प्रवीण गुगनानी
पूरे देश में एक अहम प्रश्न चल रहा है कि विभिन्न महानगरों में बसे प्रवासी मजदूरों को किस प्रकार उनके गृह राज्यों में वापिस भेजा जाये। कुछ राज्यों से हजारों बसों और दसियों रेलगाड़ी से मजदूर घर वापिस भेजे भी जा रहे हैं।
प्रवासी श्रमिकों का प्रश्न देश की व्यवस्था के लिये मात्र सिरदर्द ही नहीं है, संभवतः शीघ्र ही यह समस्या समूची व्यवस्था का नासूर भी बनने जा रही है। अपने गांवों से सैंकड़ों किमी बैठा हुआ यह मजदूर देश के कर्णधार राजनीतिज्ञों की निर्णय क्षमता, संवेदनशीलता व समझबूझ हेतु चुनौती बन गया है। इतना तय है कि इस संदर्भ में जो भी निर्णय लिये जाएंगे उनकी आलोचना की बड़ी सरल गुंजाइश बनी ही रहेगी। देखना है कि किस प्रकार आलोचना की चिंता न करते हुये विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री जी कठोर निर्णय लेते हुये इस झंझावात से देश को बहार निकालते हैं। राष्ट्रीय कार्यक्षमता की पूंजी इस श्रमिक वर्ग को घर पहुंचाने के चक्कर में यदि देश में कहीं भी कोरोना का सामुदायिक संक्रमण (कम्यूनिटी स्प्रेड) फैला तो पूरा देश परस्पर “ब्लेम गेम” मे उलझा दिखाई देगा। प्रवासी श्रमिकों के विषय में देश भर के मुख्यमंत्रियों के मध्य सामंजस्य तो छोड़िये, बड़ा टकराव दिख रहा है, इस स्थिति में यह समस्या देश को कोरोना के सामुदायिक फैलाव की विस्फोटक स्थिति में लाकर खड़ा कर सकती है।
पूरे देश में एक अहम प्रश्न चल रहा है कि विभिन्न महानगरों में बसे प्रवासी मजदूरों को किस प्रकार उनके गृह राज्यों में वापिस भेजा जाये। कुछ राज्यों से हजारों बसों और दसियों रेलगाड़ी से मजदूर घर वापिस भेजे भी जा रहे हैं। श्रमिकों को घर भेजने की चिंता समयोचित है, किंतु क्या यह भी सही नहीं है कि इन्हें गांवों मे तत्काल रोजगार नहीं मिलेगा और आने वाले दिनों में जैसे ही लॉकडाउन खुलेगा वैसे ही ठप्प पड़े उत्पादन तंत्र को सक्रिय करने हेतु इन्हीं मजदूरों की बड़ी आवश्यकता पड़ेगी। मजदूरों की यह आवश्यकता सामान्य समय से दोगुनी भी रह सकती है क्योंकि विभिन्न आवश्यक उत्पादों की समूची पाइप लाइन खाली पड़ी है। लॉकडाउन पूरा खुले या आंशिक, दोनों स्थितियों में इतना तय है कि केंद्रीय शासन देश भर की उत्पादन इकाइयों को चालू करने का लक्ष्य केंद्रित प्रयास करेगा। इस स्थिति में घर पहुंच गये मजदूरों को वापिस महानगरों में बुलाना तो बड़ा ही दुष्कर कार्य होगा।
देश में लगभग 12 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं जो नगर, महानगर में जाकर असंगठित क्षेत्रों से कमाकर जीवन यापन करते हैं। सुविधा के नाम पर इनके पास अधिकतम किराये की कोठरी, साइकिल, रिक्शा या मोटरसाइकिल और एक मोबाइल रहता है। इनका यह पूरा सामान शौक या सुविधा के लिये नहीं अपितु रोजगार की जरूरतों के लिये खरीदा जाता है। इनमें से अधिकांश के पास जो स्मार्ट या सादा मोबाइल फोन है वही संकट की इस घड़ी में इनके लिये मानसिक संतुष्टि का कारण बन सकता है। सैंकड़ों किमी दूर गांवों में बसे इनके रिश्ते-नातेदारों से यदि इनका जीवंत संपर्क बना रहे और हाल चाल, खैर-खबर लेना देना होता रहे तो इस मानसिक संबल से इन प्रवासी श्रमिकों का जहां हैं वहीं बने रहना संभव हो सकता है। जिस प्रकार की इनकी स्थिति होती है उसमें यह स्पष्ट है कि इन्हें मोबाइल रिचार्ज कराने के लिये हाथ में नगदी लेकर रिचार्ज की दुकान तक चलकर जाना होता है तब ही इनका फोन रिचार्ज हो पाता है। न तो इन्हें फोन पर घर बैठे फोन रिचार्ज वाउचर उधार मिलता है और न ही ये लोग ऑनलाइन रिचार्ज करा सकते हैं। अब परिस्थिति यह है कि रिचार्ज की दुकानें बंद हैं और यदि किसी समय में इन्हें खुली मिलती भी हैं तो इनके पास रिचार्ज कराने को छोड़िए खाने और बस की टिकिट के पैसे भी नहीं हैं। अब इस हाल में महामारी से उपजे संकट, भूख, बेरोजगारी व भय की दुखद परिस्थितियों में अपनों से संवाद नहीं होना एक बड़ी मानसिक समस्या उत्पन्न करता है। अधिकांश मजदूर संवाद के अभाव में ही अपना अपना स्थान छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं अन्यथा ये वर्ष में एक दो बार ही अपने गांव-घर की ओर जाते हैं। यहां यह भी स्मरणीय है कि प्रवासी मजदूरों का एक बड़ा प्रतिशत अभी हाल ही में होली के समय अपने-अपने गांव से लौट कर आया है। इन प्रवासी श्रमिकों के मनोविज्ञान को समझने हेतु एक यह भी विषय ध्यान मे रखना चाहिये कि इनमें से लगभग पचास प्रतिशत अकेले ही नगरों में काम करने हेतु आते हैं और इनकी स्त्रियां और बच्चे गांव में ही रहते हैं। बहुत ही सीमित भौतिक आवश्यकताओं वाले इन अकेले पुरुष मजदूरों को शहरों में मात्र भोजन, शरण (शेल्टर) व रिचार्ज देकर आसानी से शहरों मे रोका जा सकता है। यहां यह तथ्य भी प्रशासन को राहत पहुंचाने वाला है कि प्रवासी मजदूरों की इस बड़ी संख्या का 70% आयु वर्ग 30 वर्ष से कम की आयु का है। इन नौजवानों को मूलभूत सुविधायें देकर अपने अपने वर्तमान स्थानों पर रोके रखना कहीं अधिक सरल है, बजाये इन्हें बस, रेल से इनके गांव भेजने के। इन नौजवानों का जहां हैं वहीं बने रहना कम्यूनिटी स्प्रेड को रोक कर राष्ट्र की एक बड़ी मदद कर सकता है।
नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े कहते हैं कि अपने यहां लगभग 326 मिलियन, यानि बत्तीस करोड़ साठ लाख इंटरनल माइग्रेंट्स लेबर हैं। इनमें से बड़ी संख्या सीजनल माइग्रेंटस होते हैं जैसे चैतुए वगैरह, बड़ी संख्या इंट्रा डिस्ट्रिक्ट व इंट्रा डिस्ट्रिक्ट यानि आसपास के जिलों में जाने वालों की होती है और शेष लगभग 12 करोड़ प्रवासी ऐसे होते हैं जो एक राज्य से दूसरे राज्य मे मजदूरी करने जाते हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंस के अनुसार लेबर और माइग्रेशन पर काम करने वाली संस्था “आजीविका” इन आंकड़ों की पुष्टि करती है। आजीविका के अनुसार इसमें से 4 करोड़ श्रमिक भवन निर्माण में, 2 करोड़ घरेलू कार्यों में, 1 करोड़ दस लाख टेक्सटाइल से, ईंट भट्टों पर 1 करोड़ और बाकी ट्रांसपोर्ट खदानों और कृषि क्षेत्रों मे कार्यरत हैं। इकोनामिक टाइम्स द्वारा प्रकाशित पिछली जनवरी की एक रिपोर्ट भी लगभग यही कहती है। इनमें सर्वाधिक प्रवासी मजदूर उत्तर प्रदेश, असम, ओडीशा और बिहार से होते हैं। ड्राइविंग, डिलीवरी, सिक्योरिटी, हाउसकीपिंग के कार्यों में लगे इन मजदूरों का 40% बंगलुरू, 15% गुड़गांव, 14% हैदराबाद, 12% दिल्ली, 6% मुंबई, 4% चेन्नई और 4% नोएडा मे रहता है। इस प्रकार इनकी योजना बनाना इन बड़े साधन संपन्न नगरों हेतु बड़ा कष्टसाध्य तो है किन्तु असाध्य कतई नहीं है। और हां, इन्हें रेलों और बसों में भरकर गांव भेजने की अपेक्षा बहुत कम सस्ता व सुविधाजनक भी है।
प्रवासी मजदूरों की इस समस्या की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र के अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ ने भी इनकी वर्तमान हालत पर चेतावनी दी है। आईएलओ ने अपनी रिपोर्ट “कोविड-19 और वैश्विक कामकाज” में कोरोना वायरस संकट को दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे भयानक संकट बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है, “भारत में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वालों की हिस्सेदारी लगभग 90 प्रतिशत है, इसमें से करीब 40 करोड़ श्रमिकों के सामने गरीबी में फंसने का संकट है।”
ILO के महानिदेशक गाई राइडर ने अपनी हाल ही में 18 मार्च को प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट ILO मानीटर संस्करण-2 में कहा है कि– “हमें तेजी से, निर्णायक रूप से और एक साथ आगे बढ़ना होगा। सही, जरूरी, उपाय, अस्तित्व और पतन के बीच अंतर कर सकता है। यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ा व खराब वैश्विक संकट है। उन्होंने कहा, “आज हम जो विकल्प चुनते हैं, वह सीधे तौर पर इस संकट को प्रभावित करेगा और इससे अरबों लोगों का जीवन प्रभावित होगा। सही उपायों से हम इसके प्रभाव को सीमित कर सकते हैं और इसके निशान छोड़ सकते हैं। हमें बेहतर निर्माण करने का लक्ष्य रखना चाहिए ताकि हमारी नई प्रणाली सुरक्षित, निष्पक्ष और उन लोगों की तुलना में अधिक टिकाऊ हो, जिन्होंने इस संकट को होने दिया। यह स्पष्ट है कि ऐसा सब कुछ होने देने के लिए इन प्रवासी मजदूरों का संवेदनशीलता से ध्यान रखना और इनका कार्यशील मानस बनाये रखना आवश्यक है।
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