कविता : श्रम
कब तक पूर्वज के श्रम सीकर पर यूँ मौज मनाओगे।
आज बीज श्रम का रोपोगे तब कल फल को पाओगे।
पूर्वज की थाती पर माना पार लगा लोगे खुद को-
लेकिन अगली पीढ़ी को बद से बदतर कर जाओगे।।
इसीलिए उठ नींद त्यागकर सूरज का दीदार करो।
श्रम सीकर की कीमत समझो और कर्म स्वीकार करो।
जो पाया उतना देना तो फर्ज तुम्हारा बनता है-
कर्म राह का अनुयायी बन कर्मभूमि से प्यार करो।।
श्रम सीकर के सरिस खजाना नहीं दूसरा इस जग में।
मरुथल में पानी भर देता राह बनाता है नग में।
इसकी महिमा वही जानता जो इसको उपजाता है-
इससे काया उन्नत होती वांछित फल आता पग में।।
डॉ. अवधेश कुमार ‘अवध’