है गौरवशाली इतिहास हमारा : सोमनाथ के मंदिर के विध्वंस का ले लिया गया था साथ के साथ प्रतिशोध
महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ के मंदिर को तोड़े जाने की घटना 1026 ईस्वी की है । इसके बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि महमूद गजनवी आया और वह आराम से हमारे मंदिर को तोड़ कर चला गया । यहां के लोगों में और यहां के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व में किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं हुई । उन्होंने आराम से देश की अस्मिता के प्रतीक सोमनाथ के मंदिर को लुट और मिट जाने दिया । इस प्रकार की धारणा मुस्लिम लेखकों ने जानबूझकर बनाई है और वर्तमान इतिहास हमें कुछ हमारे बारे में ऐसा ही बताता भी है कि हम पूर्णतया अकर्मण्य और नकारा थे । अपने राष्ट्रीय सम्मान के लिए लड़ना भी नहीं जानते थे । अब इसका सच क्या है ? आज इसी पर विचार करते हैं ।
1022 ईस्वी में गुर्जरेश्वर भीमदेव सोलंकी ने गुजरात के चालूक्य राज्य की सत्ता संभाली । सोलंकी वंश के इसी राजा के शासनकाल में सोमनाथ के विश्व प्रसिद्ध मंदिर को लूटने व तोड़ने की घटना 1026ई0 में घटित हुई थी । हमने पूर्व में यह स्पष्ट किया था कि 50,000 योद्धाओं के बलिदान के पश्चात ही महमूद गजनवी सोमनाथ के मंदिर को तोड़ने में सफल हुआ था । उस समय गुर्जरेश्वर भीमदेव भी उस विदेशी लुटेरे शासक के विरुद्ध आक्रमणकारी के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे । वह स्वयं भी युद्धभूमि में गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उनके घायल होने के उपरांत ही महमूद गजनवी मन्दिर विध्वंस के अपने कुकृत्य को करने में सफल हो पाया था ।
जब राजा भीमदेव को होश आया तो उन्होंने जालौर व अजमेर जैसे अन्य राज्यों के राजाओं से संपर्क साधा और सोमनाथ के मंदिर के तोड़े जाने की घटना को राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा प्रश्न बताकर इस विदेशी आक्रमणकारी का मिलकर सामना करने का निवेदन उन राज्यों से किया । ऐसा करके राजा ने उन राजाओं के सम्मान को झकझोरने का तो प्रयास किया ही साथ ही अपने स्वयं के राष्ट्रभक्त और राष्ट्रवादी होने का प्रमाण भी दिया । यह एक अच्छी बात थी कि जिन राज्यों से राजा भीमदेव ने सैनिक सहायता प्राप्त करने का आवेदन किया था उन सबने राजा भीमदेव के इस निवेदन को स्वीकार किया ।
तब तक महमूद गजनवी भी सोमनाथ के इर्द-गिर्द के क्षेत्रों में रहकर मारकाट , लूट व अन्य पैशाचिक अत्याचार कर रहा था। राजा भीमदेव को उस नरपिशाच का भारत में रुकना पल – पल के लिए कठिन होता जा रहा था । जिन राजाओं ने राजा भीमदेव को अपनी सैन्य सहायता प्रदान की उन्होंने भी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़े इस गंभीर प्रश्न को अपनी स्वयं की प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा और उन्होंने यथाशीघ्र अपनी सैन्य सहायता राजा भीमदेव को उपलब्ध कराई। इन सारे तथ्यों का उल्लेख श्री के0एम0 मुंशी ने अपनी पुस्तक ‘इंपीरियल गुर्जर्स’ में किया है । उनके द्वारा हमें ज्ञात होता है कि जब महमूद गजनवी भारत में जी भरकर लूटपाट करते हुए नरसंहार करने के पश्चात अपने देश के लिए लौट रहा था तो भारी गुर्जर सेना ने आक्रमण करके उसकी अधिकांश सेना को काट डाला था। उसके बहुत से तुर्की योद्धा कैदी हो गए थे जो बाद में हिन्दू होकर यहीं बस गए।
महमूद गजनवी से अपनी पराजय का यह प्रतिशोध राजा भीमदेव और उनके साथियों ने बड़े गोपनीय ढंग से और रणनीतिक कौशल के साथ लिया था । यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इतिहास में उसकी विजय तो बताई जाती है , परंतु उसको पराजय देने वाले भीमदेव और उनके साथी राजाओं के बारे में कुछ नहीं लिखा जाता । जब महमूद गजनवी की सेना लौट रही थी तो तुर्क सेना पर हमारे वीर योद्धाओं ने भारी प्रहार किया गुर्जरेश्वर भीमदेव ने महमूद गजनवी की सेना को खदेड़ कर उसकी जीत को पराजय में परिवर्तित कर दिया था। महमूद गजनवी को उसके आक्रमणों के समय में पहली बार ऐसी करारी पराजय मिली थी कि इसके पश्चात उसने कभी भारत की ओर देखने का साहस नहीं किया । माना कि उसने अपने पहले आक्रमणों में सफलता प्राप्त कर हमारी अस्मिता के प्रतीक सोमनाथ के मंदिर को लूटने में और उसे तोड़ने में सफलता प्राप्त की थी , परंतु उसके पश्चात जिस प्रकार उसकी पीठ तोड़ी गई , उसे वह जीवन भर सहलाता रहा था और इस बात पर प्रायश्चित करता रहा था कि भारत में जाकर और वहां के सोमनाथ मंदिर को तोड़कर उसने भारी गलती की थी । इतिहास के इस तथ्य को उचित महिमामंडन के साथ इतिहास में स्थान मिलना चाहिए।
जिस समय महमूद की हारी हुई सेना भागती हुई अपने देश की ओर जा रही थी ,उस समय सिंध व लोवर पंजाब के जाटों ने भी उस पर आक्रमण किया था । इस प्रकार जाटों ने भी महमूद गजनवी को सोमनाथ के पापों के लिए उसे कठोर दंड दिया था । ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जो सेना पहले ही पीटते हुए भाग रही थी , उसके लिए जाटों की ओर से किया गया यह प्रहार उनके लिए कैसा अनुभव रहा होगा ? निश्चय ही बहुत कड़वा अनुभव उन्हें हुआ होगा। महमूद गजनवी की अधिकांश सेना हमारे इन वीर योद्धाओं ने गाजर मूली की भांति काटकर फेंक दी थी , जो कुछ सैनिक अपने देश तक पहुंचे थे उनके पास न तो लूट का वह धन था जो उन्हें सोमनाथ के मंदिर की लूट से प्राप्त हुआ था और ना ही अब भारत में आने का अब कोई सपना बचा था। लुटे पिटे , हताश उन सैनिकों ने इस बात में ही अपना सौभाग्य समझा था कि वह अपने देश पहुंच गए। निश्चय ही उन्होंने अपने स्वामी महमूद गजनवी से कह दिया कि वह अब कभी भारत नहीं जाएंगे। इतना ही नहीं गजनी ने भी अपनी इस पिटाई के पश्चात यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि अब वह कभी भारत नहीं जाएगा । यही कारण रहा 1026 में हुई अपनी धुनाई के पश्चात वह कभी भारत पर फिर हमलावर के रूप में चढ़कर नहीं आया।
राजा भीमदेव इस विदेशी आक्रमणकारी महमूद गजनवी को यहां से भगा कर ही शांत नहीं रहे । देश के अन्य राजाओं ने राजा भीमदेव का साथ दिया और उन्हें गुर्जरेश्वर सम्राट मान लिया । तब राजा भीमदेव ने सिंध और गजनी के मुसलमानों के आक्रमणों को रोकने के लिए फिर से वैसी ही सुरक्षा व्यवस्था करने की तैयारी की जैसी प्रतिहार वंश के शासकों के समय में की गई थी । उन्होंने सोमनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और फिर से उसे वैसा ही वैभव प्रदान किया जैसा महमूद गजनवी के तोड़ने से पहले था।
इतिहास का यह बहुत ही रोचक और रोमांचकारी तथ्य है कि 1026 ई0 में सोमनाथ मंदिर के तोड़ने के बाद लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक इस्लाम का कोई बड़ा आक्रमण भारत पर नहीं हुआ । जो लोग महमूद गजनवी को ही भारत में इस्लाम का साम्राज्य स्थापित करने वाला मानते हैं उन्हें इस तथ्य के बारे में भी समझना चाहिए कि उसके लगभग डेढ़ सौ वर्ष पश्चात मोहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण करने आरंभ किए थे । इस तथ्य को समझना चाहिए कि इतने वर्षों तक इस्लाम के आक्रमणकारी भारत पर हमला करने के बारे में सोच क्यों नहीं पाए ? निश्चय ही उन्हें 1026 ई0 में सोमनाथ तोड़े जाने के कटु अनुभव हुए होंगे । जिसके कारण वह अपने घावों को इतने लम्बे काल तक सहलाते रहे ।
— आज हममें से कितने ऐसे लोग हैं जो अपने राजा भीमदेव के चित्र को पहचानते हैं ?
— कितने लोग ऐसे हैं जो अपने उन जाट वीरों को जानते हैं जिन्होंने राजा भीमदेव की सहायता करते हुए हमलावर महमूद गजनवी की जमकर धुनाई की थी और अपने राष्ट्रीय अपमान का प्रतिशोध लिया था ?
— कितने लोग हममें से ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि राजा भीमदेव के निवेदन पर उसकी सहायता करने वाले वह कौन कौन से राजा थे और कौन से उनके चित्र हैं जिन्होंने राष्ट्रीय अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए अपनी सेनाएं बिना शर्त भेजी थीं और राष्ट्रीय अपमान का प्रतिशोध लेकर ही उनके स्वाभिमानी मन को शांति मिली थी ?
“मौलाना आजाद छाप इतिहास” की गर्द के नीचे यह सारे छुप गए या दबा दिए गए ?
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कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘इंपीरियल गुर्जर्स’ में इस सारी घटना को बहुत अच्छे ढंग से उल्लेखित किया गया है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत