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भारतीय संस्कृति

आसक्ति अर्थात ‘आशिकी’ से नाता तोड़ दो

हर मनुष्य को अपने जीवन में प्रसन्न रहना चाहिए क्योंकि प्रसन्नता सभी गुणों की जननी है। लेकिन अभिमान से दूर रहना चाहिए , क्योंकि अभिमान नरक का मूल है। मनुष्य को ‘बड़ा’ बनने के लिए अपनी गलती को स्वीकार करने में लज्जा का अनुभव नहीं करना चाहिए , बल्कि लज्जा का अनुभव उन कार्यों में करना चाहिए जो लज्जा के कार्य हैं। गलती स्वीकार करने से आदमी का चरित्र उज्ज्वल होता है और भविष्य में गलती नहीं करने की स्वयं प्रतिज्ञा कर लेता है । क्योंकि उन्हें गलती न करने के कारण ही ऐसा व्यक्ति महान व्यक्ति बनता है ।
महात्मा गांधी अपनी आत्मकथा में जब यह लिखते हैं कि उनको केतली की स्पेलिंग लिखनी नहीं आती थी और दूसरा बच्चा जो उसकी मदद करना चाहता था उनकी मदद उन्होंने नहीं ली । आखिर वही बालक जो केतली की स्पेलिंग नहीं जानता था , वह आज भारत का ही नहीं विश्व के महान व्यक्तियों में से भी एक है। यह तभी संभव हो पाया कि जब गांधी जी ने अपनी गलतियों को स्वीकार करने के गुण को स्वीकार किया । गुरु की डांट को प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए । आज के परिवेश में अध्यापक द्वारा कड़ा बोलने अथवा सजा देने को जिस तरीके से बुरा माना जाता है , उससे हम एक अच्छे समाज का निर्माण नहीं कर सकते । जिसमें गुरु स्वयं ही आशंकित रहता है । जब पहले बचपन में हम गुरुओं से भी पिटते थे, उनकी वह पिटाई एक कुंभकार की तरह होती थी । जैसे कुंभकार कच्ची मिट्टी में से एक कुंभ को आकृति देने के लिए अंदर से हाथ लगाकर ऊपर से धीरे-धीरे से थपकी मारता है । वही गुरु की भूमिका होती थी। आज वह भूमिका कहां चली गई ? इसलिए शायद पतन हो रहा है । उस समय के माता-पिता गुरु के द्वारा पीटे जाने पर गुरु के प्रति सद्भाव रखते थे और शिष्य के द्वारा की गई शिकायत पर कभी भी माता-पिता अपने संतान का पक्ष पोषण करने के लिए गुरु से कुछ नहीं कहते थे , बल्कि अपनी संतान को ही धमकाते थे कि आपने कोई गलती की होगी ? गुरु ने जो सजा दी है , वह उचित ही दी है वह था चरित्र निर्माण । इसी से भारतवर्ष हमेशा चरित्र के संदर्भ में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करता रहा , इसी से हमारी सभ्यता और संस्कृति पूरे विश्व में उत्कृष्ट रही।
आर्ष साहित्य हमारे मन मंदिर में प्रकाश करता है।प्रशंसा एक फिसलन हैप्रशंसा सुनकर प्रसन्न होना अवगुण है क्योंकि जो प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होता है वह आलोचना सुनकर अप्रसन्न भी होगा। इस प्रकार मानवीय दोष दोनों ही हैं। जो व्यक्ति इन से ऊपर उठ गया , वह महान हो गया। प्रशंसा एक फिसलन है। जिस पर व्यक्ति यदि एक बार फिसल गया तो बहुत दूर जाकर पड़ता है, इसलिए प्रशंसा की फिसलन भरी सड़क से बचना चाहिए।
दु:ख की उत्पत्ति पाप से होती है क्योंकि जब हम पाप करेंगे तो उस पाप का कर्मफल भी हमको भोगना पड़ेगा। और कर्म फल भोगने में हम दुखी होते हैं।
संतोष से हमेशा सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। क्योंकि संतोष में कोई इच्छा नहीं रहती है और जहां इच्छा नहीं रहती वहां थोड़े या अधिक होने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।मातृभाषा के प्रेमी बनो

प्रेम करना है तो वास्तविक करो क्योंकि कृत्रिम प्रेम बहुत दिनों तक नहीं दिखता। अपनी मातृभूमि और अपनी मातृभाषा इन दोनों पर गर्व करो ।आपकी मातृभाषा हिंदी देश की एकता की कड़ी है। मैं भारतवर्ष के प्रत्येक राज्य की यात्रा कर चुका हूं , मैंने स्वयं अनुभव किया है कि हिंदी को सब लोग समझ सकते हैं । सब लोग बोल सकते हैं – केवल तमिलनाडु प्रदेश को छोड़कर।
हमको हिंदी प्रेमी होना चाहिए । हमको अंग्रेजी को बढ़ावा नहीं देना चाहिए । हमको अन्य देशों की भाषाओं को बढ़ावा नहीं देना चाहिए । अन्य सभी देश अपनी-अपनी भाषाओं को बढ़ावा देते हैं और हम अंग्रेजी को बढ़ावा देते हैं । हम अंग्रेजी में बोलना गौरव मानते हैं। हम हिंदी दिवस पर भी अंग्रेजी में भाषण देते हैं , हिंदी दिवस को भी ‘हिंदी डे’ कहते है। तो फिर हिंदी कैसे फूले फलेगी ?
विद्वान लोग जानते हैं कि यह केवल भारत है जिसने विश्व को ज्ञान दिया है ।यह केवल भारत है जिसने विश्व को सभ्यता और संस्कृति दी है । यह केवल भारत है जिसने विश्व में विश्व गुरु का पद प्राप्त किया है । वह सब संस्कृत में और हिंदी में ही संभव हो पाया था। भाषा विज्ञानियों ने संस्कृत की भाषा को सभी भाषाओं की जननी कहा है और किन देशों में संस्कृत के मूल शब्दों से क्या-क्या शब्द बन गए हैं – उन सबके उदाहरण दिए हैं अर्थात हम हिंदी से अंग्रेजी में बने हुए शब्दों को बोलकर स्वयं को गौरवान्वित समझ रहे हैं । जबकि वह मूल में हमारी भाषा के शब्द हैं तो हम मूल को क्यों न बोल दें ?
वैदिक भाषा ही मूल भाषा है । संसार में जितनी भाषाएं हैं उन सब से अधिक विस्तृत पूर्ण और वैज्ञानिक उच्चारण वेद भाषा में ही है ।चीनी भाषा में 204 ध्वनियां हैं। संस्कृत में 47 हैं ।रूसी भाषा में 35 ध्वनियां हैं। फारसी में 31 , तुर्की और अरबी में 28, स्पेनिश में 27 अंग्रेजी में 26 ,फ्रेंच में 25 लैटिन और हिब्रू में 20 और बाल्टिक में 17 ध्वनियां हैं। इन संख्याओं से प्रकट हो रहा है कि वैदिक भाषा की ही वर्णमाला विस्तृत है। यदि देखने में चीन की भाषा उच्चारण संख्या बड़ी हैl परंतु वह यथार्थ में बड़ी नहीं है । चीनी भाषा में जो 204 ध्वनियां हैं। वह थोड़ी सी ध्वनियों का विस्तार है । भाषा विज्ञान के संबंध में लिखने के लिए बहुत कुछ है और इसको भाषा विज्ञानी पूर्व में बहुत कुछ लिख चुके हैं।
वक्त की चाल को समझना हर किसी व्यक्ति के बस की बात नहीं है । इसको केवल बुद्धिमान व्यक्ति ही समझ सकते हैं और जो व्यक्ति वक्त – वक्त की चाल को समझ गए , वास्तव में वही बुद्धिमान भी होते हैं और वही सफल होते हैं ।सज्जनता की पहचानसज्जन पुरुषों की यही पहचान है कि वह किसी को परेशान नहीं करते। एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के अंदर एक ही दोष उसकी सारी अच्छाइयों को नष्ट कर देता है। जैसे एक बड़ी या छोटी नाव को दबाने के लिए एक ही क्षेत्र काफी होता है। जैसे जवाहरलाल नेहरू के चरित्र को लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी से जोड़ने पर जवाहरलाल नेहरू का व्यक्तित्व कम हो जाता है।
जैसे पानी चाहे कितना भी मीठा क्यों न हो , उसको जहर की एक बूंद ही जहरीला बना देती है।
क्षमा जीवन अमृत है । क्षमा व्यक्ति में निर्मलता का संचार कर आत्मबल बढ़ाती है ।क्षमा रूपी शस्त्र जिसके पास हो दुष्ट व्यक्ति भी उसका अनिष्ट नहीं कर सकते । क्षमा व्यक्ति को दुखों और क्लेशों से मुक्ति भी प्रदान करती है ।क्रोध रूपी दैत्य को क्षमा रूपी तलवार से मारा जा सकता है । क्षमा मधुरता का निर्माण करती है ,जिससे स्नेह ,संबंधों में प्रगाढ़ता आती है।
जो व्यक्ति अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को नहीं पहचानता है । अज्ञानता के वशीभूत उस जीव को तरह-तरह की कामनाएं और कर्म प्राप्त योनियों ,पशु पक्षी , पाषाण आदि में भटकना पड़ता है । संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले और मरने के बाद अप्रकट हो जाते हैं । मात्र बीज में ही उसकी कुछ काल के लिए प्रत्यक्ष छाया के छिपे यथार्थ रहस्य को समझने वाला ही श्रेष्ठ है । केवल जन्म और मृत्यु के बीच का समय ही उसकी उत्पत्ति और स्थिति को प्रकट करता है , और इसी में हम भूल भुलैयां में पड़े रहते हैं।
बूंद – बूंद से सागर भर जाता है । ऐसे ही प्रत्येक दिन ईश्वर की चर्चा, ईश्वर की भक्ति, ईश्वर के साथ मिलन ,ईश्वर की प्रार्थना उपासना थोड़ी-थोड़ी करने से भी मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है।व्यक्तित्व का महत्वमानव जीवन में व्यक्तित्व का विशेष महत्व है। वर्तमान दौर में यह शब्द करैक्टर नाम से अधिक प्रसिद्ध हो गया । हालांकि प्रचलन में आने के बावजूद भी आदर्श व्यक्तित्व नाम की चीज आसानी से दिखाई नहीं पड़ती । जो हम भीतर हैं ,वह बाहर दिखाई नहीं पड़ते ,जो बाहर हैं वह भीतर से नहीं होते ।शायद असुरक्षा की भावना से हम बाहरी व आंतरिक व्यक्तित्व में सामंजस्य नहीं बिठा पाते हैं । यही वजह है कि आज लोगों का एक दूसरे पर विश्वास उठ चुका है । साथ ही अपने व्यक्तित्व का वास्तविक स्वरूप दिखाने से अधिकतर लोग कतराने लगे हैं ,लेकिन ऐसा करके हम किसे धोखा दे रहे हैं ? निसंदेह समाज के साथ खुद को भी।कैसे बने निर्मल विमल जीवनहालांकि व्यक्तित्व की अस्थिरता का दोष हम परिस्थितियों को देते हैं, जबकि परिवर्तनशील परिस्थितियां ही व्यक्तित्व की पारखी होती हैं । ऐसी परिवर्तित परिस्थितियों में ही तो स्थिरता होनी चाहिए अर्थात अपने कर्तव्य मार्ग से नहीं हटना चाहिए। तभी एक मजबूत और अनुकरणीय व्यक्तित्व बनता है।
एक संपूर्ण व्यक्ति की विशेषताएं निम्न प्रकार होती है।
असत्य नहीं बोलना चाहिए। दूसरों का धन नहीं लेना चाहिए। दूसरों की स्त्री माता समान समझनी चाहिए ।
वैर विरोध पसंद नहीं करना चाहिए । पाप नहीं करना चाहिए, पापी के साथ भी नहीं करना चाहिए ।
दूसरों के दोष नहीं कहने चाहिए । दूसरों की गुप्त बातें जानने का प्रयास नहीं करना चाहिए ।किसी को भयभीत नहीं करना चाहिए ।
किसी के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिए। सज्जनों व गुरुजनों की निंदा नहीं करनी चाहिए । आपसी समझौते को नहीं तोड़ना चाहिए । नियम कानून नहीं तोड़ने चाहिए । शराब , जुआ और वेश्या को मन नहीं करना चाहिए। किसी का भी अपमान नहीं करना चाहिए । किसी बात का अहंकार नहीं करना चाहिए ।गवार ,मूर्ख ,अनाड़ी और कंजूस नहीं होना चाहिए।
कंजूस, गाली देने वाला, जुआरी ,वेरी ,निर्दयी ,इनसे कभी कुछ ना लें। कुपथ पर चलने वाले मित्र का त्याग करना ही हितकारी होता है ,अन्यथा वह कभी भी कष्ट पहुंचा सकता है।
कुसंगति छोड़कर सत्संगति करनी चाहिए। क्योंकि मनुष्य की पहचान उसकी संगति को देखकर ही की जाती है। प्रभु ज्ञान भी सत्संगति से ही पैदा होता है। कहते हैं प्रभु जब कृपा करते हैं तो जीव को सत पुरुषों का संग कराते हैं। सत्संग से ही विश्वास बनता है और विश्वास से भक्ति और भक्ति से ही भगवान द्रवित होते हैं। सदैव प्रसन्न रहें ।
कभी चिंता ना करें। बुद्धिमान बने महा उत्साही बनें ।
कुशल बनें । जितेन्द्रिय बनें ।धर्म पर आस्थावान वाले बनें। क्षमाशील बनें। समुद्र की तरह बनें , तालाब न बनें। क्योंकि :–बरसात में तालाब तो हो जाते हैं कम जर्फ।
बाहर कभी आप ऐसे समंदर नहीं होता।।निष्काम कर्म की व्याख्या‘निष्काम कर्म’ गीता की विश्व को सबसे उत्तम देन है। इसे समझ लेने से जीवन दर्शन को समझने में सहायता मिलना निश्चित है। निष्काम कर्म पर पूर्व में भी प्रकाश डाल चुके हैं। अब इस पर विशेष विचार करते हैं।
गीता के चौथे अध्याय में ही योगेश्वर श्रीकृष्णजी इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जिस व्यक्ति के सभी कार्य, कामना अर्थात फलेच्छा के संकल्प से अर्थात दृढ़ भावना से रहित होते हैं अर्थात जिनमें फलासक्ति का अभाव होता है और जिसके कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में भस्म हो गये हैं, उसे संसार के बुद्घिमान लोग पंडित कहते हैं।
योगेश्वर श्रीकृष्ण जी की मान्यता है कि कर्म के फल के प्रति व्यक्ति को आसक्ति को त्यागना ही होगा। यह ‘आसक्ति’ ही व्यक्ति पर ‘आशिकी’ के राग का भूत चढ़ाती है। जिससे फिर द्वेषादि का वितण्डावाद उठ खड़ा होता है। संसार में :आशिकी’ को चाहे कितना ही अच्छा माना जाए पर यह भी सत्य है कि ‘आशिकों’ को ही यह संसार पीटता भी है। तब उन्हें परमात्मा ही क्यों छोडऩे लगा है ? लोग अपने बुरे कामों को यह कहकर छिपाने का प्रयास करते हैं कि यह मेरे निजी जीवन का अंग हैं, इन पर किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है, परन्तु जब उनका यह ‘निजी जीवन’ सार्वजनिक होता है तो लोग उन पर थूकने लगते हैं। जिनका कर्म ‘आशिकी’ का हो गया-‘आसक्ति’ पूर्ण हो गया, समझो उसने अपने पतन का रास्ता स्वयं ही पकड़ लिया है। आजकल कई तथाकथित धर्मगुरू ‘आशिकी’ के इसी रास्ते को अपनाकर जेलों की हवा खा रहे हैं। अपने निजी जीवन के पापों को बहुत देर तक उन्होंने छुपाया पर जब वे उजागर हुए तो उन्होंने धर्मगुरूओं को जेलों के भीतर ले जाकर पटक दिया। इसलिए आसक्ति को छोड़ भक्ति पूर्ण जीवन शैली को अपनाकर भव पार करने का प्रयास करना चाहिए।देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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