पास जाकर पूछा-अरे तू क्यों चिंता में डूबा है?
लकड़हारे ने प्रणाम करके कहा-आपकी कृपा से इतने साल तो कट गये, अब यही कुछ पेड़ रह गये हैं। थोड़े दिनों में ये भी जल जाएंगे। चिंता इसी बात की है कि बाद में क्या करूंगा?
राजा ने आश्चर्य से पूछा-ये तो थोड़े से रह गये, इतने बड़े जंगल का क्या किया तूने?
लकड़हारा बोला-रोज लकड़ी काटता हूं, जलाकर कोयला बनाता हूं, वही बाजार में बेचकर पेट पालता हूं। राजा ने दुखी आवाज में कहा-अरे अभागे! यह क्या किया तूने? यह तो चंदन का जंगल था। उसे जलाके कोयला क्यों बना दिया?
लकड़हारे ने हैरानी में पूछा-यह चंदन क्या होता है?
राजा बोला-अच्छा होता यदि तू यह जानता। जा, दो तीन फुट की एक लकड़ी काट ला और ले जा उसे बाजार में बेचने। कोयला न बनाना इसका।
लकड़हारे ने वैसा ही किया। एक दुकानदार ने देखा-लकड़ी तो है असली चंदन की, और लकड़हारा है गंवार। उससे पूूछा-क्या लेगा इसका?
लकड़हारा ने उलटा प्रश्न किया-तुम क्या दोगे?
दुकानदार बोला-एक रूपया।
लकड़हारा आश्चर्य में चिल्लाया-क्या एक रूपया? उसका आशय था कि इस नन्हीं सी लकड़ी का मोल एक रूपया? दुकानदार समझा कि यह चंदन की लकड़ी पहचानता है, इसलिए मोल बढ़ा दिया-अच्छा दो रूपया।
लकड़हारा आश्चर्य में चिल्लाया-दो रूपये?
दुकानदार ने घबराकर कहा-चल चार रूपये सही।
लकड़हारा पुन: चिल्लाया-अच्छा चार रूपये?
थोड़ी दूर दूसरा दुकानदार खड़ा था। उसने देखा कि पहला दुकानदार कीमती लकड़ी को कौडिय़ों के भाव खरीद रहा है।
उसने लकड़हारे को पुकारा-अरे इधर आ, मैं दस रूपये दूंगा।
लकड़हारे ने जब दस रूपये मोल सुना तो सिर थामके बैठ गया। धाड़ें मारके जोर जोर से रोने लगा। अब उसे मालुम हुआ कि जिस लकड़ी को जलाकर वह कोयले के रूप में बेचता रहा है वह कितनी मूल्यवान थी। कितनी बड़ी सम्पत्ति का उसने विनाश कर दिया।
उस लकड़हारे की दशा पर, उसकी अज्ञानता पर आपको, तरस आ रहा होगा। किंतु सुनो मेरे भाई हम सब भी तो उस लकड़हारे की भांति हैं। राजाओं के महाराजा परमात्मा ने हमारे किसी पुण्य कर्म से प्रसन्न होकर सांसों का चंदन वन हमें दे दिया था। हमने घिनौनी वासनाओं, घृणा और पाप की अग्नि में इन्हें जलाकर राख कर डाला। कितने कीमती हैं ये सांस-यह हमने समझा नही। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की आग में सांसों का भंडार भस्मीभूत कर डाला।
नही भाई जो होना था सो हो गया। अब तो रह गये चंदन के थोड़े से पेड़ थोड़े से वर्ष इस जीवन के शायद थोड़े से महीने। इन्हें व्यर्थ में मत जलाओ इनका शुभ कर्मों में उपयोग करो। यत्न करो कि ये सांस लोक और परलोक सुधारने में काम आएं-
बहुत गयी, थोड़ी है बाकी, अब तो अलख जगा बाबा।
थोड़े दिन का खेल तमाशा, क्यों आसक्त बना बाबा?
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