भारत के विषय में कैप्टेन सिडेनहम का कहना है-”हिन्दू सामान्यत: विनम्र, आज्ञापालक, गम्भीर, अनाक्रामक, अत्यधिक स्नेही एवं स्वामिभक्त किसी की बात को शीघ्रता से समझने में दक्ष, बुद्घिमान, क्रियाशील, सामान्यत: ईमानदार, दानशील, परोपकारी संतान की तरह प्रेम करने वाले विश्वासपात्र एवं नियम पालन करने वाले होते हैं। जितने भी राष्ट्रों से मैं परिचित हूं, सच्चाई एवं नियमबद्घता की दृष्टि से ये उनसे तुलना करने योग्य हैं।”
स्ट्राबों का कहना है कि-”वे (अर्थात भारतीय) इतने ईमानदार हैं कि उन्हें अपने दरवाजों पर ताले लगाने की अथवा किसी भी अनुबंध के बंधनकारी होने के लिए कोई पत्र लिखने की आवश्यकता नहीं पड़ती।”
वास्तव में यह बात सत्य है हमारे पूर्वज अपने मुंह से निकली वाणी का और शब्दों का ध्यान रखते थे। अभी भी जिन लोगों की अवस्था 80-90 वर्ष की है वे अपनी जुबान का ध्यान रखते हैं। अपने दिये वचन का ध्यान रखते हैं। जबकि आजादी के उपरांत जन्मी पीढ़ी की स्थिति दयनीय है, वह तो दिये वचन की बात तो छोडिय़े लिखे वचन की भी खाल उधेड़ती है और उससे भी मुकरने का हर संभव प्रयास करती है। इसका कारण ये है कि अब हम पर पश्चिमी संस्कृति हावी, प्रभावी होने लगी है। उसी का परिणाम है कि अब हमारे घरों में मजबूत से मजबूत ताले लगे होते हैं। मनुष्य सुधरने के स्थान पर बिगड़ता जा रहा है। उसकी गतिविधियां सन्देहास्पद रहती है और हर व्यक्ति को संदेह से देखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि अब हमारे घरों में सीसी कैमरे भी लगने लगे हैं। जिनकी दृष्टि में भद्रजन भी रखे जाते हैं। जो चोरों पर नजर रखते थे-उन पर चोर नजर रखते हैं। आजादी मिलने के पश्चात भारत ने यही उन्नति की है।
हम भारत को फिर पहले जैसा भारत कैसे बनाएं ? वह कौन से संस्कार हैं , वह कौन से विचार हैं और वह कौन सी बातें हैं जिन्हें अपनाकर हम फिर भारत को विश्वनायक बना सकते हैं ? आइए कुछ प्रश्नों पर फिर विचार करते हैं :–
‘अंधा व्यक्ति किसी वस्तु को छूकर क्यों पहचान लेता है ?’
‘क्योंकि उसकी पहचानने की क्षमता का कारण उंगलियों के द्वारा 0.02 माईकॉन भाग की गतिविधियों को पहचानने की क्षमता है , यह स्थिति हर व्यक्ति में होती है पर वे इसका उपयोग नहीं करते।
‘मानव नेत्र की देखने की क्षमता कितनी है ?’
‘1 रेडियन के 0.0003 भाग को देखने की क्षमता।’
‘मनुष्य तंबाकू क्यों खाता है ?’
‘तंबाकू खाने वाले व्यक्ति के पेट में कार्बोहाइड्रेट्स का पूर्ण पाचन नहीं होता है ।इसलिए वे यही मानते हैं कि तंबाकू खाने से जल्दी और अच्छी भूख लगती है।’
‘एक मनुष्य अपने औसत जीवन में कितना भोजन ग्रहण करता है ?’
‘इसका औसत लगभग 40000 किलोग्राम है। यह औसत है सामान्य नियम नहीं।’
‘मनुष्य के शरीर में कुल कितनी कोशिकाएं होती हैं ?’
‘मनुष्य के शरीर में 100 अरब से भी अधिक कोशिकाएं होती हैं ।’
‘एक स्वस्थ मनुष्य के शरीर में कितना खून हो सकता है ?’
‘6लीटर से 8 लीटर तक ।’
‘मनुष्य के शरीर में कुल कितना पानी होता है ?’
’12 गैलन का एक बर्तन भर सकता है।’
‘खामोशी क्या है ?’
‘हमारे पवित्र विचारों की भाषा है ।’
‘पाप कब नष्ट होते हैं ? ‘
‘भोगने पर।’
‘परमानंद की प्राप्ति क्या है ?’
‘आत्मा में परमात्मा का मिलन।’
‘सार्वभौमिक उपासना क्या है ?’
‘गायत्री की उपासना राष्ट्रीय उपासना ही नहीं बल्कि सार्वभौमिक उपासना है। उसकी उपेक्षा करना ऋषियों की दृष्टि में एक अक्षम्य अपराध है।’
‘किसने कितनी उन्नति की , इसकी सच्ची कसौटी क्या है ?’
‘उस मनुष्य के दृष्टिकोण व स्वभाव में कितना अंतर आया।’
शीलवान होना इससे बढ़कर है ?’
‘ किसी भी वस्त्रालंकार सेअज्ञानता कैसी होती है ?’
‘एक रात्रि के समान जिसमें चांद सितारे भी नहीं होते।’
‘सुखी कौन है ?’
‘राजा हो या रंक जिसको अपने घर में सुख है ।’
‘सफलता कब मिलती है ?
‘दृढ़ प्रतिज्ञ होकर काम शुरू कर देना ।’
‘दुश्चिंताएं किस लिए आती हैं ?’
‘आप अपने भीतर के बैकुंठ का अनुभव करें ।’
‘भगवान में विश्वास किसका नहीं होता ?’
‘जिसको अपने आप पर विश्वास नहीं होता ।’
‘डाकू राजा कौन है ?’
‘जो राजा अपनी प्रजा को कष्ट देकर अपना प्रयोजन साधे।’
‘सच्चे धर्म का पालन कैसे होता है ?’
‘निष्काम भाव से कार्य करने में कलम और तलवार में से जीत किसकी होती है ?’
‘ कलम की ।’
‘मित्रता क्या चाहती है ?’
‘बलिदान और आत्म उत्सर्ग।’
‘प्रतिशोध क्यों नहीं लेना चाहिए ?’
‘प्रतिशोध प्रतिद्वंदी को ही नहीं , जन्मदाता को भी खाकर ही छोड़ता है।’
‘मनुष्य का नाम कैसे अमर होता है ?’
‘सत कर्मों के द्वारा ,संतान से नहीं।’
‘धरती पर भार कौन है ?’
‘आलसी व प्रामादी।’
‘अपराधी और अन्यायी समाज से बच जाएं पर किससे नहीं बच पाते ?’
‘आत्मा की कचोट से।’
‘शासन की पवित्रता कैसी होनी चाहिए ?’
‘जैसे धर्म पुरोहित की सदाचारिता।’
‘महान चरित्रवान और आदर्शवान व्यक्तियों की क्या पहचान है ?’
‘प्रतिक्षण का सदुपयोग करते हैं ।कभी खाली नहीं बैठते ।उनकी महानता का चिह्न ही व्यस्तता है।’
‘मनुष्य अपने आप को धोखा कब देता है ?’
‘अपनी आत्मा कीआवाज को अनसुनी करके।’
‘मन के विषय में बताएं ?’
‘मन बंधन का कारण भी है और मोक्ष का भी। मन के लगाने पर निर्भर करता है कि वह किधर लगाया जाए।
तभी तो कहा जाता है कि :-‘ हारिए न हिम्मत बिसारिय न राम ।’
‘हिम्मत करे इंसान तो क्या काम है मुश्किल।’
‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत।’
‘हिम्मत कर हिम्मत ना हार।’
‘यह मन विषयों के स्वाद में पड़कर पल भर में करोड़ों दुष्कर्म कर डालता है ।तन और मन को वश में कर लो तो थोड़े से समय में ही संयम और साधना का लाभ पा लोगे। कर्मों की उलझन में सारे संसार के लोग मन के कारण उलझे हुए हैं जो स्वयं सुल झानी पड़ेगी।
‘दुनिया से जाने वाले व्यक्ति का यदि किसी भी चीज पर मन में ध्यान रहता है तो वह तड़पता है। लेकिन जिसको संसार से आसक्ति न रह जाए, अनासक्त हो जाए, संसार से ऊपर उठना सीख जाए ,वही सच्चा भक्त है और ऐसी भक्ति जब जीवन में आएगी तो वैराग्य को फलीभूत कर देगी। भक्त वह इंसान हैं जिसको संसार ललचा नहीं पाता, और मन उसके अधीन हो जाता है। वह मन के अधीन नहीं रह पाता।’
‘मुनि किसे कहते हैं?’
‘जिनकी इंद्रियों मन और बुद्धि संयमित हैं । जिनका लक्ष्य मोक्ष है। जिनके मन से इच्छा व क्रोध स्वत: अलग हो चुका है। वह वास्तव में सदा मुक्त हैं। जो राग ,भय क्रोध से मुक्त हो चुका है, और स्थिर बुद्धि वाला है ,वही मुनि है। इस संसार रूपी भवसागर के मल्लाह पूर्ण संत है, उनके सत्संग में संसार के साधारण जनों को इस संसार की झूठी माया का पीछा छोड़ कर अपने सच्चे घर ,आश्रम , सच्चा खंड तथा अपने निर्माता, परमपिता परमेश्वर के नाम का स्मरण करवाया जाता है।
मन भगवान का मंदिर है ।प्रकृतिजन्य गुण ही मनुष्य का श्रेष्ठ धर्म है। मानव शरीर में दो महत्वपूर्ण तत्व होते हैं ,मन और प्राण। मन अंतःकरण ज्ञान का केंद्र और प्राण क्रिया शक्ति का आधार है । जैसे जब आप अन्य किसी के यहाँ उसका मेहमान बनकर जाते हो तो उसके कोठी, बंगला, बाल बच्चे ,सामान आदि से मोह नहीं लगाते हो और अपने घर चले आते हो ।उसी प्रकार अपने आपको संसार में भी मेहमान बनकर आया समझोगे तो सदा सुखी रहोगे। ध्यान रहे ध्यान से ही लगता है सच्चा ध्यान।’
‘अपने आप कर ले विचार।
जागो जल्दी है दिन चार।
जागो जल्दी यह सपने की माया।
आया भूलकर खुदा को गवाया।
देर की तो सांझ होगी।
तेरे जीवन की शाम होगी।
करी संगत जो संतन की।
पाई कुंजी अपने मन की।’
छन् क्या होता है ?
‘छंद का अपभ्रंश है छन। जिससे वर की वाणी और ज्ञान की परीक्षा ली जाती है। छंद शब्द भी खंड से बना है । प्राचीन काल में विवाह के समय वधू पक्ष की लड़की अर्थात वधू की बहन और सहेलियां वर
की परीक्षा लेने के लिए उससे वेद का कोई खंड सुना करती थीं। कहीं से भी कोई भी प्रसंग चालू कर उस पर उसके विचार लिए जाते थे । यदि वह अमुक अमुक खंडों को बताता चला जाता था तो बातों-बातों में और हंसी मजाक में ही उसके ज्ञान की परीक्षा हो जाती थी।
आज बड़ा दुख होता है जब छन्द या खंड के स्थान पर छन्न और वह भी बेतुकी बेवकूफी भरी बातें को वर सुनाता है और उस पर अश्लील हंसी मजाक होकर एक रस्म की पूर्ति कर ली जाती है।
विवाह उपरांत जात रे,( ग्राम परिक्रमा ) क्यों दी जाती है ?
इसकी वैज्ञानिकता भी आज परिवर्तित हो गई है। प्राचीन काल में किसी भी वधू के अपने ससुराल में जाने के पश्चात घर की बुजुर्ग महिलाएं उसे गांव की परिक्रमा करवाती थीं और प्रमुख – प्रमुख स्थानों पर अपने आप लेकर जाती थीँ। विवाह उपरांत वर वधु को साथ लेकर जात रे दी जाती है ।अपने कुल देवता को नैवेद्य चढ़ाई जाती है। देव दर्शन के माध्यम से गांव, नगर के प्रमुख तीर्थ स्थलों और मंदिरों का भ्रमण हो जाता है तथा वधू का इन तीर्थ स्थलों से परिचय हो जाता है। इसमें से पौराणिक पाखंड को निकालकर इसके वैज्ञानिक स्वरूप पर भी समझा जाए तो यह एक वैदिक परंपरा ही है।
‘एक सम्राट को किस से सतर्क रहना चाहिए ?’
‘चाटुकारों से।’
‘मित्र किसको बनना चाहिए , सबसे ज्यादा हितैषी व कड़वे वचन वाले को एकांत में दोष को बताने वाले को।’
‘वास्तव में मित्र वही है जो मित्र के पसीने की जगह खून बहा दे अन्यथा मगरमच्छ भी अच्छा है जो नकली आंसू तो बहा देता है । स्वार्थ के धरातल पर की गई मित्रता शत्रुता का कारण बनती है ।
शक्तिशाली शत्रु से कमजोर मित्र खतरनाक होता है।
कुमित्र पर कभी विश्वास न करें , क्योंकि नाराज होने पर वह आप के रहस्य को उजागर कर देता है।
कौटिल्य के अनुसार जिस देश के लोग कटु सत्य को बोलने से डर जाते हैं वह वर्तमान भले ही संभाल लें लेकिन भविष्य उन्हें विनाश के सिवा कुछ नहीं देता।’
‘निज जाति, धर्म और देश के प्रति मनुष्य के क्या कर्तव्य हैं ?’
‘जिस मनुष्य का जन्म जिस जाति और धर्म में होता है । उसे उसी माध्यम से अपनी आत्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति कर इस लोक व परलोक को सवारना ही स्वधर्म है ।स्वधर्म का पालन करते हुए प्रत्येक स्थिति में अपने राष्ट्र के लिए तैयार रहना ही राष्ट्र धर्म है। भारत माता की कोख में ही ऋषि-मुनियों देवताओं का प्राकट्य हुआ है ।’
“भारत”। “भा” “रत”अर्थात वह भूमि जो ज्ञान प्राप्त करने मैं सदैव रत रही है, लीन रही है , अपनी आभा को सदैव उज्जवल एवं धवल करने में प्रयासरत रही है ,वही तो भारत है । इसका एक दूसरा अर्थ भी है भा का अर्थ आभा अर्थात चमकती हुई चांदी से भी है ।जबकि ‘र’ का अर्थ रजत से हैं ,और ‘त’ का अर्थ तम अर्थात काले से हैं । यदि इस को भारत की भौगोलिक स्थिति पर लागू करके देखें तो ऊपर चमकती हुई चांदी की पड़त हिमालय है । कश्मीर और पंजाब के लोग हमें गोरे चिट्टे सफेद चांदी जैसे दिखाई देते हैं । उसके बीच में मध्य भारत के लोग हमें कुछ गेंहुए से रंग के दिखाई देते हैं । जबकि नीचे प्रायद्वीप के लोग सांवले काले रंग के होते हैं ।यदि वह भारत सुरक्षित रहेगा तो हमारी समस्त परंपराएं एवं मर्यादाएं सुरक्षित रहेंगी। अतः स्वधर्म का पालन करते हुए राष्ट्र धर्म को नहीं भूलना चाहिए ।उसी मनुष्य का जीवन सफल होता है। उसी का इतिहास में नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाता है।’
इस पवित्र भूमि की रक्षा के लिए हमारे यहां अनेकों राष्ट्र नायकों ने अपने बलिदान दिये हैं। बंदा वीर बैरागी, गुरु गोविंद सिंह, गुरु तेग बहादुर, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी ,वीर विक्रमादित्य ,राजा भोज आदि उदाहरण हमारे सामने हैं , जिनके नाम आज भी गर्व से लिए जाते हैं। जिन्होंने मातृभूमि , राष्ट्र , वह स्वधर्म की रक्षा के लिए कार्य किए ।
संसार के कष्टों में इतनी शक्ति नहीं है कि ऐसे महापुरुषों के पुख्ता तलवों की राह रोक दें । उनको हिला सके। उन्होंने अपने लक्ष्य बनाए क्योंकि मनुष्य का जीवन में लक्ष्य बना लेना ही महत्वपूर्ण होता है । जैसा लक्ष्य रखेंगे वैसे लक्षण स्वत: आएंगे। ये महान आत्मा राष्ट्रभक्ति के माध्यम से बनी है। महान आत्माएं धरा पर सूर्य केतु होती हैं । ऐसी वीरों की दृढ़ता ही उनकी सफलता की कुंजी है तो विचारों को राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत अवश्य करें विचारों में इस प्रकार का परिवर्तन लाने से ही भाग्य परिवर्तन होता है।
‘हृदय का दर्पण क्या है ?’
‘चेहरा।’
‘कौन आदमी कभी अकेला नहीं होता ?:
‘ज्ञानी ।’
‘किस देश में नहीं रहना चाहिए ?’
‘जिस देश में आदर नहीं ,आजीविका नहीं ,परिवार नहीं और विद्या की प्राप्ति भी नहीं वहां नहीं रहना चाहिए।’
‘किस गांव में या नगर में नहीं रहना चाहिए ?’
‘जिस गांव या नगर में वैद्य नहीं हो, जिसके लिए रास्ता न हो, जिसमें शाह न हो, जिसमें न्याय न हो, जिसमें भाव न हो।’
‘कांटों व दुष्टों से बचने के क्या उपाय हैं ?’
‘एक तो उनका मुंह तोड़ना, दूसरा उनसे दूर रहना।’
‘ईश्वर की परम सत्ता इस जगत को कैसे चलाती है ?’
‘जैसे रथ के पहिए की धुरी पर आकर सभी अरे रुकते हैं ।इसी प्रकार इस जगत को एक ही परमात्मा की परम सत्ता चलाए हुए हैं। क्योंकि वही कर्त्ता है, वही शाश्वत है, वही स्थिर है, वही सत्य है, उस एक को निकाल देने से कुछ शेष नहीं बचता और एक न हो तो कुछ नहीं बनता। जैसे एक कक्षा में बोर्ड पर एक लिखने के बाद कितनी ही जीरो लगाई जा सकती हैं। एक के बाद एक लगी हुई प्रत्येक जीरो का मान रहेगा ।लेकिन यदि उन शून्यों से प्रथम स्थान पर जो एक लिखा था , उसको मिटा देने से वे शून्य केवल ‘0’ ही रह जाते हैं , उनका कोई मान नहीं रह जाता। इसलिए परमात्मा को भुलाने से कुछ भी शेष नहीं रह जाता।
एक ही परमात्मा सब्जियों में व्याप्त है केवल नाम अलग-अलग हैं ।अनेक धर्मों ने अलग-अलग नाम रखी हुई । वस्तुतः वह एक ही है। ‘एक ‘ही की दिव्य ज्योति सब में समाई है। जैसे सूत से कपड़ा और कपड़े की विभिन्न प्रकार बन जाते हैं लेकिन है सभी कपड़े और वह भी केवल एक सूत के बने होते हैं। एक माला में सूत की गांठ के बने हुए 108 मनके होते हैं जब मनकों की गांठ खुलती चली जाती है तो अंततः सूत ही शेष बच जाती है। इसी प्रकार सृष्टि है। भगवान की उपमा सूत की माला से इसीलिए दी जा सकती है।
भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वानों की मान्यता है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सृष्टिकर्ता, अनादि व नित्य है। ईश्वर धार्मिक स्वभाव से युक्त है। वह धर्म व अपने कर्तव्य विधान के अनुसार जो उसका अपना स्वभाव है, उसका पालन करता है तथा उसका कभी अतिक्रमण व उल्लंघन नहीं करता। यदि ऐसा करेगा तो फिर वह अपने विधान से च्युत होकर ईश्वर नहीं रहेगा और उसके न्याय व पक्षपातरहित स्वभाव का पालन नहीं हो सकेगा। ईश्वर अपने कर्तव्य विधान में बंधा हुआ है। वह जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है और उनके प्रत्येक कर्म का फल देता है। जीवात्मा के अतीत व वर्तमान के किसी भी कर्म का बिना फल भोगे नाश व उन्मूलन नहीं होता। इस कारण से ईश्वर को सर्वशक्तिमान कहा जाता है क्योंकि वह सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय सहित जीवों के कर्म फल विधान का संचालन करने में किसी की सहायता नहीं लेता और यह कार्य व व्यवस्था वह अनादि काल से सुचारू रूप से करता चला आ रहा है और आगे भी सुगमतापूर्वक करता रहेगा। इस कारण से ईश्वर सर्वशक्तिमान कहलाता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि ईश्वर सब कुछ या कुछ भी कर सकता है। धार्मिक जगत में कुछ अल्प-ज्ञानी व अन्धविश्वासी लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर सब कुछ व कुछ भी कर सकता है। ऐसे लोगों से कुछ प्रश्न किये जा सकते हैं जिनका उत्तर उनके पास नहीं है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत