एफडीआई:समर अभी शेष है
सपा और बसपा की सहायता से एफडीआई संकट में फंसी कांग्रेस सरकार संकट पर पार पाते हुए फिलहाल सफल हो गयी है। लोकसभा में इन दोनों दलों ने अनुपस्थित रहकर सरकार को लाभ पहुंचाया और अल्पमत से बहुमत पाकर सरकार अपनी इज्जत बचा गयी। इसके बाद राज्यसभा में भी बसपा ने सरकार को सीधा सीधा समर्थन दिया। इससे विदेशी दुकानें भारत में खुलने का मार्ग साफ हो गया। इस दौरान अधिकतर राजनैतिक दलों ने एफडीआई का विरोध किया, लेकिन सपा और बसपा की अवसर वादी राजनीति के कारण यह विरोध केवल विरोध होकर रह गया। देश की जनता की मेहनत की कमाई से चलने वाली पार्लियामेंट पर इस दौरान जो भी व्यय हुआ और जो महत्वपूर्ण निर्णय इस समय में ले लेने चाहिए थे लेकिन वो लिये नही गये, वह क्षति अलग से हुई है। भाजपा और जनता दल (यू) के द्वारा यह ठीक ही कहा गया है कि असली समर यानि लोकसभा चुनाव में जनता के द्वारा लिया गया निर्णय, अभी शेष है। यहां पर यह बात विचारणीय है कि एफडीआई के माध्यम से मनमोहन सरकार देश के संपन्न वर्ग के 25-30 करोड़ लोगों के हितों के सामने देश के लगभग 90-95 करोड़ लोगों के हितों को नजरअंदाज कर गयी। शासन की नीतियों में लोकहित नही बल्कि वोट हित दिखाई दिया और स्वार्थ दिखाई दिया। सिरों की गिनती के खेल में कांग्रेस सरकार जीत गयी, लेकिन नैतिकता के दृष्टिकोण से कांग्रेस हार गयी। इसका कारण साफ है कि जनता ने सपा और बसपा को अलग-अलग और कांग्रेस को अलग वोट दिया था। वोट लेते समय कांग्रेस ने जनता से यह नही पूछा था कि अपनी मनमानी चलाने के लिए वह अपने विरोधी लोगों से नीतिगत विरोध होते हुए भी क्या कभी समर्थन ले सकती है? और न ही सपा और बसपा ने अपने लिये वोट मांगते समय कभी यह कहा था कि किसी समय वह अपना समर्थन सरकार को दे सकते हैं। यदि ऐसा नही है तो फिर नैतिक रूप से मनमोहन सरकार और सपा व बसपा को लोकसभा व राज्यसभा के भीतर किसी अनैतिक गठबंधन का प्रदर्शन करने से बाज रहना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश के नेतागण और राजनैतिक दल समय आने पर सारे नैतिक नियमों को ताक पर रख देते हैं। सरकार बचाना इन्हें देश से भी प्यारा लगता है। इस समय चुनाव का माहौल है, जिसमें सपा, बसपा और कांग्रेस अपने अपने चुनावी आंकड़ों में फंस रहे हैं। लेकिन आंकड़ों से भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि एफडीआई के आने से देश में कितने लोग लाभान्वित होंगे और कितने लोगों का रोजगार छिन जाएगा। यदि इसी नई योजना अथवा नीति से दस लोगों को कागजों में रोजगार मिल रहा है और मैदान में 12 लोग रोजगार विहीन हो रहे हैं तो यह बारह लोगों के साथ अन्याय है। जबकि एफडीआई से तो इस प्रतिशत से भी अधिक लोग बेरोजगार होने जा रहे हैं। सपा और बसपा दोनों पार्टी दलितों, शोषितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चलने की बात करती हैं तो उनकी राजनीति का आधार भी यही है, परंतु इस तथ्य को पूरी तरह उपेक्षित करके सपा और बसपा ने अपने मतदाताओं के साथ छल करते हुए अपने तात्कालिक राजनैतिक लाभ को ध्यान में रखा है। जिसे किसी भी दृष्टिïकोण से उचित नही कहा जा सकता, सरकार अपनी गलतियों से स्वयं गिरे या न गिरे यह देखना सपा, बसपा का काम नही है, अपितु इन दोनों दलों का काम है संसद में सजग रहकर देश के हितों की रक्षा करना। देश के हित आज की तारीख में एफडीआई का विरोध करने में थे। इस तथ्य को समझकर भी सपा और बसपा ने उपेक्षित किया कि या तो असली समर में हमारे देश की जनता इसका हिसाब किताब अवश्य करेगी। वर्तमान में एफडीआई लागू हो गयी है परंतु अभी इस पर जनता का मत आना शेष है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।