नई दिल्ली । ( सत्यजीत कुमार ) अखिल भारत हिंदू महासभा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष संदीप कालिया ने कहा है कि सावरकर जी जिस हिंदू राष्ट्र की संकल्पना को लेकर आगे बढ़े थे उसमें आर्य समाज का विशेष योगदान था । दोनों संगठनों ने मिलकर उस समय सांझा लड़ाई लड़ी थी । उन्होंने कहा कि आज भी इसी प्रकार हमें एक मंच पर आकर काम करने की आवश्यकता है।
सावरकरजी ने ‘हिंदी, हिंदू हिन्दुस्तान’ का उदघोष किया था। अपने इस उद्घोष के माध्यम से उन्होंने हिंदू समाज के सभी वर्गों को साथ ले लिया था। उनका दृष्टिकोण व्यापक था , इसलिए उनके उद्घोष का अर्थ भी व्यापक था। उनके समकालीन हिंदू समाज में तीन प्रकार की विचारधाराएं कार्य कर रही थीं। उनमें से एक थी आर्यसमाजी विचारधारा। यह विचारधारा भारत में आर्यभाषा (संस्कृत हिंदी) आर्य (हिंदू) आर्यावर्त्त (हिंदुस्तान) की बात करती थी। यह सावरकरजी ही थे जिन्होंने इस विचारधारा की इस मान्यता को अपना समर्थन दिया और संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बात कहकर अपने ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ के साथ वेदों की बात करने वाले आर्य समाज का उचित और प्रशंसनीय समन्वय स्थापित कर लिया। जब नवाब हैदराबाद ने आर्यसमाज को हैदराबाद में प्रवेश करने से निषिद्घ किया तो सावरकरजी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आर्य महासम्मेलन (कर्नाटक) के मंच से 1938 में यह घोषणा की थी कि आर्य समाज अपने आपको अकेला न समझे, हमारा पूर्ण समर्थन उनके साथ है, और यही हुआ भी। आर्यसमाज ने सनातनियों के मंदिरों की लड़ाई लड़ी तो सावरकरजी ने आर्यसमाज के ‘सत्यार्थप्रकाश’ की लड़ाई लड़ी। क्या उत्तम समन्वय था-थोड़ी सी देर में सावरकरजी का ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ आर्य समाज के आर्यभाषा, आर्य, आर्यावर्त्त के साथ इस प्रकार एकाकार हो गया जैसे दो पात्रों का जल एक साथ मिलकर एकरस हो जाता है।
हिंदू महासभा के नेता ने कहा कि आज भी हमें राष्ट्रवाद के बिंदु पर एक साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है । श्री कालिया ने कहा कि हिंदुत्व की बिखरी हुई शक्ति को समन्वित करना हमारा प्राथमिक कर्तव्य है । इसके लिए यदि हिंदू महासभा और आर्य समाज जैसी राष्ट्रवादी संस्थाएं एक साथ काम करेंगी तो निश्चय ही देश यथाशीघ्र हिंदू राष्ट्र घोषित हो सकेगा।
हिंदू महासभा के नेता ने कहा कि हमें याद रखना होगा कि सन 1944 में सिंध के मंत्रिमंडल ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ के 14वें समुल्लास को हटाने की घोषणा की। इस घोषणा के होते ही आर्य समाज उबल पड़ा। 20 फरवरी 1944 को दिल्ली में एक विशाल आर्य सम्मेलन का आयोजन किया गया। भारत के वायसराय को हजारों तार भेजकर सिंध मंत्रिमंडल के इस अन्याय को समाप्त कराने की मांग की गयी। केन्द्रीय असेम्बली में भाई परमानंद जी ने सिंध मंत्रिमंडल के इस निर्णय की भत्र्सना करते हुए कहा-‘‘सिंध में मंत्रिमंडल ने आर्यसमाज की धार्मिक पुस्तक ‘सत्यार्थप्रकाश’ के 14वें समुल्लास पर प्रतिबंध लगाकर समस्त हिंदू जाति को ही चुनौती दी है। यदि पहचान लिया जाए कि चौदहवें समुल्लास को इस्लाम धर्म के खण्डन के कारण प्रतिबंधित कर दिया जाए तो कुरान का प्रत्येक शब्द ही हिंदुओं के विपरीत पड़ता है। समस्त कुरान को जब्त क्यों न कर लिया जाए।’