ओ३म्
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मनुष्य जिन गुण, कर्म व स्वभाव को धारण करने से मनुष्य कहा जाता है उनमें से एक गुण दया भी है। दया दूसरे मनुष्यों व प्राणियों पर दया, प्रेम, सहानुभूति, हित कामना रखने को कहते हैं। दया करना सह-अनुभूति प्रकट करना होता है तथा उसी के अनुरूप दूसरों की सहायता, सेवा-शुश्रुषा, दुःख निवारण तथा उन्नति आदि करने में सहयोग करना होता है। ईश्वर का एक गुण दयालु या दयावान होना है। ईश्वर हम पर दया करता है। इस दया के गुण के कारण ही उसने जीवात्माओं का कल्याण करने के लिये इस अत्यन्त विशाल ब्रह्माण्ड वा सृष्टि की रचना की है। इस सृष्टि में वनस्पतियों, ओषधियों, अग्नि, जल, विद्युत, वायु, आकाश, गाय, माता-पिता आदि नाना प्रकार के पदार्थों को बनाया है जिससे सभी मनुष्यों व प्राणियों को सुख प्राप्त होता है। यदि ईश्वर ऐसा न करता तो अनन्त संख्या वाले जीव सृष्टि की रचना न होने से अन्धकार में ढके व पड़े होते और उन्हें किसी प्रकार का सुख व दुःख सुलभ न होता। वह मनुष्य आदि योनियों में जन्म लेकर ज्ञान की उन्नति तथा पुरुषार्थ से अन्य मनुष्यों व प्राणियों को सुख प्रदान नहीं कर सकते थे।
ईश्वर जीवात्मा का माता, पिता, आचार्य, राजा तथा न्यायाधीश है। हमें अपने जीवन को सफल करने के लिये ईश्वर के समान अपने गुणों को बनाना है। यदि हमारे गुण ईश्वर के अनुकूल न होकर विपरीत होंगे तो हमारा भूत, वर्तमान तथा भविष्य इन तीन कालों में कल्याण नहीं हो सकता। वस्तुतः जब मनुष्य ज्ञानवान होता है और ज्ञान के अनुरूप कर्म करता है तभी वह मनुष्य शब्द को सार्थक करने के साथ अपने जीवन को कल्याणप्रद बनाता है। मनुष्य को किन गुणों को धारण करना है इसका उत्तर भी यही है कि उसे अपने गुणों को ईश्वर के गुणों के अनुरूप बनाना है। ईश्वर के जिन गुणों को धारण करना है वह गुण उसे वेदाध्ययन करने से ज्ञात होते हैं। उनका पालन करना ही धर्म एवं कर्तव्य होता है। जो मनुष्य वेद विरुद्ध कोई भी कर्म करता है वह अधर्मी व पापी होता है और उसे ईश्वर की न्याय व्यवस्था से उसका फल भोगना पड़ता है। हमारे देश के सभी ऋषि, मुनि तथा विद्वान प्राचीन काल से वेदों का अध्ययन कर वेदानुमोदित गुणों को धारण करने सहित उनका आचरण करते थे जिससे वह स्वस्थ रहते हुए दीर्घायु प्राप्त कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होते थे। हमें अपने विद्वान पूर्वजों के जीवन के अनुरूप ही अपने जीवन को बनाना है। इसी में हमारा तथा सृष्टि का कल्याण निहित है।
आर्यसमाज का एक बहुत प्रसिद्ध भजन है जिसकी प्रथम पंक्ति है ‘दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना, दया करना हमारी आत्मा को शुद्धता देना।’ इस भजन में परमात्मा को दयालु बता कर उससे हमें भक्ति करने की प्रेरणा व सामथ्र्य प्रदान करने की प्रार्थना की गई है। भक्ति करना ईश्वर के अनन्त उपकारों के लिये उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना होता है। ईश्वर ने हमें यह सृष्टि और मानव शरीर दिया है। ईश्वर के इस ऋण से उऋण होने के लिए उसने हमसे कोई शुल्क नहीं लिया है। संसार में नियम है कि हम जिससे किंचित भी सहायता लेते हैं उसको धन्यवाद कहकर आभार व्यक्त करते हैं। इसी प्रकार से परमात्मा के अगणित उपकारों के लिये हम धन्यवाद स्वरूप उसकी भक्ति करते हैं। ऐसा करने से हम परमात्मा की और अधिक कृपा व दया को प्राप्त करते हैं। भजन में आत्मा को शुद्धता देने की भी विनय की गई है। शुद्धता का अर्थ कि हमारी आत्मा के सभी संकल्प, विचार, भावनायें, कामनायें आदि शुद्ध व परमार्थ की भावनाओं से युक्त हों। यदि ऐसा नहीं है तो हम मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं होते। आत्मा की शुद्धता होनी आवश्यक होती है।
शास्त्र कहते हैं कि विद्या व तप से आत्मा तथा बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि विद्या को प्राप्त कर उसके अनुरूप पुरुषार्थ करे। विद्या वैदिक ज्ञान को कहते हैं। जो वैदिक ज्ञान से रहित व विपरीत आचरण करते हंै वह विद्वान नहीं कहला सकते। वह किसी भाषा व कुछ विषयों का ज्ञान तो रख सकते हैं परन्तु बिना वेदज्ञान व उसके अभ्यास से उनकी आत्मायें विद्या से युक्त नहीं हो सकती। विद्वान बनने के लिये वेदाध्ययन आवश्यक एवं अनिवार्य है। यही कारण है कि वेदज्ञान से रहित मनुष्य पढ़ लिख कर भी अधर्माचरण का आचरण करते हैं। मांस का सेवन करते हैं, मदिरापान करते हैं, झूठ बोलते हैं, भ्रष्ट आचरण करते हैं तथा लोगों के अधिकारों का हनन करते हैं। इन्हें विद्वान नहीं कहा जा सकता। ऐसा करना तो अनाचार व पाप होता है। इसका कारण उनका वेदज्ञान से दूर होना व उनमें संकल्प शक्ति का अभाव होना है। उन्हें यह पता नहीं होता कि उन्हें अपने प्रत्येक कर्म का फल भोगना होगा। जिस प्रकार मनुष्य के गलत काम करने पर पुलिस उसे बन्दी बना लेती है और न्यायालय उसके अपराध के अनुरूप उसे दण्ड देता है इसी प्रकार से परमात्मा भी जीवात्मा को उसके पूर्व कर्मों का पहले भोग कराकर इस जन्म के अनेक कर्मों का कालान्तर व जन्मान्तर पर भोग प्रदान करते हैं। वेदज्ञान से वंचित मनुष्य इस कर्म-फल रहस्य को जानता नहीं या भूला हुआ होता है। अतः एक अच्छा वा यथार्थ मनुष्य बनने के लिये उसे वेदों का अध्ययन करना तथा उसके अनुरूप आचरण करना अत्यन्त आवश्यक है।
दया रूपी गुण को धारण करने से मनुष्य यशस्वी बनता है। उसकी कीर्ति चहुंओर फैलती है। जिसका यश व कीर्ति होती है वह मर कर भी अमर हो जाता है। राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य, शंकराचार्य, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरदार पटेल, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, लाल बहादुर शास्त्री आदि सभी यशस्वी एवं कीर्तिवान मनुष्य थे। यह मर कर भी अमर हैं। देश के सभी सभ्य पुरुष इनकी प्रशंसा करते हैं। यह उपलब्धि इनके जीवन के सत्कर्मों तथा दया व सत्य आदि गुणों का ही परिणाम कही जा सकती है। ऋषि दयानन्द ने तो अपना नाम ही दया व आनन्द को जोड़कर रखा था। आनन्द तभी प्राप्त हो सकता है कि जब हम दूसरों के प्रति दयावान हों। ऋषि दयानन्द ने अपने गुणों व कर्मों से अपने नाम को सार्थक किया था। वह ऐसे दयानन्द थे जिन्होंने उन्हें विष देने वाले निन्द्य व्यक्ति को भी कोई कटु वचन तक नहीं कहा, उसे कष्ट देने का विचार भी उनके मन में नहीं आया। उनके जीवन की एक घटना उनकी दया के गुण पर बहुत अच्छा प्रकाश डालती है। ऋषि दयानन्द वेद प्रचार के लिये देश के अनेक भागों में जाते थे। पौराणिक और अन्य मतों के अनुयायी उनसे द्वेष रखते थे और प्रकट व अप्रत्यक्ष रूप से उनका अहित चाहते थे। वह कानपुर वेद प्रचार हेतु गये और वहां अपने शिष्यों सहित कई दिनों तक रूके। वहां पर वह वेद मत के पक्ष में उपदेश भी किया करते थे। वहां अनेक लोग उनके भक्त व प्रशंसक बन गये थे। उनके निवास के सामने ही एक पण्डित जी रहते थे। वह प्रातः सायं व दिन में भी उन्हें अपशब्द व कटुवचन बोलते रहते थे। उस व्यक्ति की आवाज स्वामी जी के कानों में स्पष्ट रूप से पहुंचती थी। स्वामी जी के भक्त स्वामी जी से अनुमति मांगते थे कि हम बलात् उसे चुप करा आयें परन्तु स्वामी जी सबको रोकते थे। एक दिन कुछ भक्त स्वामी जी के लिये टोकरियों में भर कर मिष्ठान्न व फल ले आये। यह सामग्री स्वामी जी व उनके अनुचरों के उपयोग से काफी अधिक थी। स्वामी जी ने उस सामग्री के सदुपयोग करने का उपाय सोचा। सामने रहने वाले पण्डित जी द्वारा स्वामी जी को निरन्तर अपशब्द कहे जा रहे थे। स्वामी जी ने अपने शिष्यों को कहा कि फल व मिष्ठान्न का एक टोकरा सामने वाले व्यक्ति को दे आओ। शिष्य ने कहा कि महाराज वह तो आपको अभद्र गालियां देता है व अब भी दे रहा है। स्वामी जी ने उन्हें आदेश का पालन करने को कहा। स्वामी जी के व्यक्ति उस पण्डित जी के पास पहुंचे और वह मिष्ठान्न व फल उसे प्रदान करते हुए कहा कि सामने वाले स्वामी दयानन्द जी ने भेजे हैं। उस व्यक्ति को विश्वास ही नहीं हुआ कि वह जिस व्यक्ति को गालियां देता है, वह उसे मिठाईयां व फल भेजेगा। इस घटना ने उस व्यक्ति का हृदय परिवर्तन कर दिया। वह स्वामी जी के पास आया और अपनी भूल की क्षमा मांगने लगा। दया की मूर्ति स्वामी जी ने कहा कि हम तुम्हारे किसी शब्द पर ध्यान नहीं देते। आप दुःखी न हों और हमारी भेंट स्वीकार करें। बताते हैं कि इस घटना के बाद वह स्वामी जी का प्रशंसक बन गया। यह ऋषि दयानन्द की दया का एक उदाहरण है। हम भी इससे शिक्षा ले सकते हैं। हमें अपने विरोधियों से व्यवहार करते हुए उनका वास्तविक मूल्याकंन करना चाहिये। कुछ लोग अज्ञानतावश हमारा विरोध करते हैं। वह क्षम्य होते हैं। अन्यों के प्रति नियम है कि ‘सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये।’ इस नियम का पालन करने से ईश्वर की आज्ञा का पालन होता है। सभी परिस्थितियों में दया करना उचित नहीं होता। दुष्टों के प्रति यथायोग्य व्यवहार ही उचित होता है। ऐसा ही शास्त्रों में उल्लेख है। राम, कृष्ण और दयानन्द जी के जीवन के उदाहरणों से भी इसकी पुष्टि होती है।
दया के महत्व को अन्य कई प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है। हम मनुष्य हैं, इसलिये हमें अकारण किसी से द्वेष नहीं करना है। हमें अपने हृदय में दया को धारण करना चाहिये और शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार द्वेषरहित होकर दूसरों के साथ धर्मानुसार व्यवहार करना चाहिये। ऐसा करने से ही हमारा व धर्म व संस्कृति का संरक्षण होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य