जब गांधी जी और उनकी कांग्रेस को सरदार भगत सिंह और उनके साथियों ने कहा था कायर , भाग — 1
26 जनवरी 1930 ई0 का दिन कांग्रेस के इतिहास में एक ऐतिहासिक दिन के रूप में अंकित है । क्योंकि इसी दिन पंजाब में रावी नदी के किनारे कांग्रेस के अध्यक्ष पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेसियों ने झंडा फहराकर पूर्ण स्वाधीनता का संकल्प लिया था । कांग्रेस के कार्यकर्ता सर्वत्र हर्षोल्लास व्यक्त कर रहे थे और सारी कांग्रेस भी यह संकल्प ले रही थी कि अब हम पूर्ण स्वाधीनता लेकर ही रहेंगे और जब तक हमें पूर्ण स्वाधीनता नहीं मिल जाती है तब तक हम प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया करेंगे ।
कांग्रेस इस दिन पूर्ण स्वाधीनता दिवस मना रही थी , जबकि हमारे देश के क्रांतिकारी भगतसिंह और उनके साथी एक पर्चा बांट रहे थे । यह पर्चा और कुछ नहीं था बल्कि भगवती चरण वोहरा नाम के क्रांतिकारी द्वारा लिखा हुआ और स्वयं सरदार भगतसिंह के द्वारा सम्पादित एक पत्र था । जिसमें गांधी जी और उनकी कांग्रेस की पोल खोली गई थी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि गांधीजी हमारे महान क्रांतिकारियों के किसी भी कार्य के समर्थक नहीं थे । उनकी दृष्टि में क्रांतिकारियों का कार्य हिंसा को प्रोत्साहित करना था । जिसमें उनकी कोई आस्था नहीं थी। यह अलग बात है कि गांधी जी की अहिंसा भी दोगली थी और 1930 ई0 तक वह स्वाधीनता की मांग भी नहीं कर रही थी । जबकि हमारे क्रांतिकारियों की तथाकथित हिंसा पूर्णतया शुद्ध थी और उसका लक्ष्य पहले दिन से ही देश की पूर्ण स्वाधीनता था। क्रांतिकारियों की गतिविधियों से असहमत होने के कारण ही गांधीजी अपने इन देशभक्त लोगों की ब्रिटिश अधिकारियों और शासकों से भी अधिक निंदा किया करते थे।
बात उस समय की है जब 23 दिसंबर, 1929 को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्तम्भ वाइसराय की गाड़ी को उड़ाने का असफल प्रयास किया था । गांधीजी को क्रांतिकारियों की ऐसी गतिविधि पसंद नहीं थी यही कारण था कि उन्होंने हमारे महान क्रांतिकारियों की इस ‘बम संस्कृति’ का विरोध करते हुए गाँधी जी ने इस घटना पर एक लेख ‘बम की पूजा’ लिखा । अपने इस लेख में गांधी जी ने क्रांतिकारियों की गतिविधियों और उनके उपायों की कटु आलोचना की थी । इतना ही नहीं उन्होंने क्रांतिकारियों की ऐसी गतिविधियों को स्वतंत्रता मिलने में एक ‘रोड़ा अटकाना’ माना था और तत्कालीन वायसराय की उन्होंने खुलकर प्रशंसा की थी। गांधी जी यह भूल गए थे कि :-
आह भरने से नहीं सैयाद पर होता असर,
टूटता पाषाण है पाषाण के आघात से ।।
गांधी जी के कटु आलोचना से भरे हुए उपरोक्त लेख के प्रति उत्तर में भगवतीचरण वोहरा ने ‘बम का दर्शन’ लेख लिखा । जिसका शीर्षक उन्होंने ‘हिंदुस्तान प्रजातन्त्र समाजवादी सभा का घोषणापत्र’ बनाया था । भगतसिंह ने जेल में रहते हुए ही इसको पढ़ा और इसको संपादित करने के उपरान्त अन्य क्रांतिकारियों के माध्यम से जनता में बंटवाने का निर्देश दिया।
23 दिसंबर 1929 को वायसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने का जो प्रयास हमारे क्रांतिकारियों के द्वारा किया गया था , उसकी कांग्रेस द्वारा निंदा की गई थी और कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास कर उसे वायसराय की सहानुभूति बटोरने के लिए उसके पास भी भेजा था । इस पत्र का शुभारम्भ कांग्रेस के इस निन्दनीय आचरण की आलोचना करते हुए ही किया गया। कांग्रेस के इस आचरण को हमारे क्रांतिकारियों ने ‘गांधी जी की सांठगांठ से कांग्रेस द्वारा अपने विरुद्ध घोर आंदोलन आरम्भ’ करने की संज्ञा दी थी। पत्र की इस भाषा से स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी क्रांतिकारियों से पूर्णत: असहमत रहते थे और उनकी देशभक्ति को देश के लिए पूर्णतया बकवास माना करते थे । जिसका क्रांतिकारियों को भी बहुत अधिक दुख रहता था। पत्र कुछ इस प्रकार था :–
“हाल ही की घटनाएँ। विशेष रूप से 23 दिसंबर, 1929 को वाइसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने का जो प्रयत्न किया गया था, उसकी निन्दा करते हुए कांग्रेस द्वारा पारित किया गया प्रस्ताव तथा ‘यंग इण्डिया’ में गाँधी जी द्वारा लिखे गए लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गाँधी जी से साँठ-गाँठ कर भारतीय क्रांतिकारियों के विरुद्ध घोर आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया है। जनता के बीच भाषणों तथा पत्रों के माध्यम से क्रांतिकारियों के विरुद्ध बराबर प्रचार किया जाता रहा है। या तो यह जानबूझकर किया गया या फिर केवल अज्ञान के कारण उनके विषय में गलत प्रचार होता रहा है और उन्हें गलत समझा जाता रहा। परन्तु क्रांतिकारी अपने सिद्धान्तों तथा कार्यों की ऐसी आलोचना से नहीं घबराते हैं। बल्कि वे ऐसी आलोचना का स्वागत करते हैं, क्योंकि वे इसे इस बात का स्वर्णावसर मानते हैं कि ऐसा करने से उन्हें उन लोगों को क्रांतिकारियों के मूलभूत सिद्धान्तों तथा उच्च आदर्शों को, जो उनकी प्रेरणा तथा शक्ति के अनवरत स्रोत हैं, समझाने का अवसर मिलता है। आशा की जाती है कि इस लेख द्वारा आम जनता को यह जानने का अवसर मिलेगा कि क्रांतिकारी क्या हैं, उनके विरुद्ध किए गए भ्रमात्मक प्रचार से उत्पन्न होने वाली गलतफहमियों से उन्हें बचाया जा सकेगा।”
अहिंसा का गलत अर्थ किया गया
स्पष्ट हो जाता है कि हमारे क्रांतिकारी कॉन्ग्रेस और गांधी जी के द्वारा अपने विरुद्ध चलाए जा रहे भ्रमात्मक प्रचार को लेकर बहुत अधिक दुखी रहते थे। कांग्रेस हमारे क्रांतिकारियों के बारे में उस समय जनता के बीच जाकर उसे यही समझाती थी कि ये लोग देश में आग लगाने वाले हैं और इनका उद्देश्य आजादी न लेकर लोगों को आतंकित करना है। कांग्रेस का इस प्रकार का नकारात्मक और भ्रमात्मक प्रचार हमारे क्रांतिकारियों को जो बहुत चुभता था।
कांग्रेस हमारे क्रांतिकारियों की हिंसा को लोगों के बीच बदनाम करती थी । जबकि अपनी अहिंसा को इस प्रकार प्रस्तुत करती थी जैसे कि उसी के माध्यम से देश आजाद होने जा रहा है । इस पर क्रांतिकारियों ने अपने इस पत्र के माध्यम से लोगों को स्पष्ट करने का प्रयास किया कि :–
”पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर ही विचार करें। हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया है, और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है, क्योंकि इन शब्दों से दोनों ही दलों के सिद्धान्तों का स्पष्ट बोध नहीं हो पाता। हिंसा का अर्थ है कि अन्याय के लिए किया गया बल प्रयोग, परन्तु क्रांतिकारियों का तो यह उद्देश्य नहीं है, दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धान्त। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अपने आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अन्त में अपने विरोधी का हृदय-परिवर्तन सम्भव हो सकेगा।
एक क्रांतिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी माँग करता है, अपनी उस माँग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है,इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल प्रयोग भी करता है। इसके इन प्रयत्नों को आप चाहे जिस नाम से पुकारें,परंतु आप इन्हें हिंसा के नाम से सम्बोधित नहीं कर सकते,क्योंकि ऐसा करना कोष में दिए इस शब्द के अर्थ के साथ अन्याय होगा।”
क्रांतिकारियों ने अपने पत्र के माध्यम से बहुत साफ किया कि उनकी हिंसा इसलिए हिंसा नहीं है , क्योंकि उसका उद्देश्य देश को आजाद कराना है। उनकी हिंसा का उद्देश्य लोगों को आतंकित करना नहीं है बल्कि लोगों के लिए खुली हवा में खुली सांसें लेने का प्रबंध करना है । क्रांतिकारियों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि हम एक उद्देश्य लेकर चल रहे हैं और उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विदेशी सत्ताधारियों से हमें जिस प्रकार भी निपटना होगा , उसी प्रकार निपटेंगे , परंतु उसे अब किसी भी कीमत पर इस देश में शासक बनाए रखना पसंद नहीं करेंगे। जहां तक गांधीजी के सत्याग्रह की बात थी तो इस पत्र के माध्यम से सत्याग्रह पर भी बहुत अच्छा प्रकाश डाला गया :–
“सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह। उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों ? इसके साथ-साथ शारीरिक बल प्रयोग भी [क्यों] न किया जाए ? क्रांतिकारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक एवं नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है , परन्तु नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषिद्ध मानते हैं। इसलिए अब यह सवाल नहीं है कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा,बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते हैं, या केवल आत्मिक शक्ति का ?”
वास्तव में हमारे क्रांतिकारियों का उद्देश्य इस नैतिकता पर आधारित था कि जो व्यक्ति राक्षस प्रवृत्ति से दानवीय अत्याचार करते हुए हमारी स्वतंत्रता का अपहरण किए हुए है , उसके साथ उसी प्रकार की दुष्टतापूर्ण नीति का ही अनुकरण करना नीति है । इसके अतिरिक्त उनकी मान्यता यह भी थी कि अपने किसी भी हिंसक आंदोलन से जनसामान्य को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिए । वह बहुत सावधानी से केवल और केवल दुष्ट व्यक्ति को या सत्ताधारियों को ही दंडित करना चाहते थे । युद्ध के बीच उनकी ईमानदारी और नैतिकता यही थी । यही उनकी अहिंसा की परिभाषा थी। इसी को वेद ने भी यह कहा है कि जब केवल दुष्ट के विनाश के लिए हिंसा की जाती हो तो वह हिंसा हिंसा होकर भी हिंसा नहीं होती। वास्तव में हमारे क्रांतिकारियों का यह दर्शन ही उनके ‘बम का दर्शन’ था। उनका मानना था कि जो बम चला रहे हैं उनके लिए हाथ में बम होना चाहिए और जो प्यार की भाषा मानते व समझते हैं उनके लिए हाथ में प्रेम के पुष्प होने चाहिए।
देश को आजादी केवल क्रांति से मिलेगी
पत्र में आगे लिखा था :–
” क्रांतिकारियो का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही स्वतन्त्रता मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रांति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों तथा उनके पिट्ठुओं से क्रांतिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जाएं। क्रांति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी,उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा। क्रांति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मजदूर व किसानों का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्त्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनीतिक शक्ति को हथियाए बैठे हैं।”
कांग्रेस ने जब आजादी ली तो उसने ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए अपने प्रिय अंग्रेजों के संस्कारों के आधार पर ही शासन चलाने को प्राथमिकता दी । उसका कोई चिंतन ऐसा नहीं था , जिससे वह व्यवस्था परिवर्तन की क्रांतिकारी योजना बना पाती । जिस प्रकार शासन पूर्व से चल रहा था , उसी पर चलाना उसने स्वीकार किया । इस प्रकार केवल ऊपर का आवरण मात्र बदला गया । भीतर से सारी की सारी व्यवस्था ज्यों की त्यों रही । इसी का परिणाम रहा कि देश को स्वतंत्रता के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले । इसके विपरीत हमारे क्रांतिकारियों के पास क्रांति की एक पूरी योजना थी । इसके अतिरिक्त वह ब्रिटिश सत्ताधारियों के कारण समाज में आई जड़ता और शोषण की प्रवृत्ति को भी समाप्त करने की एक विशद योजना पर कार्य कर रहे थे । उन्होंने स्पष्ट किया कि हम स्वतंत्रता के उपरांत पूरी व्यवस्था को ही परिवर्तित करेंगे , जिससे समाज के हर व्यक्ति को स्वतंत्रता का लाभ प्राप्त हो सके। ,,पत्र में ‘बम का दर्शन’ स्पष्ट करते हुए आगे लिखा गया कि आतंकवाद पूर्ण क्रांति नहीं और क्रांति भी बिना आतंकवाद के पूर्ण नहीं । क्रांतिकारियों की इस बात में सचमुच बहुत बल था । जब तक अत्याचार और अन्याय करने वाला व्यक्ति आतंकित नहीं होते और वह भागने के लिए विवश न हो जाएं तब तक क्रांति का कोई औचित्य नहीं । ऐसी क्रांति तभी संभव है जब क्रांति आतंकवाद का पर्याय बन जाए । इस आतंकवाद का भय केवल उस पर ही होना चाहिए जो किसी दूसरे पर अन्याय और अत्याचार कर रहा है। तभी क्रांति सफल हो पाती है : —
“आज की तरुण पीढ़ी को मानसिक गुलामी तथा धार्मिक रूढ़िवादी बंधन जकड़े हैं और उससे छुटकारा पाने के लिए तरुण समाज की जो बैचेनी है, क्रांतिकारी उसी में प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है। नवयुवक जैसे-जैसे मनोविज्ञान आत्मसात् करता जाएगा, वैसे-वैसे राष्ट्र की गुलामी का चित्र उसके सामने स्पष्ट होता जाएगा तथा उसकी देश को स्वतन्त्र करने की इच्छा प्रबल होती जाएगी और उसका यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि युवक न्याय, क्रोध और क्षोभ से ओतप्रोत हो अन्याय करनेवालों की हत्या न प्रारम्भ कर देगा। इस प्रकार देश में आतंकवाद का जन्म होता है। आंतकवाद सम्पूर्ण क्रांति नहीं और क्रांति भी आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं। यह तो क्रांति का एक आवश्यक अंग है। इस सिद्धान्त का समर्थन इतिहास की किसी भी क्रांति का विश्लेषण कर जाना जा सकता है। आतंकवाद आततायी के मन में भय पैदा कर पीड़ित जनता में प्रतिशोध की भावना जाग्रत कर उसे शक्ति प्रदान करता है। अस्थिर भावना वाले लोगों को इससे हिम्मत बँधती है तथा उनमें आत्मविश्वास पैदा होता है। इससे दुनिया के सामने क्रांति के उद्देश्य का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है क्योंकि यह किसी राष्ट्र की स्वतन्त्रता की उत्कट महत्त्वाकांक्षा का विश्वास दिलाने वाले प्रमाण हैं, जैसे दूसरे देशों में होता आया है, वैसे ही भारत में आतंकवाद क्रांति का रूप धारण कर लेगा और अन्त में क्रांति से ही देश को सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।
तो यह हैं क्रांतिकारी के सिद्धान्त, जिनमें वह विश्वास करता है और जिन्हें देश के लिए प्राप्त करना चाहता है। इस तथ्य की प्राप्ति के लिए वह गुप्त तथा खुलेआम दोनों ही तरीकों से प्रयत्न कर रहा है। इस प्रकार एक शताब्दी से संसार में जनता तथा शासक वर्ग में जो संघर्ष चला आ रहा है, वही अनुभव उसके लक्ष्य पर पहुंचने का मार्गदर्शक है। क्रांतिकारी जिन तरीकों में विश्वास करता है, वे कभी असफल नहीं हुए।”