◆भारत में दंगों का यह विश्लेषण काफिर दृष्टि से किया जा रहा है। हिन्दू- मुस्लिम दंगों पर प्राय: तटस्थ दृष्टि से विचार-विमर्श की प्रवृत्ति रही है, जो दोषपूर्ण और हानिकारक साबित हुई है। इसके बदले यदि मुस्लिम नजरिये और काफिर नजरिए से अलग-अलग विश्लेषण को स्थान दिया जाए, तो वास्तविकता समझना और समाधान का मार्ग पाना संभव होगा। यह इसलिए भी आवश्यक है कि मुस्लिम पक्ष तो यह करता ही रहा है। केवल काफिर पक्ष लुप्त रहता है, बल्कि उस का जबरन लोप किया जाता है। मानो, हर विषय में मुस्लिम पक्ष तो होता है, पर काफिर पक्ष होता ही नहीं। इसी प्रवंचना ने पिछले सौ साल से भारतीय राजनीति, शिक्षा नीति को भ्रष्ट और भ्रमित कर रखा है। सच है कि इस्लामी सिद्धांत की मूल दृष्टि वर्ग-विभाजन है। मोमिन-काफिर, दारुलहरब- दारुलइस्लाम, जायज-नाजायज आदि। यानी केवल धर्म, ईश्वर ही नहीं, सभ्यता या जीवन की सभी चीजें दो भागों में बंटी हैं।मानवता, मनुष्य, देश, सरकार, समाज, नैतिकता, कानून, खान-पान, संस्कृति, रिवाज, विचार, घटना आदि किसी चीज पर इस्लाम में कोई सार्वभौमिक या मानवतावादी नजरिया नहीं है। वे निरापवाद रूप से प्रत्येक चीज को इस्लामी नजरिए से देखते और अपना रुख तय करते हैं। दुर्भाग्य से, काफिर लोग इसके प्रति अचेत रहते हैं। फलत: तमाम मुस्लिम दावों, आंदोलनों, मांगों आदि में अपनी स्थिति, काफिर की स्थिति, पर गफलत में रहते हुए, वही सब दोहराने लगते हैं, जो मीडिया कह रहा है। इससे उन पर दोहरी चोट पड़ती है। या कहें कि वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारते रहते हैं। दिल्ली में हुए हालिया दंगे के तथ्य बिल्कुल साफ हैं। दिल्ली में काफिर(हिन्दू) विरोधी दंगे बहुत पहले शुरू हुए। जब जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय में बसें जलाई गईं। जब जाफराबाद में रईस बम लेकर निकला।जब लुकमान ने शाहीनबाग में बंदूक लहराई। जब वारिस पठान ने गृह-युद्ध की धमकी दी। इन का नागरिकता कानून के विरोध या लोकतंत्र से कुछ संबंध नहीं था। वह मूलत: ताकत का प्रदर्शन करके जिम्मियों (मुस्लिम समर्थक गैर-मुस्लिम) के सहयोग से, इस्लामी राजनीति को एक या चार कदम, जो संभव हो, बढ़ा सकने का दांव था। इसे स्थानीय मुसलमान नहीं, बल्कि भारतविरो धी, कश्मीरी अलगाववादी, अमेरिकाविरो धी और पाकिस्तान-समर्थक चला रहे थे। कई सप्ताह तक कुछ ऐसा ही चला। जब दो-तरफा चोट शुरू हुई, तब जाकर सामुदायिक संतुलन गढ़ने, दो-तरफा दोष मढ़ने के लिए तरह-तरह के प्रचार, कारस्तानियां की जाने लगीं। अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल द्वारा दिल्ली दंगों पर विकृत रिपोर्र्टिंग, उसका एक उदाहरण मात्र है। जिसने अंकित शर्मा के जिहादियाना कत्ल को हिन्दुओं द्वारा किया गया जैसा संकेत किया! वह भी, अंकित शर्मा के भाई से इंटरव्यू लेने के बाद। फिर स्क्रॉल-इन और कुछ अन्य अखबारों ने भी मुस्लिम भीड़ द्वारा हमले करने की तस्वीर देते हुए भी उसे ‘हिन्दू मॉब’ की संज्ञा देकर समाचार पेश किया। जब यह धोखा-धड़ी उजागर की गई तो उसने अपनी वेबसाइट से तस्वीर हटा दी। यानी सबूत गायब कर दिया, लेकिन झूठा प्रचार वैसे ही रहने दिया! मीडिया में हिन्दू-विरोधी बयानों एवं इंटरव्यू की प्रस्तुति में साथ ही किसी हिन्दू का भी बयान या इंटरव्यू नहीं दिया गया। केवल एक पक्ष रखा गया। सोशल मीडिया के मालिक व संपादकों ने भी लंबे समय से प्राय: हिन्दू-विरोधी और भारत-विरोधी झुकाव ही रखा और प्रोत्साहित किया है।जबकि इस्लामी संवेदनाओं पर वे बेलाग सहानुभूति दिखाते हैं। इस प्रकार, निष्पक्ष मंच न देकर अपना राजनीतिक मत थोपने की नीति रखते हैं। यही वीकीपीडिया में भी है, जिस में हिन्दू-विरोधी विचारों के प्रति उदारता, लेकिन हिन्दू-पक्षी विचारों पर नियंत्रण रखा जाता है। दुर्भाग्यवश, उनसे इस पर गंभीरता से बात करने वाला कोई समर्थ प्रतिनिधि या नेता काफिरों के पास नहीं है। यदि होता तो इसमें कुछ सुधार हो सकता था। क्योंकि यूरोपीय, अमेरिकी व्यक्ति प्राय: सही स्थिति को स्वीकार करने वाले होते हैं, यदि उन्हें वह प्रमाणिक रूप से दिखाई जाए। दिल्ली दंगे इस्लामी स्टेट के एजेंटों द्वारा प्रोत्साहित और संभवत: निर्देशित भी किए गए। जिन लोगों ने काफिरों (हिन्दुओं) को दोष दिया था, उन्हें अब समझना चाहिए कि वे झूठे आरोप लगा कर जिहादी आतंकियों को ही मदद पहुंचाते हैं। यह सच है कि कई पश्चिमी समाचार एजेंसियां भारत और हिन्दुओं के विरुद्ध यह लंबे समय से करती रही हैं। लेकिन उनके वैचारिक एवं समाचार स्रोत प्राय: भारतीय लिबरल-वामपंथी होते हैं।अभी, दिल्ली के घटनाक्रम में भी वही देखा गया। अंग्रेजी भारतीय मीडिया के अनुकरण में ही बाहरी, अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने झूठे या विकृत विवरण, चित्र, विश्लेषण आदि परोसे। उसी तरह, वीकीपीडिया में भी हुआ, जिसने गलत जानकारियों को सुधारने के प्रयास को रोका। आखिर, कपिल मिश्रा के एक मामूली बयान को शरजील इमाम और वारिस पठान के उगले जहर जैसा हानिकारक या उनसे भी बुरा बताने का काम किस ने किया? यहीं के राजनीतिकों और अंग्रेजी मीडिया के एक हिस्से ने। मानो, हिन्दुओं को अपने अधिकारों, घरों, स्त्रियों, बच्चों की रक्षा नहीं करनी चाहिए। विशेषकर, जब प्रशासन ने आंखें मूंद ली हों और मान लिया हो कि शाहीनबाग जैसे इलाके मुस्लिम गिरोह कब्जा कर लें, आस-पास की कॉलोनियों का जीवन बाधित कर दें तो इस पर प्रशासन को कुछ नहीं करना है! ऐसी लज्जास्पद, शुतुरमुर्गी नीति एक अलग विषय है। यह जगजाहिर है कि आम मुसलमानों के बीच ही जिहादी और आतंकवादी गुटों के लोग अपनी सुरक्षित जगह बनाते हैं। चाहे उन्हें आश्रय देने वाले कुछ अदद मुसलमान उन्हें जानते हों या नहीं या चाहते हों या नहीं। उन्हीं जिहादियों ने शाहीनबाग और कुछ और जगहों पर विविध इलाकों को अपना बंधक बना लिया। उन्हें बखूबी मालूम है कि हिन्दू लोग शान्तिप्रिय, प्राय: हिंसा से बचने वाले, असंगठित और नेतृत्वहीन हैं। हिन्दुओं के सगे नेता कोई नहीं हैं। जो दूर के नेता हैं भी, वे हर संकट के मौके पर उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं। शाहीनबाग में भी यही हुआ। यह जम्मू-कश्मीर के हिन्दुओं वाली स्थिति का ही लघु संस्करण, छोटा सा दोहराव था।तब दंगे करने वाले, आक्रामक कौन हैं? जैसा प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान पंडित वामदेव शास्त्री (डेविड फ्रॉले) ने पूछा, कौन संस्कृति अधिक आक्रामक, विस्तारवादी और झगड़ालू- लड़ाकू है- हिन्दू या इस्लामी? यदि हिन्दू व इस्लामी प्रवासियों की तुलना करें तो विश्व स्तर पर ऐतिहासिक रिकॉर्ड क्या दिखाता है? पाकिस्तान में हिन्दुओं का क्या हुआ? दिल्ली दंगों के संभावित पीड़ित कौन हैं? दरअसल, काफिरों को तात्कालिक घटनाओं, हिंसा आदि की तुलना में सदैव इसी मूल प्रश्न पर विचार करना चाहिए। उन्हें भी, जिन्हें मुगालता है कि वे ‘निष्पक्ष’ हैं और सांप्रदायिक सदभाव चाहते हैं। पंडित वामदेव ठीक ही कहते हैं कि भारत में जिहादी आतंकी हमलों के इतिहास व इस्लामी स्टेट की गतिविधियों के मद्देनजर हिन्दुओं को विलेन या आक्रामक चित्रित करना एक पाखंड है। दिल्ली दंगे भी वैश्विक इस्लामी एजेंडे का हिस्सा है, जिसका केंद्र पाकिस्तान है और जिसने लंबे समय से भारत को निशाने में शामिल रखा है।आखिर, भारत की संसद को यह नीति तय करने का अधिकार है कि बाहरी शरणार्थियों में किसे आने दिया जाये और किसे नहीं। इससे मौजूदा नागरिकों के हितों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। तब इससे किसे चोट पहुंच रही थी? नि:संदेह, इस्लामी राजनीति को जिसकी जन-सांख्यिकी प्रभुत्व द्वारा अंतत: इस्लामी राज्य बनाने की योजना कई बार घोषित की जाती रही है। सिर्फ उसे लगा कि इस कानून से उसकी योजनाओं को कुछ बाधा हो सकती है। सवाल है कि इस विरोध में आम भारतीय मुसलमानों को कैसे शामिल कर लिया गया, जिसे नागरिकता कानून से कोई हानि नहीं हो रही थी? इसका कोई एक उत्तर नहीं है। सब से पहले तो असंख्य मुसलमानों को बरगलाया गया कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। उनकी नागरिकता छीनी जा रही है या उसकी तैयारी है। कुछ सचेत इस्लामी मुसलमान भी हैं जो जिहादी मानसिकता में, इस्लाम के लिए ऐसे हर देशी-विदेशी अभियान को मदद देते हैं, जिससे इस्लामी वर्चस्व की ओर बढ़ने में कुछ वृद्धि हो। यह कोई नई बात नहीं है। इस्लामी सिद्धांत ही यही है। इसीलिए सचेत मुस्लिम सैदव अंतरराष्ट्रीय उन्माद के लिए खड़े होते हैं, अपने देश के लिए नहीं। क्योंकि यही राजनीतिक इस्लाम का सिद्धांत है। यही वह मतवाद है जिसके वे अनुयायी हैं। इस सिद्धांत में छल और धोखाधड़ी की भी खुली अनुशंसा की गई है।यह अनुशंसा कि काफिरों को भरमाना, उनसे झूठ बोलना, उन पर झूठे आरोप लगाना जायज है। इसीलिए कई मुस्लिम बुद्धिजीवी वास्तविकता जानते हुए भी एकतरफा या झूठा प्रचार करते हैं। जैसा डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी नोट किया था, ‘मुसलमान के लिए तो जहां इस्लामी शासन है, वही उसका देश है।’ दूसरे शब्दों में, इस्लाम सच्चे मुसलमान को कभी इजाजत नहीं दे सकता कि वह भारत को मातृभूमि स्वीकार करे और किसी हिन्दू को अपना बंधु-बांधव समझे। यह कोई अपवाद अवलोकन नहीं था। कांग्रेस की अध्यक्ष रही विदुषी एनी बेसेंट ने ठीक सौ साल पहले कहा था, ‘हम यह मानने के लिए मजबूर हैं कि मुसलमानों का मुख्य लगाव मुस्लिम देशों से है, मातृभूमि से नहीं। … वे अच्छे और विश्वसनीय नागरिक नहीं हो सकते। … स्वतंत्र भारत में मुस्लिम आबादी स्वतंत्रता के लिए एक खतरा होगी।’ इन विचारों पर काफिरों को गंभीरता से चिंतन-मनन करना चाहिए। क्योंकि यह बार-बार, विभिन्न देशों, परिस्थितियों, कालों में बिल्कुल एक जैसे प्रमाणित होते रहे हैं। उन्हीं अवलोकनों की पुष्टि करते हुए हाल में दिल्ली में हर कहीं मुसलमानों के प्रदर्शन में ठसक से ‘ला इलाहा लिलल्लाह…’ के नारे लगाए गए, जिसमें काफिरों से घृणा निहित है।उस नारे की बुनियादी प्रतिज्ञा यही है कि अल्लाह और प्रोफेट मोहम्मद के सिवा किसी की परवाह मुसलमानों को नहीं करनी है। गैर-मुसलमानों को घृणित, हीन, भ्रमित या दुष्ट समझना है, जिन्हें आज न कल या तो इस्लाम स्वीकार करना है अथवा खत्म किया जाना है। वस्तुत: ऐसे बयान देते हुए मुस्लिम नेताओं के बयान भी इस दौरान आए। एक मौलाना कैमरे पर बोल रहे थे, ‘हम मुसलमान भारत को हिन्दुओं से खाली कर के हिन्दुस्तान में उन का नामोनिशान मिटा देंगे।’ इस मानसिकता का इस्तेमाल करके ही इस्लामी नेता सांप्रदायिक उन्माद भड़काते हैं।वारिस पठान या असदुद्दीन ओवैसी ही नहीं, अनेक बड़े मुस्लिम नेता दशकों से ऐसी बातें समय-समय पर बोलते रहे हैं। उन बयानों का किन्हीं तात्कालिक घटना से नहीं, बल्कि इस्लामी सिद्धांत से संबंध है। बाकी चीजें केवल सहायक रूप में उपयोग की जाती हैं। अत: पहले काफिरों को ठीक से समस्या को समझना चाहिए। अधीरता में, या भय, अथवा अज्ञानवश फौरन कोई तात्कालिक सामाधान की आशा, उसका मोह त्याग देना चाहिए। अपने दूर के नेताओं पर भी भरोसा करके निश्चिंत नहीं रहना चाहिए। वरना वे पंजाबियों, बंगालियों, कश्मीरियों, केरलीयों की तरह मारे जाते रहेंगे! भारत दशकों से जिहाद और राजनीतिक इस्लाम की चोट आतंक झेलने वाला प्रमुख देश है। पश्चिमी पंजाब, सिंध, जैसे कई हिस्सों (पाकिस्तान) में हिन्दू लगभग खत्म कर दिए गए। पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) में भी उनकी संख्या मूल प्रतिशत की तीन चौथाई खत्म हो गई। बचे भारत में भी इरादा वही है। जिसके लिए कश्मीर से केरल तक विविध कोशिशें चलती रही हैं। उसी क्रम में, दिल्ली की हिंसा भी जिहादियों की उकसाई हुई थी जिसके मुख्य शिकार हिन्दू थे। हमारे जिन महानुभावों ने कभी अफजल गुरु और बुरहान वानी तक को आतंकवादी नहीं माना, वे कपिल मिश्रा को आतंकवादी बताने लगे। जो याकूब मेनन, उमर खालिद और शरजील इस्लाम को रिहा करवाने कोर्ट जाते हैं, उन्होंने कपिल मिश्रा को गिरμतार करने की मांग की। ऐसे लोग विशुद्ध जिम्मी, इस्लाम के सहयोगी हैं।इन्हें कभी भी सांप्रदायिक सौहार्द के चिन्तक नहीं माना जा सकता है। उन्होंने जान-बूझकर इस तथ्य से आंखें मूंद रखी हैं, कि भारत में मुसलमान की तुलना में पाकिस्तान में हिन्दू दशकों से अत्यधिक दमित हैं। पर उन हिन्दुओं को कोई सहानुभूति न मिली। भारत में भी हिंसक वारदातों, आतंकी हमलों और दंगों की खबरों में हिन्दू मौतें उपेक्षित रहती हैं। आखिर क्यों मीडिया में हिन्दू जान की कोई कीमत नहीं मानी जाती? यह क्या हिन्दू-विरोधी मानसिकता नहीं है? भारत में वामपंथी पत्रकारों ने लंबे समय से आक्रामक और विघटनकारी प्रदर्शनों को टकराव की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया है। वे संयत विरोध को नहीं, बल्कि हिंसा को बढ़ावा देते हैं। विशेषकर जब वह हिन्दुओं या सरकार के विरुद्ध हो। इसीलिए वे दिल्ली दंगों के साफ तथ्यों को भी हर हाल में चुनौती देते हैं। संदेह करते हैं। वास्तविकता यही है कि अधिकांश हिन्दू-मुस्लिम दंगों की तरह, हालिया दिल्ली दंगे भी मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं का सफाया करने जैसे उन्माद से शुरू हुए। हिन्दू पुलिस वाले की लोमहर्षक तरीके से हत्या में वही उन्माद था। ऐसा सोचना बड़ी भूल है कि किसी हिन्दू बहुल शहर, वह भी दिल्ली जैसी राजधानी में कोई मुसलमान ‘हिन्दुओं के सफाए’ की कैसे सोच सकते हैं? यह याद रखना चाहिए कि उनके विचार-तंत्र में, मूल सिद्धांतों में ही यह बात बार-बार दुहराई गई मिलती है कि काफिरों पर मुसलमान दस गुना भारी पड़ते हैं। कुरान में है, ‘ऐ नबी! ईमान वालों को लड़ाई पर उभारो।यदि तुम में से बीस जमे रहने वाले होंगे तो वे दो सौ को काबू कर लेंगे। और यदि तुम में से सौ हों तो वे एक हजार काफिरों पर भारी रहेंगे क्योंकि वे (काफिर) ऐसे लोग हैं जो समझ नहीं रखते।’ (8/65) ऐसी बातों से इस्लामी मूल किताबें भरी पड़ी हैं। यही नहीं, इस्लामी इतिहास में इसकी सफलता भी अनेकानेक स्थानों पर देखी गई है। फारस, मेसोपोटामिया, कौंस्टेंटीनोपुल, अफगानिस्तान, आदि कई स्थानों पर यही तो हुआ। यही सिद्धांत और इतिहास राजनीतिक इस्लाम कहा जाता है, जो मुसलमानों को निर्देशित करता है। इसे नजरअंदाज करके सारी व्याख्याएं घोर आत्मप्रवंचना हैं। किसी भी आक्रामक मुस्लिम दंगे में कमोबेश उपर्युक्त भावना रहती ही है। यह उन के नारों, पर्चों, बयानों का कथ्य और भाषा कई बार साफ-साफ दिखाती भी है। अधिकांश दंगों में बेचारे हिन्दू एकतरफा मारे जाते हैं। मीडिया और राजनीतिक दल उसे रफा-दफा कर देते हैं। प्राय: खबर भी गोल-मोल देते हैं, जैसे ‘24 मरे’ या ‘59 जले’। कौन मरे, किस ने मारा, कौन जले, किस ने जलाया? इसे गायब कर दिया जाता है। न समाचार देने के समय, न ही बाद में। इसलिए प्राय: काफिर एकतरफा मारे जाते हैं। यही स्वतंत्र भारत के दंगों का भी इतिहास है। केरल या कश्मीर या अनेक छोटेछोटे इलाकों में हिन्दू आबादी ऐसे ही नहीं घटती गई है। उसकी एक सुनिश्चित प्रक्रिया है।जब किसी जगह पर मुस्लिम हमले के बाद कोई हिन्दू प्रतिक्रिया नहीं होती (मराड, किश्तवाड़, कैराना आदि हाल के कुछ उदाहरण हैं) तब वहां मुस्लिम दबाव, दबंगई बढ़ने लगती है। उनके द्वारा जान-बूझकर की जाती छेड़छाड़, अपमान और आतंक से धीरे-धीरे हिन्दू वह जगह, मुहल्ले, गांव, बस्ती छोड़ने लगते हैं। क्योंकि प्रशासन कुछ नहीं करता। इसलिए भी, क्योंकि कुछ करने पर प्रशासन को ऊपरी, राजनीतिक शासकों द्वारा प्राय: उलटे व्यवहार का अनुमान रहता है। इस प्रकार, एक और मुहल्ला, रोड, क्षेत्र ‘मुस्लिम इलाका’ बन जाता है। वहां उन्हीं का, शरीयत का राज चलता है। वे इलाके इस्लाम के गढ़, किले में बदल जाते हैं। जहां पुलिस भी नहीं जाती।फिर वे उसे आगे दोहराने, अगले दंगे करने का मानो अधिकार पा लेते हैं। भारत में ऐसे सैकड़ों इलाके हैं। जैसा कि कभी-कभी होता है, दिल्ली दंगे में हिन्दुओं ने भी जवाबी वार शुरू कर दिया। ऐसी प्रतिक्रिया का फल अंत में अधिक मुसलमानों की मौत होता है। जैसे, 2002 में गुजरात में हुआ था। वह अयोध्या से लौट रहे 59 हिन्दू स्त्री-बच्चे-पुरुष तीर्थयात्रियों को साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में जिंदा जला देने के बाद हुआ था। तब दंगों के अंतिम हिसाब में हिन्दू कम और मुस्लिम अधिक मारे गए थे। फिर सारी लानत-मलानतों, बौद्धिक बहसों, और अंतरराष्ट्रीय भर्त्सनाओं में भी मूल घटना वह शुरूआती हिन्दू-दहन लुप्त हो गया। केवल ‘मुस्लिम-विरोधी दंगा’ विषय बनाया गया। जैसा कूनराड एल्सट ने टिप्पणी की, कि यह कहना ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि द्वितीय विश्व-युद्ध को चर्चिल के ब्रिटेन ने शुरू किया था, क्योंकि अंतिम गिनती में हिटलर की जर्मन फौज के अधिक लोग मारे गए।- डॉ. शंकर शरण (१६ अप्रैल २०२०)https://yathavat.com/