शांता कुमार
1897 का वर्ष पूना निवासियों के लिए एक भयानक आपत्ति लेकर उपस्थित हुआ। उस वर्ष सारे नगर में प्लेग का रोग फैल गया। लोग घबरा उठे। यह रोग बंबई से होकर आया था। रोकथाम के प्रयत्न होने लगे। सारा शासन भविष्य की भयानकता का विचार करके चौकन्ना हो गया। चार फरवरी के कौंसिल ने एक विशेष बिल पास करके रोग की रोकथाम के लिए मार्शल लॉ की भांति सब अधिकार अंग्रेज अधिकारियों को सौंप दिये। उन्हें पूरी मनमानी करने का अधिकार प्राप्त हो गया। अंग्रेज अधिकारियों के निर्णय पर कोई दलील अपील न हो सकती थी। इधर प्लेग अपने यौवन पर था, उधर बंबई सरकार ने मि रैंड नामक एक कुख्यात व कठोर शासक को पूना नगर में प्लेग अधिकारी के नाते नियुक्त कर दिया। यह बड़े कड़े मिजाज का व्यक्ति था। दया और सहानुभूति का इससे दूर का भी संबंध न था।
पूना में उन्हीं दिनों कुछ देश भक्ति के कार्य भी चल रहे थे। सरकार की उन कार्यों के प्रति विशेष दृष्टिï थी। सरकार ने पूना निवासियों को उन देशप्रेम की गतिविधियों के लिए दण्ड देने का यह उपयुक्त अवसर समझा। कुछ वर्ष पूर्व एक हिंदू संरक्षण सभा बनी थी। यह सभा नवयुवकों को इकट्ठा करके शिवाजी व गणेश के उत्सव मनाती थी। इन उत्सवों में कुछ श्लोक पढ़े जाते थे। शिवाजी से संबंधित श्लोक का भाव था, केवल बैठे बैठे शिवाजी की गाथा की आवृत्ति करने से किसी को आजादी नही मिल सकती। हमें तो शिवाजी व बाजीराव की तरह कमर कसकर भयानक कृत्यों में जुट जाना होगा। आजादी के निमित्त ढाल तलवार उठा लेनी होगी। शत्रुओं के सैकड़ों मुंडों को काट डालना होगा।
इसी प्रकार गणेश उत्सव पर भी एक श्लोक पढ़ा जाता था। उसका भाव इस प्रकार था-गुलामी में रहकर भी तुमको लाज नही आती। इससे अच्छा है कि तुम आत्महत्या कर डालो। चुप मत बैठे रहो। बेकार पृथ्वी का बोझा मत बढ़ाओ। हमारे देश का नाम तो हिंदुस्तान है, फिर यहां अंग्रेज राज्य क्यों करते हैं?
पूना में इन उत्सवों व श्लोकों द्वारा भीतर ही भीतर एक आग सुलग रही थी। इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं कि उन दिनों कि इन गतिविधियों को लोकमान्य तिलक का आशीर्वाद व मार्गदर्शन प्राप्त था। शिवाजी व गणेश उत्सव को उन्होंने ही जनता में प्रचलित किया था। छत्रपति का जीवन नवयुवकों को विदेशी सत्ता के विरूद्घ क्रांति करने के लिए प्रेरित करता था।
सरकार बड़ी समझदार थी। उसने प्लेग के बहाने पूना निवासियों को इस प्रकार की राष्ट्रीय गतिविधियों के लिए दण्ड देना चाहा। सतारा के जिला कलेक्टर मि. रैण्ड 17 फरवरी, 1897 को पूना में आ धमके। उनके आते ही चारों ओर आतंक फैल गया। रोग का झूठा संदेह बनाकर, बड़े बड़े भवनों को आग लगा दी जाती। तलाशी लेने के बहाने लोगों की संपत्ति लूट ली जाती। अंग्रेज सिपाही बूटों समेत घर के भीतर तथा पूजा स्थानों पर जाते थे। जान बूझकर लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई जाती। घरों के भीतर हिंदू देवताओं की मूर्तियों का अपमान किया जाता। जनसाधारण का जीवन आतंकयुक्त हो गया। लोग प्लेग के रोग से इतने भयभीत न थे, जितने रैण्डशाही के इन अत्याचारों से क्षुब्ध हो उठे। चारों ओर रैण्डशाही की चर्चा होने लगी। कई स्थानों पर तलाशी के बहाने घरों के भीतर घुसकर महिलाओं से छेड़खानी की गयी। कितने ही स्थानों पर मां बहनों की पवित्रता भंग करने के लिए उनका अपमान किया गया। क्योंकि अंग्रेज यह समझते थे कि गुलाम जाति की मां बहनों का कोई मान सम्मान नही होता। कानून के अनुसार इन अत्याचारों को किसी न्यायालय में चुनौती नही दी जा सकती थी। लोकमान्य तिलक अपने समय के एक अत्यंत निर्भीक नेता थे। उनसे ये पाशविक अत्याचार न देखे गये। उन्होंने लोगों के कष्टो को व्यक्त करते हुए एक स्मृति पत्र अंग्रेज गर्वनर लार्ड सांडस्र्ट को भेजा। परंतु गुलाम देश के नेताओं की बात पर कौन ध्यान देता है। उनकी कोई सुनवाई न हुई। 4 मई 1897 को अपने प्रसिद्घ समाचार पत्र केसरी में लोकमान्य ने लिखा-बीमारी तो एक बहाना है। वास्तव में सरकार लोगों की आत्मा को ही कुचलना चाहती है। रैण्ड अत्याचारी है। वह अंग्रेज सरकार के कहने पर यह सब कर रहा है। पर यह दमन चक्र सदा न चलेगा। यह रैण्डशाही समाप्त होकर रहेगी।
पूना नगर में अब प्लेग के आतंकी की चर्चा कम होती थी, पर रैंड के अत्याचारों से नर नारी भयभीत थे। उनके दमन और अत्याचार के कोल्हू में पूना का जन जीवन पिसा जा रहा था। कई स्थानों पर छोटे छोटे झगड़े भी हो गये। एक जगह कुछ क्रुद्घ नवयुवकों ने दो अंग्रेज सिपाहियों को इतना पीटा कि अस्पताल में जाकर उनकी मृत्यु हो गयी। पूना में सभी वर्गों के नेता इन अत्याचारों से बचने का उपाय खोजते थे। पर उनको सूझता कुछ न था। क्योंकि रैंड के कृत्यों के विरूद्घ कहीं भी कोई फरियाद नही की जा सकती थी। इन्हीं दिनों 12 जून 1897 पूना में छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक उत्सव मनाया गया। उसका विवरण देते हुए केसरी ने कुछ पद्य छापे, जिनका शीर्षक शिवाजी की उक्तियां था। बाद में पुलिस की गवाही के अनुसार उस उत्सव में भाषण देते हुए एक वक्ता ने कहा था- इस अवसर पर हमारा मन बांसों उछल रहा है, हम सब अपनी खोई स्वाधीनता को पा लेने की चेष्टा कर रहे हैं। एक और वक्ता ने कहा-फ्रांस की राज्य क्रांति में भाग लेने वालों ने इस बात से इनकार किया है कि कोई हत्या कर रहे हैं।
क्रमश: