नेतृत्व के संकट से गुजरता अमेरिका
*अमेरिकी नेतृत्व का लोहा लम्बे समय तक दुनियां मानती रहीं। अमेरिकी एक दशक आगे तक सोचकर संतुलन और समीकरण अपने पक्ष में झुकाएं रखने वाली नीति पर काम करने की योजनागत रणनीतियां के माहिर माने जाते रहे है। सम्पूर्ण विश्व पर अप्रत्यक्ष शासन उनकी नीति और नियत के मूल में बसा है। उनके डिप्लोमेटस सभ्यताओं के संघर्ष का दर्शन सैद्धांतिक स्तर पर ही नहीं गढ़ते है। बल्कि उसे मूर्त रुप देकर विश्व संघर्ष के शीतयुद्ध की चौसर हरदम बिछाएं रखने में मास्टर है। यहीं अमेरिका की वह शक्ति है जो उसे विश्व महाशक्ति का तम़गा लम्बे समय से थमाएं हुए है। इस राजनीतिक-कूटनीतिक विरासत को अमेरिका का मैजूदा नेतृत्व संभाल पाने में पूरी तरह विफल नजर आ रहा है। दुनियां की महाशक्ति समझे जाने वाले अमेरिका के हाथ-पांव फूले हुए है। यह अमेरिका की कुंठाओं का विचलित व्यवहार है कि ऐसे समय में भारतीय प्रंधानमंत्री को टविट्र पर अनफॉलो करने का निर्णय लिया। जबकि भारत जोखिम उठाकर कंधे से कंधा मिलाकर उसके साथ खड़ा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के टर्म-प्लान में कुछ भी ऐसा नहीं दिखा, जो वैश्विक संतुलन के समीकरणों को बनाएं रखना तो दूर, खुद अमेरिकियों के बीच अपनी साख को संभाल पाने में भी सक्षम नहीं रहा हो। राष्टृय और अंतर्राष्टृय परिदृश्य पर राष्ट्रपति ट्रंप के निर्णय निहायत ही नुकसान देय साबित हुए है। आम नागरिक की भाषा में कहे तो उनके बेहद ही बचकाने फैसलों ने दुनियां को फंसा दिया है। मोजूदा हालात में कई द्वंद दुखी करने वाले है। क्या कोरोना संकट के बाद दुनियां पूरी तरह बदल चुकी होगी?
क्या विश्व नये शक्ति समीकरणों की भारी कीमत चुकाने को तैयार रहे? क्या एशिया का पावर-गेम नये शक्ति ध्रुवों की धुरी बनेगा? क्या चीन चक्रवर्ती सम्राट के समीकरणों को साधने के लिए विश्व-तांड़व की तैयारी में है? क्या रुश अमेरिका से अपना पुराना हिसाब चुकता करने की मंशा से चीन की चिलम भरने को आतुर है? अमेरिका की आंखों की किरकिरी ईरान क्या भय से बहार आने के लिए चीन की चाकरी खुशी-खुशी करने की चाह से चहक रहा है? ये तमाम वे मौजूं सवाल है जो विश्व चिंता का विषय है। देखना यह है कि उंट किस करवट बैठेगा और नयी दुनियां के नये समीकरण किस कीमत पर किसके पक्ष में कितनी देर ठहरेगें। संभव है एक अस्थिर विश्व सबकों अस्थिरता और अनिश्चितता के द्वंद में धकेल दे।*
*इन तमाम कयासों के कुछ ठोस आधार है। जिनके कारण यह सब स्थितियां और परिस्थितियां विश्व परिदृश्य पर उभरने को आतुर है। दुनियां को इन स्थितियों में धकेलने के लिए अमेरिकी नेतृत्व प्रथम दृष्टया दोषी दिख रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने जब से शासन संभाला है। अगर कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों की समीक्षा की जाय तो ट्रंप अपने परिवीक्षा काल में ही फेल नजर आते है। जब अमेरिकी अवाम उनसे सीधे एक के बाद एक मसले पर असंतोष जताता है। वैश्विक फ़लक पर उनके लिए निर्णयों ने पूरी दुनियां को खतरे में डाल दिया है। चीन की कुंठाओं के पीछे भी वे अमेरिकी निर्णय ही है जो चीन की अर्थव्यवस्था का लगातार नौच रहे है। ट्रंप की चायना से छेड़खानियों की फेहरिस्त लम्बी है। सन् 2015 में जब राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में यह स्पष्ट आधार मजबूती से घोषित किया कि ‘चीन के साथ हमारे सहयोग की संभावनाएं अपार हैं।’ ओबामा की दूर-दृष्टि चीन की बढ़ती ताकत को पहचान रही थी तभी तो चीन के साथ ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप(PPT) समझौता किया। चीन की दादागिरी का लहजा पूरी दुनियां समझती है। ओबामा प्रशासन की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में इसीलिए भी चीन को महत्व दिया क्योंकि अमेरिका को पूरी दुनियां को दुहना है। अमेरिका के लिए ‘एशिया का संतुलन’ सबसे महतवपूर्ण है। वह स्वयं को साधने में भी उसके काम आता है। ट्रंप महाश्य ने आते ही सबसे पहले उस समझौते को रदद् किया। यह एक आश्चर्यजनक मूर्खता है। ऐसे ही अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को वापिस बुलाने के निर्णय को पूरा विश्व ट्रंप की ठठेरा बुद्धि मान रहा है। जिसका परिणाम एशिया अस्थिर होगा ही और चीन के चेहरे की चमक बढ़ेगी ही।*
*ओबामा शासन में जो शक्ति संतुलन के मजबूत पैबंद बने थे। वे सब ट्रंप ने जैसे भांग खाकर उखाड़ फेंके है। सब कुछ उलट-पुलट कर दिया। वाकई ट्रंप नेता नहीं व्यापारी ही निकले और अमेरिका की बागडोर संभालते ही चीन के साथ सीधे व्यापार-युद्ध करने में लग गए। ट्रंप नें 2017 में अमेरिका की ’राष्ट्रीय सुरक्षा नीति’ पुनः घोषित की जिसमें चीन और रूस को टारगेट करते हुए सीधा आरोप जड़ा कि ‘दोनों देश अमेरिका की सुरक्षा और समृद्धि को चोट पहुंचा रहे हैं।’ यहां तक कहा कि ’चीन रूस से मिलकर एक ऐसी विश्व व्यवस्था की संरचना करना चाह रहा हैं जो अमेरिकी मूल्यों और इसके हितों के विपरीत हो।’ इस अमेरिकी दस्तावेज़ में ट्रंप ने चीन को सीधा निशाना बनाया। यह अंतर्राष्टृय व्यवहार में शोभा नहीं देता। बेशक बहुत कुछ लुका-छिपी में चलता रहता है। इसके बाद से तुरन्त 2018 शुरु होते ही ट्रंप ने व्यापार को लेकर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वार चीन पर करने शुरु कर दिए। चीनी उत्पादों पर नए-नए टैक्स लगा दिए। इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि चीन ने भी अमेरिकी उत्पादों पर टैक्स बढ़ा दिए। पूरा परिदृश्य धीरे-धीरे ‘व्यापार-युद्ध’ में बदल गया गया। क्योंकि ट्रंप ठहरे एक बिजनेस-मैन, उन्हें यहीं आता है। हालात यह बने 2019 खतम होते-होते दोनों देश एक दूसरे के ऊपर 420 अरब डॉलर के आयात-निर्यात पर काफी टैरिफ़ बढ़ा चुके थे। इसमें नुक़सान चीन को अधिक हो रहा था क्योंकि चीन के निर्यात का करीब 20 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका के साथ है। इतना ही नहीं बच्चों की तरह छेड़खानी करते हुए मिस्टर ट्रंप अपने साथी देशों तक को यह कहने और दबाव बनाने में जुट गए कि चीन की 5G टैक्नोलॉजी को कोई मत लो। यह सिलसिला दोनो तरफ से रोज एक पायदान उपर चढ़ रहा है। अमेरिका ने चीन के पांच प्रमुख मीडिया संस्थानों को अपने यहां से भगा दिया है। चीनी मीडिया समूह शिन्हुआ, और सी.जी.टी.एन. टी.वी. को अमेरिका ने ‘विदेशी अभियान’ तक कह डाला है। कोरोना महामारी के दौरान तो यह राड़ खुलकर सडकों पर आ ही गई। जब डोनाल्ड ट्रंप ने 17 मार्च को जान-बूझ कर ट्वीट किया कि ’उनकी सरकार ‘चीनी वायरस’ के प्रकोप से प्रभावित उद्योगों की मदद करेगी’। यह ट्रंप का सोचा-समझा जान-बूझकर किया गया ट्वीट था। जिसका परिणाम यह हुआ कि देखते ही देखते कोविड-19 को दुनियां भर में कोरोना वायरस, वुहान वायरस, चाइनीज़ वायरस कह-कह कर चीन की छाती पर चस्पा कर दिया गया। कोरोना संक्रमण से फैली महामारी को चीन के माथे मढ़ने का अभियान रोज तेज हो रहा है।*
*कुल मिलाकर यह कौन सी समझदारी की बात ट्रंप साहब ने की। जिस देश के साथ अमेरिका 1950 से लगातार व्यापार बढ़ाता आ रहा हो। शनैःशनैः अपने संबंधों को घनिष्ट बना रहा हो और वैश्विक संतुलन में बराबर की साझेदारी दे रहा हो। फिर अचानक से उस देश का नेतृत्व उसके साथ ऐसा बर्ताव करे। यह ना कूटनीति कहती ना राजनीति। यह ट्रंप की कोरी व्यापारिक समझ से निकली नादानी है। चीन भी कहीं न कहीं इन तमाम अमेरिकी हरकतों से आजिज आ चुका था। इसी का परिणाम है कि अब चीन और अमेरिका की प्रतिद्वंदिता, कोरोना संकट में जग-जाहिर हो गई है। अंतर्राष्टृय ऐजिंसिया यू.एन.ओ. और डब्लू.एच.ओ. भी चीन को चुनते दिख रहे है। खुद अमेरिका ने चीन को दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश बनने में भारी मदद की। चीन को अपना बड़ा व्यापारिक साझीदार बनाया। इतना ही नहीं वैश्विक मोर्चे पर एक गुंड़े की तरह उपयोग-दुरुपयोग किया। अमेरिकी इशारों पर वीटो-गेम दुनियां देखती आयी है। चीन व्यापार-धंधे के अलावा विश्व व्यवस्था को संतुलित रखने में भी अमेरिका का सगिर्द बन दुनियां को दुहता रहा। चीन ’संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद’ का स्थायी सदस्य है। जहां वह हमेशा अमेरिकी इशारों पर स्याह-सफेद करता रहा है। तो क्या यह मजबूत हथियार अमेरिका की गलत नीतियों के चलते अब उसके हाथों से फिसल रहा है। हां निश्चित रुप से, अमेरिका अक्षम नेतृत्व का शिकार हुआ है।*
लेखक समाजशास्त्री है! e-mail:[email protected]