विद्या की महिमा को समझिए
हमारे वैदिक समाज में मर्यादाओं का बड़ा सम्मान किया जाता है । अभी तक हमने कुछ मर्यादाओं पर ही विचार किया जैसे अपने दान को गोपनीय रखना, घर में आये अतिथि को सम्मान देना , भलाई करके चुप रहना ,अपने प्रति दूसरे को द्वारा किए गए उपकार को सबको बताना, संपदा में अभिमान न करना दूसरे की निंदा नहीं करना । ये सब बातें संसार में तलवार की धार पर चलने के समान हैं। इसीलिए भारतीय समाज में उन लोगों को महात्मा की उपाधि दी जाती है जो घर गृहस्थ में रहकर भी इन मर्यादाओं का धर्मानुसार पालन करते हैं । घर गृहस्थ में रहकर एक व्यवहारिक जीवन जीना होता है । जिसमें बहुत सारी गलतियां होना संभव है । यही कारण है कि घर गृहस्थ में रहकर धर्म का पालन करना भी बड़ा कठिन है। परंतु इसके उपरांत भी जो लोग अपने धर्म का पालन करते रहते हैं और इन मर्यादाओं में बंधे रहकर जीवन गाड़ी को चलाते रहते हैं वे सचमुच धर्मात्मा , पुण्यात्मा व महात्मा ही होते हैं।
अपने जीवन को मर्यादित बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि आदर, नम्रता , संतुष्टि,कृतज्ञता और समय-समय पर सतधर्म सुनना चाहिए । एक मनुष्य को दूसरे को उपदेश देने के स्थान पर स्वयं को उपदेश श्रेयस्कर होता है। जिसके कारण परिष्कार संभव है ,तथा सुधार होता है। मर्यादाओं के पालन के लिए हमारे ऋषियों ने बहुत सुंदर व्यवस्था हम को बना कर दिया है उनका कहना है कि :-
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात् ‘धर्म का सर्वस्व जिसमें समाया है, ऐसे धर्म का सार सुनिए और सुनकर हृदय में उतारिए कि अपनी आत्मा को जो दुःखदायी लगे, वैसा आचरण दूसरों के साथ मत करिए।’
कहने का अभिप्राय है कि यदि हमको किसी दूसरे के द्वारा गाली दिया जाना पसंद नहीं है तो हम स्वयं भी दूसरे को गाली ना दें।
ऋषियों के अनुसंधान के अनुसार हमारी अस्सी प्रतिशत बीमारियों मानसिक कारणों से उत्पन्न होती है ,क्योंकि अवचेतन मन पर हमारी भावनाओं का सीधा प्रभाव पड़ता है । अवचेतन मन का प्रभाव शरीर की क्रियाओं पर भी पड़ता। हमारी रुग्ण मनोवृत्तियों हमें रुग्ण बनाती हैं । मनुष्य को सेवानिवृत्ति के पश्चात भी कार्य करते रहना चाहिए, स्वयं को व्यस्त रखना चाहिए ।यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ । टांगे कब्र में लटकी हुई हैं और बुलावा आने ही वाला है । यह मनोभावों उचित नहीं।
निष्क्रियता से उम्र घटती है , इसलिए अपना उत्साह और प्रसन्नता कभी कम नहीं करनी चाहिए। हाथों की लाइन पर भरोसा ना करें। कर्म से सब कुछ परिवर्तित किया जा सकताहै।
निष्क्रियता घटा रही उम्र को दिन रैन ।
उत्साह निरंतर घट रहा रहता है बेचैन ।।
अनार्य अर्थात अनाड़ी कौन है ?
जो मित्र व शत्रु की,अच्छे व बुरे की , हित अनहित की, ऊंच-नीच की पहचान न कर सके । हमेशा आशंकित बन तिनके का ताड़ बनाकर, थोड़ी सी मुसीबत में घबरा जाए ,थोड़ी सी संपन्नता आने पर झूठी शान दिखाए , झूठी शान में आकर दूसरों की देखा – देखी अपनी हैसियत से अधिक ऊंचा रहने की कामना करें या दिखावा करें ,ऊंचे ऊंचे सपने देखे व उनके पूरे होने पर अत्यधिक निराश होकर सिर पकड़कर बैठ जाए , वह अनाड़ी है , अनार्य है ।
मंदमती अथवा अक्ल का दुश्मन उसे भी कहा जाता है जो स्वयं का सही उपयोग न कर सके, और समय हाथ से निकल जाने पर पछतावा करे , सभ्य व्यवहार करना नहीं जानता और अपने अहित को समझना नहीं चाहता। हर कार्य में अति करता हो। जो कभी यह ध्यान नहीं रखता है कि – अतिं सर्वत्र वरजयेत।
इसलिए अति खाना और अति भूखा रहना भी अच्छा नहीं।
एक मनुष्य के दुख के कारण क्या है ?
मनुष्य को तीन प्रकार से , तीन कारणों से , व तीन स्थितियों में दुख होता है। पहले दुख अशक्त होना या बल नहीं होना या शक्तियों का नहीं होना। दूसरा दुख होता है धन नहीं होना या संपत्तियों का अभाव हो ना ।
तीसरा दुख है अज्ञान ,ना जानकार होना।
दिन रैन भटकते फिरते हो ,
नहीं कारण पर कभी जाते हो ।
मूर्खता की हद करते हो जब ,
कारण के कारण पर नहीं जाते हो ।।
एक मनुष्य के लिए शक्ति कितने प्रकार की होती है ?
सात प्रकार की ।पहली शारीरिक शक्ति ,दूसरी मानसिक शक्ति, तीसरी बौद्धिक शक्ति ,चौथी आर्थिक शक्ति ,पांचवी आत्मिक शक्ति, छ, सामाजिक शक्ति, सातवीं राजनीति शक्ति। उपरोक्त शक्ति में से यदि एक का भी अभाव होता है तो व्यक्ति दुखी होता है ।
संपत्ति भी सात प्रकार की होती है :– खाद्य सामग्री ,अन्न -जल , वस्त्र आदि ,दूसरी धन, तीसरा घर ,चौथा पुत्र, पांचवी स्त्री ,छठी विद्या, सातवीं औषधि।
तीसरा जो ज्ञान है ज्ञान का अभाव भी 10 प्रकार का होता है। प्रथमत: जिसे जानता नहीं उसे मानता नहीं ।
दूसरे , जिसे मनुष्य मानता है उसे जानता नहीं ।
तीसरे ,अनित्य का ज्ञान नहीं। चौथे, मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? किसके लिए हूं ? पांचवा , यह संसार किसलिए है ? छटा , परमात्मा से मेरा क्या संबंध है ?
सातवें , मेरे आगमन का कारण क्या है ?
आठवें , मुझे किस वस्तु ने बांध रखा है ?
नौवें , किस कारण से मेरा पतन होता है ?
दसवें , मेरा छुटकारा कैसे हो सकता है ?
जिस मनुष्य को उपरोक्त बातों में से एक का भी ज्ञान नहीं उसे ज्ञान नहीं हो सकता तथा न ही वह दुख से छूट सकता है।
अधर्म किया तीनों गये धन धर्म और वंश।
ना मानो तो हश्र देख लो रावण कौरव कंस।।
भक्ति कितने प्रकार की होती है ?
नौ प्रकार की होती है :- पहली श्रवण — जो स्थिर आसन पर बैठकर सम्मान सहित , प्रसन्नतापूर्वक ईश्वर की कथा सुनता है।
दूसरी कीर्तन, जो हृदय आकाश के द्वारा प्रेम से उच्च वाणी से उच्च स्वर से गुणगान करता है।
तीसरी स्मरण, जो सदा अपने पास प्रभु को आभास करते हुए निर्भय रहता है, और उसको याद करता है।
चौथी सेवन, जो करते हमें इंद्रियों से सेवा करता है।
पांचवी दास्य , प्रभु का अपने आपको दास समझकर भजता है।
छठी अर्चन, शास्त्रीय विधि से धन वैभव के अनुसार समर्पण करना।
सातवीं वंदन, मन से ध्यान ,वाणी से वंदनात्मक मंत्रोच्चार के द्वारा भूतल स्पर्श करते हुए प्रार्थना करना है।
आठवीं सख्य,ईश्वर मंगल अमंगल करें और उसी में अपना संतोष और सुख माने।
और नवम आत्म समर्पण , भगवान की प्रसन्नता के लिए सर्वस्व न्यौछावर करना है।
विद्वानों ने यह भक्ति के नौ अंग माने है।
विद्या की महिमा क्या है ?
जिसके कारण समस्त पदार्थों के वास्तविक स्वरुप का बोध हो गया हो वह विद्या है।
जिसे तत स्वरुप की जानकारी न हो वह विद्या नहीं है । मुण्डकोकोपनिषद के एक आख्यान में अंगिरा ऋषि ने शौनक जी को बताया कि संसार में दो प्रकार की विद्या हैं एक परा दूसरी अपरा।
परा विद्या के अंतर्गत संसार की समस्त विद्या आती है। जिनमें चारों वेदों ,शिक्षा, कल्प ,व्याकरण , निरूक्त छंद ,ज्योतिष आदि का ज्ञान सम्मिलित है। परा विद्या में केवल ब्रह्मविद्या का स्थान रखा गया है। मनुष्य का कर्तव्य है कि तृण से लेकर परमेश्वर तक सभी पदार्थों के यथार्थ स्वरुप को जाने।
विद्या के विषय में
पदार्थों के संबंध में शाब्दिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। ऋषियों ने योग द्वारा समाधिष्ट होकर चेतन व जड़ के भेद का विवेक प्राप्त किया है। जो ज्ञान की चरम सीमा है अविद्या व अज्ञान मनुष्य के शत्रु हैं । अविद्या आत्मोन्नति में बंधन का कारण है । योग दर्शन में महर्षि पतंजलि ने कहा है कि ‘तस्य हेतुर विद्या ‘अर्थात बंधन का कारण अविद्या है ।
सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से ? सुख की इच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोड़ देनी चाहिए, और विद्यार्थी को सुख की ।
महर्षि वशिष्ठ रामचंद्र जी से कह रहे हैं :-
ज्ञानवानेन सुखवान् ज्ञानवानेव जीवति ।
ज्ञानवानेव बलवान् तस्मात् ज्ञानमयो भव ॥
ज्ञानी मनुष्य ही सुखी है, और ज्ञानी ही सही अर्थ में जीता है । जो ज्ञानी है वही बलवान है, इस लिए तू ज्ञानी बन ।
कुलं छलं धनं चैव रुपं यौवनमेव च ।
विद्या राज्यं तपश्च एते चाष्टमदाः स्मृताः ॥
कुल, छल, धन, रुप, यौवन, विद्या, अधिकार, और तपस्या – ये आठ मद हैं ।
सालस्यो गर्वितो निद्रः परहस्तेन लेखकः ।
अल्पविद्यो विवादी च षडेते आत्मघातकाः ॥
आलसी, गर्विष्ठ, अति सोना, पराये हाथ से लिखवाना, अल्प विद्या, और वाद-विवाद ये छ: आत्मघाती हैं ।
स्वच्छन्दत्वं धनार्थित्वं प्रेमभावोऽथ भोगिता ।
अविनीतत्वमालस्यं विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
स्वंच्छंदता, पैसे का मोह, प्रेमवश होना, भोगाधीन होना, उद्धत होना – ये छ: भी विद्याप्राप्ति में विघ्नरुप हैं ।
महर्षि कणाद ने सांख्य दर्शन में कहा है कि ज्ञान से मनुष्य की मुक्ति होती है। और अज्ञान से बंधन होता है ।यदि मनुष्य को बंधनों से मुक्ति चाहिए तो उसे विद्या अवश्य प्राप्त करनी चाहिए।
महा भाष्य के चार प्रकार से विद्या प्राप्त करने पर लाभकारी होती है। ये हैं – आगम काल या आचार्य मुख से विद्या प्राप्त करना, स्वाध्याय काल या स्वयं अध्ययन करना ,प्रवचनकाल या प्रवचन देना तथा व्यवहार काल या व्यवहार में प्रयोग आने पर विद्या प्राप्त करना ,मनुस्मृति के अनुसार विद्या और तप से मनुष्य की आत्मा और ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है।
विद्या ऐसा अक्षय कोष है। जो दान देने से नित्य बढ़ता जाता है ।
भर्तृहरि के अनुसार विद्या रूप, सौंदर्य के बढ़ाने वाली है। यह छिपा हुआ धन है। परदेस में विद्या ही बंधु है, मित्र है ।विद्या सबसे बड़ी देने वाली दाता है ।योग्य पदार्थों को देने वाली ,यश का विस्तार करने वाली, भोगों को प्राप्त कराने वाली, सुख प्रदान करने वाली, विद्या है। यह गुरु की भी गुरु है ।विद्या मनुष्य को विनम्रता प्रदान करती है धर्म से धन की प्राप्ति होती है ,जिस से सुख की प्राप्ति होती है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत